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कृष्ण-गीता
मुग्व शान्ति का जो मूल है वह ही अहिमा धर्म है । हा वह अहिमा म्प हिंसारूप या सत्कर्म है ॥१५॥
स्वाभाविकी हिंमा है पञ्चविध हिंसा प्रथम 'स्वाभाविकी यह नाम है | जो है न हिंसामपिणी जो प्रकृतिका परिणाम है ॥ अनिवार्य है, उसके लिये कोई इरादा है नहीं । वह स्वाम उवामादि में होती मदा है भव कह। ॥१६॥ जीवन मरण का काय प्राकृत रानिमे जो चल रहा । म्वाभाविकी हिंमा अवश्यम्भावि फल उमका कहा ॥ है प्राणिवध होता यहां हाता नहीं पर पाप है । इसम किमी का दोप क्या यह प्रकृतिका अनुताप है ॥१७॥
आत्मरक्षिणी हिंसा अन्याय अन्याचार अपने पर अगर कोई करे । बन आततायी मनुज या पशु प्राण भी अपन हरे । नो आत्मरक्षण के लिये संहार यदि अनिवार्य है। तो है न हिंसा प्राणिवध में प्राणिवध भी कार्य है ॥१८॥ औचित्य की सीमा रहे, इसमें नहीं फिर दोष है । जो आत्मरक्षक है, रहे हिंसक, मगर निर्दोष है ।। दोपी वही जिसने प्रथम अन्याय से समता हरी । निजरक्षिणी है यह अहिंसारूप हिंसा दूसरी ॥१९॥
पररक्षिणी हिंमा संसार का जो शत्रुसा है नीतिका नाशक तथा । निर्दोष लोगों के लिये देता मदा नवनव व्यथा ॥