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बारहवाँ अध्याय
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मुर्दों की दुर्गंध से भरजांव संसार रोगों का ताण्डव मंचे घर घर नर-संहार ॥ ६६ ॥ जीवितको दे अन्न तू मुर्दे को दे आग । मानव हो या रीति हो मरने पर कर त्याग || ६७ || वर्ण-व्यवस्था नष्ट हो या हो उसका त्राण | देश काल अनुमार है दोनो से कल्याण ॥६८॥ वर्ण अवर्ण न कर सके कोई धर्म-विरोध सब धर्मो में सर्वदा कर समता की गांव ॥ ६९ ॥ आश्रम व्यवस्था
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जीवन
आश्रम
सब ही मानते है उससे कल्याण | जीवन में कुछ शान्ति है है पापो से त्राण ॥७०॥ कर्म सदा करते रहो निज वय के अनुसार । चारों ही पुरुषार्थ तब आ जायेगे द्वार ॥७१॥ ब्रह्मचर्य आश्रम प्रथम जीवन भर का मूल । वैसा सब जीवन बने जैमा यह अनुकूल ॥७२॥ सकल शिल्प विद्या कला सार ही संस्कार । आते दृढ़ बनते यहीं पहिला आश्रम हो नहीं तो मानव का आकार हो पर मन पशुतागार ||७४ || गार्हस्थ्याश्रम दूसरा जो सत्र का आधार । दुनिया इस पर चल रही यह सच्चा संसार || ७५|| यदि गृहस्थ आश्रम न हो हो सब सन्तति-हीन । जीते मर जाये सभी पैदा हों न नवीन ॥७६॥
- मुलाधार ॥७३॥
न पड़े संस्कार |