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बारहवाँ अध्याय [ ९७ देश काल के भेद से हैं जो नाना भेद । उनमें है न विरोध कुछ है न सत्य-विच्छेद ॥४४॥ कभी प्रवृत्ति प्रधान है कभी निवृत्ति प्रधान । अवसर के अनुसार हैं दोनों सुख-सामान ॥४५॥ सब प्रवृत्तिमय धर्म हैं सब निवृत्तिमय धर्म । अतिवादी कोई नहीं सब में हैं सत्कर्म ॥४६॥
मूर्ति अमूर्ति मर्ति अमर्ति विरोध क्या दोनों एक समान । मूर्ति पूजता कौन है सब पूजें भगवान ॥४७॥ उन्हें मूर्तियाँ व्यर्थ हैं जिनने पाया ज्ञान । देखें अन्तर्दृष्टि से अणु अणु में भगवान ॥४८॥ मित्र शत्रु के चित्र भी जिनको एक समान । अणु भर क्षुब्ध न कर सकें जिनको ध्वजा निशान ॥४९॥ घूरा हो या तीर्थ हो जिनके हृदय न भेद । मन्दिर और मसान का जिनको हर्ष न खेद ॥५०॥ मन जिनके वश में हुआ छूटा जगजंजाल । शुद्ध बुद्धि जगती रहे निशिवासर सब काल ॥५१॥ घृणा न मूरति से रही रहा नहीं अनुराग । उचित रहा उनके लिये मूरति-पूजा-त्याग ॥५२॥ जिनका है भावुक हृदय अबलम्बन की चाह । मूर्ति सहारा है उन्हें प्रभु पाने की राह ॥५३॥ मूर्ति की न है प्रार्थना है प्रभु का गुणगान । प्रभुको पढने के लिये है वह ग्रंथ-समान ॥५४॥