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तेरहवा अध्याय
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मुक्ति न हो ईश्वर न हो और न हो परलोक ।
धर्म करे जग किस लिये वृथा पापकी रोक ॥१५॥ श्रीकृष्ण---
धर्म कहा सुख के लिये रख तृ उस पर ध्यान । मुक्ति ईश परलोक को मतकर ध्येय प्रधान ॥१६॥
मुक्ति मान नहीं या मान तू परम मुक्ति का धाम । बहु-जनका कल्याणकर हुए पूर्ण सब काम ॥१७॥ मुक्ति मानकर यदि किया निज पर का कल्याण | मुक्ति रहे अथवा नहीं हुआ दुःख से त्राण ॥१८॥ 'सदाचार फल सुख सदा' मानी इतनी बात । मुक्ति न मानी क्या गया रहा धर्म दिनरात ॥१९॥ दुख में भी सुख दे सके यही मोक्ष का कार्य । सिद्धशिला वैकुण्ठ या है न इसे अनिवार्य ॥२०॥ मैं तुझ से हूँ कह चुका यहीं मोक्ष संसार । किधर ढूँढता मोक्ष तू अपनी ओर निहार ॥२१॥ मनको मोक्ष तभी मिले जब हो मन में धर्म । धर्म तभी मिल पायगा, जब हों दूर कुकर्म ॥२२॥ नित्य मुक्ति हो या न हो सुख चाहें सब लोक ।
इसीलिये मत बोल तू वृथा पाप की रोक ॥२३॥ अर्जुन
नित्य मुक्ति यदि हो नहीं व्यर्थ हुए सत्कर्म । थोड़े से सुख के लिये कौन करेगा धर्म ॥२४॥