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छट्टा अध्याय
नारी को यदि पुरुष-परिग्रह जाना तुमने । उसको दासी-तुल्य भलकर माना तुमने ॥ तो समझो अंधेर मचाना ठाना तुमने । मत् शिव सुन्दरका न रूप पहिचाना तुमने ॥३२॥ नारी को धनरूप समझना अति अनर्थ है । यदि अनर्थ यह रहे मभ्यता आदि व्यर्थ है ॥ इ. अनर्थ के कुफल चग्वे है तुमने अर्जुन । तड़प रहा है हृदय लगा है जीवन में घुन ॥३॥ तुम लोगों में अगर समझदारी यह आती । नर नारी में यदि समानता आने पाती । तो अनर्थ की परम्परा कैमे दिग्वलाती । क्यों देवी द्रौपदी दावपर रक्खी जाती ॥३४॥ दुःशासन निर्लज्ज नीचता करता कैसे । भाभीकी भी लाज सभामें हरता कैसे ॥ मनुष्यत्व को छोड़ पाप-घट भरता कमे ॥ भीष्म द्रोणका मनुष्यत्व भी मरता कैसे ॥३५॥ क्यों अंधा धृतराष्ट्र हृदय का अन्धा होता । पुत्रवधू का लाज लुटाकर लज्जा खोता ॥ धर्मराज का धर्म लगाता धुंघट कैसे । पड़ता सब के मनुष्यत्व घटपर पट कैसे ॥३६॥ कैसा यह अंधेर अरे यह कैसी छलना । है पशुओं के तुल्य आज आर्यों में ललना ॥