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(१८) बहुत तपस्याएँ हुईं कस कर बंधा लँगोट । सह न सका पर एक भी मकरध्वज की चोट । देह दिगंबर हो गई मन पर मन-भर सूत । बुनकर बन बैठा वहाँ मोह पाप का दूत ॥ तन का तो आसन जमा मन के कटे न पाँख । बगुला तो ध्यानी बना पर मछली पर आँख ॥ जबतक मन वश में नहीं तबतक कैसा त्याग। भीतर ही भीतर जले बिकट अवाकी आग ॥ चोरी करता चोर पर चोरी सहे न चोर । चोरों के घर चोर हों चोर मचावें शोर ॥ वहाँ विषमता है जहाँ प्रति-क्रिया है पार्थ ।
योगी के समरूप है चारों ही पुरुषार्थ ॥ कहाँ तक उद्धरण दिये जायँ । नाना शंकाओं का सरल से सरल भाषा में श्रृंखला-बद्ध समाधान दिया गया है जो सभी श्रेणी के पाठकों को अपूर्व विचार-गति प्रदान करता है ।
अन्तिम गीतमें निष्कर्ष-रूप में कैसा यथार्थ उपदेश दिया गया है:-- भाई पढ़ले यह संसार। खुला हुआ है महाशास्त्र यह जिस में वेद अपार ॥
भाई, पढ़ ले यह संसार । अनुभव और तर्क दो आँखें अंजन सारे वेद । देख सके सो देखे भाई, काला और सफ़ेद ॥
अद्भुत पुण्य-पाप भण्डार । भाई पढ़ले यह संसार ॥