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कृष्ण-गीता
उत्पादन सारा मिटे मिटजाये व्यापार । अर्थ काम का नाश हो हो सब अनागर ॥७७॥ मुनि भिक्षा पावें कहाँ बने वचन मन दीन । कणकण को तरसे सभी जैसे जल विन मीन ||७८।। सारे आश्रम नष्ट हो मिट जाये घर द्वार । महामृत्यु नाचे यहाँ रह न सके संसार ||७९।। वानप्रस्थ है तीसरा कहा अर्ध-संन्यास । धंधे की चिन्ता नहीं और न जग का त्रास ॥८०॥ अगर न वान-प्रस्थ हो कब पावे नर चन । ज्यों कोल्हू का बेल त्यों चकरावे दिन रैन ।।८१॥ होता है संन्यास में गृह-कुटुम्ब-संन्यास । मुक्ति सुलभ होती यहीं हटते सारे त्रास ॥८२॥ मुक्त मूर्त कैसे बने अगर न हो संन्यास । मिल न सके निर्द्वद सुख हटे न मन का त्रास ॥८३।। चारों आश्रम व्यर्थ हैं चारों से कल्याण । पर इनका एकान्त हो तो न जगत का त्राण ॥८४॥ यदि जन-सेवा के लिये यौवन में संन्यासलिया गया अपवाद से तो न धर्म का ह्रास ॥८५॥ आवश्यक अपवाद यह इस में कौन विरोध । जहां समन्वय शक्ति है वहीं सत्य की शोध ॥८६॥
भक्ति सब धर्मो में भक्ति है सब में है भगवान । सब धर्मों में त्याग है सब धर्मों में ज्ञान ।।८७॥