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कृष्ण-गीता
समझ रहे. जो भुल से पत्थर को भगवान | उनकी पूजा व्यर्थ है हैं वे मूढ़ अजान ||५५ || अपनी अपनी योग्यता रुचि रुचि के अनुसार । मत मदान्धता छोडकर मूर्त्ति अमति विचार ||५६|| सब धर्मो में मूर्त्तियाँ दिखलातीं सत्कर्म । पर पत्थर-पूजा नहीं यही मूर्त्तिका मर्म ॥५७॥ वर्ण व्यवस्था
इसका गान |
विधान ॥ ६१ ॥
ऋण व्यवस्था का कहा मैंने तुमसे मर्म । अर्थ-व्यवस्था रूप वह है बाजारू कर्म ||१८|| अपनी अपनी जीविका मति गति के अनुसार । सबको मिल जाये यही वर्ण व्यवस्था सार ॥५९॥ जहां और जब यह करे बेकारी का नाश | हां और तब ही इसे मिल सकता अवकाश ॥ ६० ॥ ऐसे युग में धर्म भी गाता देश काल जैसा रहे वैसा बने जब न व्यवस्था रह सके केवल रहे लकीर कर्म हटे कुलमद बढ़े हो निर्जीव शरीर ॥६२॥ तब यह मुर्दा दूर कर साफ़ बना घरद्वार । उचित यही कर्तव्य है यही सुयोग्य विचार || ६३॥ मानव जब उत्पन्न हो कर तब ही सन्मान | प्राणहीन हो जाय जब उसको भेज मसान ॥६४॥ दोनों में औचित्य है दोनों सद्व्यवहार | यदि विवेक इतना न हो तो हो हाहाकार ॥६५॥