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कृष्ण-गीता जिसको निराशा हो नहीं नौका अड़ी मँझधार हो ।
जीवन भले इसपार हो आशा मगर उस पार हो ॥३१॥ संसार को जो दे अधिक पर न्यून ही लेता रहे । जीवन लगादे, विश्व को सेवा सदा देता रहे ॥ परकार्यसाधक साधु हो जो साधुताकी मूर्ति हो । जिसका कुटुंबी हो न कोई वह उसी की पूर्ति हो ॥३२॥
स्थितिप्रज्ञ कहते हैं इसे अच्छी तरह तू जान ले । निर्लिप्त रहकर कर्म करने की कला पहिचान ले ॥ सदसद्विवेक मिला तुझे उसका कहा तृ मान ले । कर्तव्य प्रस्तुत है यहाँ तू पूर्ति का प्रण ठानले ॥३३॥
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