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बारहवाँ अध्याय
ईश्वर की है कल्पना निज निज मन अनुसार । मन में जो बस जाय वह जीवन का आधार ||८८|| सब ही प्राणी हैं यहां निर्बल क्षुद्र अनीश | इसीलिये हैं चाहते 'हो कोई जगदीश ' ॥८९॥ जगकर्ता हो या न हो लेकिन हो आदर्श | मनको सान्त्वन दे सदा जिसका ध्यान विमर्श || ९० ॥ अगम अगोचर शक्ति हो या लोकोत्तर व्यक्ति । या सुखकर सिद्धान्त हो मन करता है भक्ति || युग्म || विपदाएँ जब हों विकट कोई हो न सहाय । लेकिन जिसके ध्यान से मनमें बल आ जाय ॥ ९२ ॥ मन विपदाएँ सहसके होकर वज्र समान । व्यक्ति शक्ति सिद्धान्त या वही कहा भगवान || ( युग्म ) || सत्य, शक्ति, कर्ता, नियति सब ऐश्वर्य - निधान ॥ करते हैं संसार का क्षेम सभी भगवान ॥ ९४ ॥ नाम रूप कोई रहे सब की भक्ति समान । सत्य-भक्ति होती जहां वहीं वसा भगवान || ९५|| मसक तेरे जलसिन्धु को पाकर वायु सहाय । भक्ति पा जाय ॥९६॥ करता इच्छित काम |
जीव तेरे संसार को अगर
मन प्रचंड है अश्वसम
वशमें आ जाता तभी जब हो भक्ति लगाम ॥९७॥
मुर्दे मन भी भक्ति दुष्ट हृदय भी भक्ति से
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सं
से हो जाते हैं शक्त 1 हो जाते अनुरक्त || ९८ ||