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कृष्ण-गीता यह है गलना कोढ़ सभ्यता का हे गलना । मानवको रह गया आज जीते जी जलना ॥३७॥ नारी हो सम्पत्ति दाव पर रक्खी जावे । माता पुत्री बहिन क्यो न तब धन कहलांवे ।। फिर तो धनक तुल्य बने नर इन का भी पति । हो अतिपापाचार महाव्यभिचार अधोगति ॥३८॥ नर-नारी-समभाव अगर रख सके न मानत्र । तो मानवता दूर रहे है मानव दानव ॥ क्यो फिर नरवा परोक्ष रहे पंडित-प्रजल्पना । घर घरमें प्रत्यक्ष बने जब नरक-कल्पना ॥३९।। नर-नारी-वैषम्य वक्ष हे फलने आया । उसने कैसा आज महाभारत मचवाया ॥ गर्ज रहा है आज पाप, पीड़ित के सम्मुख । तड़प रहा है न्याय और पापी पाता सुरव ॥४०॥ पापों का भी पाप यहां संकलित हुआ है। सत्यासन भी आज यहां पर चलित हुआ है । नहीं समझ द्रौपदी मान ही गलित हुआ है । किन्तु आज नारीत्व यहां पद-दलित हुआ है ॥४१॥ दूर हटा अविवेक पापके खंड खंड कर । यह प्रचंड कोदंड उठा अत्याचारों पर ॥ गूंज उठे ब्रह्मांड जगे यह जगत चराचर । नरनारी समभाव जगत में फेले घर घर ॥४२॥
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