________________
(१३)
ईश की कृतियां नहीं ये प्रकृति की रचना नहीं । कल्पना बाजार की है पेट भरने के लिये ॥ जिस तरह सुविधा हमें हां, उस तरह रचना करें । जाति जीने के लिये है, है न मरने के लिये ॥ वित्रता की है जरूरत शद्रता की भी यहां । प्रेम से जग में मिलेंगे हम विचरने के लिये ॥ विप्रता का मद नहीं हो शूद्रता का दन्य भी। ही परस्पर प्रेम यह संसार तरने के लिये ॥ + +
+ भेद रहे वैषम्य रहे वह, जो सहयोग बढ़ाये । पर यह मानव-जाति न चिथड़े चिथड़े होने पाय ।।
ठीक इसी प्रकार समन्वय के कुटार से साम्प्रदायिक माह पर आघात करते हुये बारहवें अध्याय में श्रीकृष्ण कहते हैं :
अर्जुन, सब की एक कहानी । पंथ जुदा है घाट जुद है, पर है सब में पानी ॥
अर्जुन सब की एक कहानी । जब तक मर्म न समझा तब तक होती खाचातानी । पर्दा हटा, हटा सब विभ्रम दुर हुई नादानी ॥ वर्ण-अवर्ण अहिंसा-हिंसा मूर्ति न मानी मानी । क्या प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति क्या है मब धर्म निशानी ।। यह विरोध कल्पना शब्द की होती है मनमानी । लड़ते और झगड़त मरख करें समन्वय सानी ॥
अर्जुन सब की एक कहानी ॥ श्रीमद्भगवद्गीता के "द्रव्य यज्ञास्तपो यज्ञा योग यज्ञा स्तथापरे, स्वाध्याय ज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः " [४-२८ की तरह प्रस्तुत गीता के बारहवें अध्याय में विविध यज्ञों का वर्णन करते हुए अंत में कहा गया है:--