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________________ (१४) 'जगहित रूपी ब्रह्म में किया व्यक्ति-हित लीन । यज्ञ-शिरोमणि है यही ब्रह्म-यज्ञ स्वाधीन ॥ आत्मवाद अनात्मवाद, प्रवृत्ति, निवृत्ति, मूर्ति, अमृति, द्वैत, अद्वैत आदि वादों का धार्मिक समन्वय करते हुए एक स्थान पर ईश्वर-अनीश्वर वाद का भी सुन्दर समन्वय किया गया है । कोई ईश्वर मानते, कोई माने कर्म । फल पर यदि विश्वास हो तो दोनों ही धर्म ।। पापों से बचकर न रहेंगे । ईश्वर ईश्वर सदा कहेंगे। लड़ लड़ कर सब कष्ट सहेंगे । ईश्वर-भक्ति न जान इसे तू है कोरा अभिमान ॥ जगत तो भूला है भगवान । ग्यारहवें अध्याय में पुरुषार्थो का मौलिक विवेचन करते हुए 'इहै। जिसः सर्गः येषां माम्ये स्थितं मनः' का पुष्टीकरण किया गया है:-- दुःख और सुख मन की माया । मन ने ही संसार बसाया । मनको जीता दुनिया जीती हुआ दुखोदधि पार । यहीं है मोक्ष और संसार ॥ जब अर्जुन पूछता है किःमाधव मोक्ष यहां कहाँ वह अत्यंत परोक्ष । जब तक यह जीवन रहे तब तक कैसा मोक्ष ॥
SR No.010814
Book TitleKrushna Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1995
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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