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बारहवाँ अध्याय
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दोहा
(हिंसा--अहिंमा) धर्म अहिंसा रूप है गर्हित हिंसा कार्य । है विधेय हिंसा वहीं जहां रहे अनिवार्य ॥१०॥ मैंने बतलाय तुझे हिंसा के बहु भेद । उन पर पूर्ण विचार कर मिट जायेगा खेद ॥११॥ समझ अहिंसा है वहां जहां हृदय हो शुद्ध । कण भर हिंसा क्षम्य हे मन भर हो यदि रुद्ध ॥१२॥ सर्वनाश होता जहां वहां अर्ध कर दान । दुनिया यह बाज़ार हैं देख नफा नुकसान ॥१३॥ नर-बलि होती है जहां पशुवध वहां विधेय | क्रम से पशुवध रोकना यही वेद का ध्येय ॥१४॥ नित्य जहां था गॅजता 'मार मार फिर मार' । वहां रहे हिंसाथ बस केवल तिथि त्यौहार ॥१५॥ उतना धर्म यहां हुआ जितना हिंसा-रोध । धीरे धीरे पा रहा मनुज अहिंसा-बोध ॥१६॥ नित्य न हिंसाकांड हो इसीलिये हैं यज्ञ । पशु-यज्ञों को छोड़कर करें यज्ञ आत्मज्ञ ॥१७॥
पशु-यज्ञ वहीं सत्य पशु-यज्ञ है जहां सभ्यतोद्धार । मानवता की अग्नि में पशुता का संहार ॥१८॥