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हो वह अहिंसा रूप हिंसा-रूप या सत्कर्म है ॥ निज देश-रक्षण के लिये यदि युद्ध भी करने पड़ें। यदि आक्रमणकारी दलों के प्राण भी हरने पड़ें | अधिकार रक्षण के लिये यदि शत्रुवध अनिवार्य है । नो है न हिंसा प्राणिबध में प्राणिवध भी कार्य है ॥ इस प्रकार स्पष्ट शब्दों में हिंसा अहिंसा का मर्म समझाते हुए अन्त में कहते हैं:
सचमुच अहिंसा ही कसौटी है सकल सत्कर्म की । रहती अहिंसा है जहाँ सत्ता वहीं है धर्म की ॥ पर बाहिरी हिंसा अहिंसा से न निर्णय कर कभी । होती अहिंसा बाह्य हिंसा रूप भी मत डर कभी ॥ कल्याण जिस में विश्व का हो और हो निःस्वार्थता | फिर हो अहिंसा या कि हिंसा पाप का न वहाँ पता ॥ मोहजा तेरी अहिंसा मूल मे न विवेक है । वह है नहीं सच्ची अहिंसा, मोह का अतिरेक है | इसी प्रकार 'होती जहाँ अहिंसा, सच भी वहीं समाया' कहते हुए सत्यके भी नाना भेद-प्रभेद बतलाये गये हैं जिसका सार हैं कि जो विश्व--कल्याणकारी है वही सत्य है चाहे वह तथ्य ( जैसा का तैसा ) हो या न हो ।
ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, अचौर्य आदि को सत्य अहिंसा में ही अन्तर्भाव करते हुए सुन्दर सूक्तियाँ लिखी गई हैं जो हृदय पर सीधा प्रभाव डालती हैं ।