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कृष्ण-गीता अर्जुन--
यदि सुख-वर्धन ही निकष सुख-वर्धन ही ध्येय । सुग्व-वर्धन ही सार हो सुख-वर्धन ही ज्ञेय ॥२४॥ तब तो जगमें स्वार्थ का होगा ताण्डव नृत्य । मानवता मर जायगी बनी स्वार्थ की भृत्य ॥२५॥ चोरी करके चोर जन व्यभिचारी व्यभिचार । बोलेंगे निर्भय बने 'पाया सुख का सार' ॥२६॥ हिंसक जन भी स्वार्थवश करके हिंसा कार्य । कह देंगे 'यह धर्म है है सुखार्थ अनिवार्य' ॥२७॥ झूठ बोलकर भी जगत करके मायाचार । बोलेगा 'यह धर्म है हम को सुख--दातार' ॥२८॥ जग में सुख के नामपर होते जितने पाप । सभी धर्म कहालायगे ठग अपने को आप ॥२९॥ होगा कैसे जगत में सुख--वर्धन का कार्य । है सुख-वर्धन के लिये दुख-वर्धन अनिवार्य ॥३०॥ सुलझ सुलझ कर उलझती गुत्थी दोनों ओर ।
ऐसी सुलझाओ सखे उलझे कभी न डोर ॥३१॥ श्रीकृष्ण
तूने मेरी बात का किया न पूर्ण विचार । इसीलिये तू बन गया प्रबल संशयागार ॥३२॥