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पहिला अध्याय गेने लगी तब शान्ति देवी बन्धुना रोने लगा।
सोने लगी मवृत्ति ब्रह्मा को व्यथा होने लगी ॥ ९ ॥ कुरुक्षेत्र में आकर डटे नरमेध करने के लिये। दीपक शिखा में शलभ वन बेमौत मरने के लिये ॥
यमराज के मुग्व में नरो का रक्त भरने के लिये ।
दौर्जन्यसे सौजन्यके सब प्राण हरने केलिये ॥ १० ॥ श्रीकृष्ण के आगे विकटतर यह समस्या थी वडी । 'नर-नाग या नय-नाश में से क्या चुनूँ मैं इस घड़ी ॥ ___ कर्तव्य मेरा है यहाँ क्या, धर्म की रक्षा कहाँ "
सोचा ‘वहीं है धर्मरक्षा न्याय की रक्षा जहाँ ॥ ११ ॥ अन्यायियों के नाश में, न्यायी-जनों के त्राण में । रहती अहिंसा भगवती या विश्वके कल्याण में ॥
फिर भी लहँगा मैं नहीं, लोहा न लूंगा हाथ में ।
निःशस्त्र होकर मै रहूँगा पार्थ के बस साथ में ॥ १२ ॥ योगश ने यों पाण्डवों की प्रार्थना पर मन दिया । नटनागरी का कर प्रदर्शन सूत का बाना लिया ।
वे कर्म-योगेश्वर रहे कर्तव्य में फिर मान क्या ?
योगी जगन्सेवक हुए फिर शूद्रता का ध्यान क्या ॥ १३ ॥ मानव-जगत का सारथं --रथ सारथी बन कर चला। निःशस्त्र था पर पापियों के सिर पड़ी मानों बला ॥
अन्यायियों का सूर्य तपकर, अस्त होने को ढला । रोते हुए से पाण्डवा का भाग्य से संकट टला ॥ १४ ॥