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'जगहित रूपी ब्रह्म में किया व्यक्ति-हित लीन । यज्ञ-शिरोमणि है यही ब्रह्म-यज्ञ स्वाधीन ॥
आत्मवाद अनात्मवाद, प्रवृत्ति, निवृत्ति, मूर्ति, अमृति, द्वैत, अद्वैत आदि वादों का धार्मिक समन्वय करते हुए एक स्थान पर ईश्वर-अनीश्वर वाद का भी सुन्दर समन्वय किया गया है ।
कोई ईश्वर मानते, कोई माने कर्म । फल पर यदि विश्वास हो तो दोनों ही धर्म ।।
पापों से बचकर न रहेंगे । ईश्वर ईश्वर सदा कहेंगे।
लड़ लड़ कर सब कष्ट सहेंगे । ईश्वर-भक्ति न जान इसे तू है कोरा अभिमान ॥
जगत तो भूला है भगवान । ग्यारहवें अध्याय में पुरुषार्थो का मौलिक विवेचन करते हुए 'इहै। जिसः सर्गः येषां माम्ये स्थितं मनः' का पुष्टीकरण किया गया है:--
दुःख और सुख मन की माया ।
मन ने ही संसार बसाया । मनको जीता दुनिया जीती हुआ दुखोदधि पार ।
यहीं है मोक्ष और संसार ॥ जब अर्जुन पूछता है किःमाधव मोक्ष यहां कहाँ वह अत्यंत परोक्ष । जब तक यह जीवन रहे तब तक कैसा मोक्ष ॥