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सातवाँ अध्याय
जो देशको या कुल कुटुम्बी मित्र दल को त्रास दे । निर्दोष का संहार कर जो नरकका आभास दे ॥२०॥ संहारमय जिसकी प्रकृति, जो शान्तिका मंजन करे । हो रौद्र, जन-संहार में जो हृदय का रंजन करे ॥ जो भार है संसार का है स्रोत अत्याचार का । जो आततायी विश्वका वह पात्र है संहारका ॥ २१॥ निज देश-रक्षण के लिये यदि युद्ध भी करने पड़े । यदि आक्रमणकारी दलों के प्राण भी हरने पड़े ॥ अधिकार रक्षण के लिये यदि शत्रु वध अनिवार्य है । तो है नहीं हिंसा यहां कर्तव्यका ही कार्य है | २२ ॥ यदि पापियों के पाप से अपनी न कोई हानि हो । पर दूसरों की हानि हो बनता जगत दुखग्वानि हो । इसके लिये हिंसा हुई वह जान ले करुणाभरी । 'पररक्षिणी' यह है अहिंसारूप हिंसा नीमरी ॥२३॥ आरम्भजा - हिंमा
'आरंभजा ' हिंसा यथा सम्भव न हिंसागार है । गृहकार्य में उद्योग में जो वृत्ति का आधार है । कृषिकार्य में हिंमा यही जिसमें न कोई दोष है । जो अन्न देकर मांस भक्षण रोकती, यह तोप है ||२४|| आरम्भजा हिंसा कही अनिवार्य जीवन के लिये । इससे न हिंसारूप है यह प्राण हैं इसने दिये ॥ आरम्भ यदि ये बन्द हों मानव वृथा मर जायगा | फिर साधुता होगी कहाँ बस पाप ही भर जायगा ||२५||
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