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कृष्ण-गीता जिमकी महत्ता है विनय के रूप में परिणत सदा । गौरव शिग्वर पर भी चढ़ा हो किन्तु मस्तक नत सदा ॥२०॥
मुरव देवकर करता नहीं जो नीतिका निर्माण है । जिमकी कसौटी नीतिकी संमार का कल्याण है ॥ माने न माने यह जगत करता जगत का त्राण है ।
है प्राण आवश्यक जहाँ देता वहीं पर प्राण है ॥२१॥ मानी नही मायी नहीं लोभी नहीं क्रोधी नहीं । परमार्थ जिमका स्वार्थ है कल्याण-पथ रोधी नहीं ॥ संमार के उद्धार मे जो मानता उद्धार है । जिसको जगत के प्राणियों पर नित्य मच्चा प्यार है ॥२२॥
पालन करे पुरुषार्थ सब मवत्र मकमी रहे । अर्थी रहे त्यागी रहे कामी रहे धर्मी रहे ॥ सारी कलाओं में सुरुचि हो हो विकल जीवन नहीं ।
हो सब रसो मे एक रस रसहीन जिमका मन नहीं ॥२३॥ आलस्य हो जिसमें नहीं झूठा नहीं विश्राम हो । दिनरात हो कर्तव्यमय कर्मण्यता का धाम हो ॥ लकिन सदैव निवृत्ति का रखता हृदय में ध्यान हो । दुःस्वार्थ से बचता रहे परमार्थ का गुणगान हो ॥२४॥
हठ है न जिसको बातका कल्याण का ही ध्यान है । कर्तव्य में जिसको बराबर मान या अपमान है । कर्तव्य में जो लीन है फलकी न आशा भी जिसे । क्षणको अनुत्साही न कर सकती निराशा भी जिसे ॥२५॥