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चैथा अध्याय
[२३ माता बहिन अथवा सुता जिसको सदा परकामिनी । गाहस्थ्य जीवन में सदा है भामिनी ही स्वामिनी ॥ दाम्पत्य की अकलंकता जीवन रसायन है जिसे ।
निज प्राण से भी प्रिय अधिकतर शीलमय-मन है जिसे ।१५। ऐश्वर्य को जिसने न समझा श्रेष्ठता का माप है । समझा वृथा सम्पत्ति--संग्रह पाप का भी बाप है ॥ सम्पत्ति जिमको बोझ है बस दान की ही चाह है। आवे न आवे नष्ट हो जावे न कुछ पर्वाह है ॥१६॥
सम्पत्ति पाई पर समझता है कभी स्वामी नहीं । हैं भोग सारे हाथ में बनता मगर कामी नहीं । घर में भरा भंडार हो, फिर भी न अधिकारी बने ।
स्वामित्व की दुर्वासना से शन्य भंडारी वने ॥१७॥ धनका उचित उपयोग हो इसका सदा ही ध्यान है । होती ज़रूरत है जहाँ करता वहीं पर दान है ॥ पर दान को मनमें समझता भी नहीं अहसान है। करता सदा वह विश्व हित में स्वार्थ का अवसान है ॥१८॥
अधिकार कितना भी रहे मद है न पर अधिकार का । अधिकार में भी ध्यान है सब के विनय का प्यारका ॥ अधिकार के बदले कभी पाता न जो धिक्कार है।
अधिकार के उपयोग में आता न पापाचार है ॥१९॥ पाये सफलता पूर्ण पर अभिमान है लाता नहीं । व्यक्तित्व ईश्वर-सम बने उन्माद पर आता नहीं ॥