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ग्यारहवाँ अध्याय
साविक काम पर को दुःख न दे कभी कर न नीति का भंग । इतने भोग न भोग तू बिगड़े तेरा अंग ॥६७|| जिससे फट जावे हृदय ऐसा कर न विनोद । कर ऐसा ही हास्य तू छाये मन मन माद ॥६८|| लूट कीर्ति की कर नहीं चल मत ग्वोटी राह । जितना दे उससे अधिक रख न कीर्ति की चाह ॥६९॥ अन्न पान परिजन शयन वस्त्र धरा धन धाम । स्वपरविनाशक हां नहीं है यह सात्त्विक काम ॥७०॥
राजस काम लोकनीति रक्षित रहे रक्षित रहे शरीर । पर न जगत का ध्यान हो कैसी पर की पीर ॥७१॥ रहे अन्धस्वार्थी सदा लूटे झूठा नाम । पर को पीड़ा हो जहाँ वह है राजस काम ॥७२॥
तामस काम नामस काम जघन्य है प्राण-विनाशक पाश । स्वास्थ्यनाश धननाश हे कुल कुटुम्ब का नाश ॥७३ निपट करता है वहां विकट मोह का राज्य । हम भोगे जाते जहां वह तामस-साम्राज्य |७४॥ तामस राजस छोड़ कर भोग सत्त्वमय काम | साथ मोक्ष लेकर सदा बनजा तू सुखधाम ||७५||