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किसीके गौर मुखड़े पर सुहाते बाल हैं काले । मुहातीं नील आँखियाँ हैं तथा तिल का निशाना है | प्रकृति के नील अंगन में सुहाता चन्द्रमा कैसा । विविधता के समन्वय में खुदाई का खजाना है ॥ चमन में भी सदा दिखता विरोधों का समन्वय ही । कहीं है काटना डाली कहीं पौधे लगाना है ॥ अनुग्रह और निग्रह कर मगर समभाव रख मनमें | चमन का बागवाँ बन तू चमन तुझको बनाना है || जब अर्जुन को यह महान् शंका होती है कि :
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सब धर्मों में मुख्य अहिंसा धर्म बताया । पर है हिंसा - काण्ड यहाँ पर सम्मुख आया || कैसे हिंसा करूं अहिंसा कैसे छोडूं ?
क्यों हिंसा से विश्व-प्रेम के बंधन तोडूं ?
तब श्रीकृष्ण हिंसा और अहिंसा के नाना भेद-प्रभेद बताते हुए कहते हैं:--
अन्याय हो फिर भी अहिंसा को लिये बैठे रहो, तो पाप का तांडव मचेगा शांति क्यों होगी कहो ! एकान्त हिंसा या अहिंसा का न करना चाहिये; सन्नीनि रक्षण के लिये भू भार हरना चाहिये || फिर कहते हैं :
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यदि अल्प-हिंसा से अधिक हिंसा टले सुखशान्ति हो, तो अल्प हिंसा है अहिंसा क्यों यहाँ पर भ्रांति हो ? सुखशान्ति का जो मूल है वह ही अहिंसा धर्म है ।