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कृष्ण-गीता
इन्द्रिय-यज्ञ विषय-दासता नष्ट कर बने विषय-मर्मज्ञ । संयम रूपी अग्नि में है यह इन्द्रिय-यज्ञ ॥१९॥
कम-यज्ञ फल की आशा का किया कर्म-कुंड में होम । कर्मयज्ञ यह हो गया तम में ज्योतिष्टोम ॥२०॥
धन-यज्ञ जन-समाज के कुंड में धन का आहुति दान । धन वैभव जिससे सफल है धनयज्ञ महान ॥२१॥
श्रम यज्ञ तन के मन के वचन के श्रम का करना दान । हो न स्वार्थ की लालसा है श्रमयज्ञ महान ॥२२॥
मानयज्ञ विनय कुंड में कर दिया अहंकार का होम । मानयज्ञ में मन गला पिघला जैसे मोम ॥२३॥
तृष्णायज्ञ दुश्चिंताएँ दूर हों तृष्णा का हो अन्त । तृष्णायज्ञ महान यह जो करता वह सन्त ॥२४॥
क्रोधयज्ञ विनय बुद्धि सुख शान्ति सब हरता क्रोध पिशाच । क्रोधयज्ञ से बन्द हो इस पिशाच का नाच ॥२५॥