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सातवाँ अध्याय
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मित्रत्व में भ्रातृत्व में दाम्पत्य में भी यह रहे । नाते यहां जितने बने सबमें यही धारा बह ॥ जितना रहे अविवेक उतनी ही रहे दुग्यकारिणी । यह मोहजा व्यापक अहिंसा है विवेक-निरिणी ॥४॥ मन में रहा अविवेक फिर इसके अगर पाले पड़े । कर्तव्य से चूके गिरे पथ में न रह पाये खड़े ।। जो है विवेकी मोह जा के पाश में न समायगा । कर्तव्य में तत्पर रहेगा कर्मयोग बतायगा ॥४२॥ सचमुच अहिंसा ही कसौटी है सकल सत्कर्म की । रहती अहिंसा है जहां सत्ता वहीं है धर्म की । पर बाहिरी हिंसा अहिंसा से न निर्णय कर कभी । होती अहिंसा बाह्य-हिमा-रूप भी मत डर कभी ॥४३॥ कल्याण जिस में विश्वका हो और हो निःस्वार्थता । फिर हो अहिंसा या कि हिंसा पापका न वहां पता ॥ है मोहना तेरी अहिंसा मूल में न विक है । वह है नहीं सच्ची अहिंसा मोहका अतिरेक है ॥४४॥ तू छोड़ यह जड़ता तथा यह मोह माया छोड़ दे। बन जा विवेकी रूढ़ि का जंजाल माग तोड़ दे । निर्णय सभी सापेक्ष हैं अन्याय हरने के लिय । अब त उठा गांडीव यह कर्तव्य करने के लिये ॥४५॥
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