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कृष्ण-गीता अनिवार्य जो आरम्भ हो उमको ममझ मत पाप तू । वह दूसरा करदे करे या कार्य अपनेआप तु ॥ है कार्य दोना एकसे अन्तर समझना व्यर्थ है । निर्दोष बनने के लिये आलस्य एक अनर्थ है ॥२६॥ उद्योग सारे एक ही नर है न कर सकता कभी । जितना बन जो काम जब उतना करे हम सब तभी ॥ जो बन सके वह जग करे जो बन सके वह हम करें । हां, बन सके जि.नी वहाँ तक प्राणि-हिसा कम करे ॥२॥ आरम्भ या उद्योग छोड़ा यह अहिमा है नहीं । होता जहां पर भोग है तजन्य हिंसा भी वहीं ॥
आरम्भका है त्याग अपरिग्रह बनाने के लिये । मितभोगता है विश्व की सेवा बजाने के लिये ॥२८॥ हाँ, जो अनावश्यक रहे उद्योग वह करना नहीं । या प्राणिवव को लक्ष्य करके पाप-घट भरना नही । जितना बने उतना अहिंसा के लिये ही यत्न हो । हिंसा अहिंसा के लिये करके मनुज नररत्न हा ॥२९॥
संकल्पजा हिमा संकल्पजा है पाँचवीं हिंसा यही है दुवकरी । निर्दोष का वध है जहां हिंसा वहीं है अघभरी ॥ दुःस्वार्थवश अपराध-हीनों को अगर कुछ दुख दिया । संकल्प जा हिंसा हुई जिसने जगत दुखमय किया ॥३०॥ मिलता अगर है अन्न तो है मांस-भक्षण में यही । हो यज्ञके भी नामपर पशु-वध, यही हिंसा कही ।