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तेरहवाँ अध्याय
दोनों का दर्शन जुदा किन्तु धर्म है एक । 'घड् दर्शन के भेद से धर्मे में न कुटेक ॥ ६१ ॥
परलोक
आत्मतत्त्व ध्रुव सत्य है है उसका परलोक । इसीलिये ही मौत का करें न बुध-जन शोक || ६२॥ फटे पुराने वस्त्र सा छोड़ा एक शरीर । तभी दूसरा मिल गया क्यों होना दिलगीर ॥ ६३॥ आत्मसिद्धि हैं कर रहे अनुभव और विवेक | फिर भी दर्शन - शास्त्र की यह है गुत्थी एक ॥६४॥ है निःसार विवाद यह इसका कभी न अन्त । इसीलिये पडते नहीं इस झगड़े में मन्त || ६५|| अपने अनुभव से करें वे आत्माका ध्यान । अजर अमर चैतन्यमय आत्मा शक्ति - निधान ॥६६॥ आत्मतत्त्व जब नित्य है तब परलोक अरोक | मृत्यु - अनन्तर जो मिले वही कहा परलोक ॥६७॥ है न कहीं परलोक की कोई जगह विशेष | जगह जगह परलोक है आत्मा का नववे ॥६८॥ पाया है परलोक यह पूर्व जन्म के बाद -- हम सब हैं परलोक मे भले नहीं हो याद ॥ ६९ ॥ यह छोटी सी जिंदगी है छोटा सा खेल | यह पूरा जीवन नहीं कुछ घड़ियोंका मेल यह जीवन दुखमय रहे फिर भी हों न निराश । आत्माका जीवन बहुत कभी न उसका नाश ॥ ७१ ॥
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