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चौथा अध्याय
[२५ विपदा जिसे दुर्दैन्य की चोटे खिला सक्ती नहीं । जिसका अदम्यात्साह मिट्टी में मिला सकती नही । म-पत् जिसे अभिमान की मदिरा पिला सकती नहीं । कर्तव्य के मन्मार्ग से अणुभा हिला सकती नहीं ॥२६॥
कर्तव्य पथ मे मौत भी जिसका डरा सकती नहीं । संसार भर की शक्ति अनुचित कृति करा सकती नही ।। जो घूमता है, मौत को अपनी हथेली पर लिये ।
जीवन मरण की लालसा स दूर अपना मन किये ॥२७॥ जिमका अयशका डर नहीं यश की न अधी चाह है । हा नाम या टुर्नाम केवल मन्य की पर्वाह है ॥ जिसने निकाली कीर्ति की अपकीति मे से राह है । दुनिया उमे कुछ भी कहे अपने हृदय का शाह है ॥२८॥
संवा न पहिचाने जगत पृछे न कोई बात कोई मुनाव गालियां कोई लगावे लात भी। दी फिर स्थपर चढ़ यह धूल ही फाँका करे ।
सत्कार हो उनका वहाँ यह दूर ही झाँका कर ॥२०॥ फिर भी नही जिमकं हृदय मे चाटुकारी आ सके । खुश याकि नाखुश हा जगत जिमका न दिल पिघला सके । कर्तव्य करना है जिसे यश लूट लाना है नही । सेवा बजाना है जिसे जगको रिझाना है नही ॥३०॥
आदर अनादर या उपेक्षा एक सी जिमको सदा । जिसके बदन पर दे दिग्वाई मुस्कराहट सर्वदा ॥