________________
९६ ]
कृष्ण गीता
ही मावि यज्ञ हैं मत्र जग के आधार इन से ही सब तर गये ऋषि मुनि साधु अपार ||३४|| राजसयज्ञ कहा वहां जहां स्वार्थ का राज्य । राजस यज्ञों का बना घर घर में साम्राज्य ||३५|| निपट मूढ़ता रूप जो पशुवध आदिक यज्ञ । तामस - यज्ञ कहा इसे करते केवल अज्ञ ||३६|| जितना झेल सके जगत उतना ही उपदेश | करते हैं ऋषि मुनि सदा हटते हैं सब क्लेश || ३७॥ देश काल के भेद से है धर्मों में भेद | किन्तु अहिंसा की तरफ हैं सब कर मत ग्वेद ||३८|| प्रवृत्ति निवृत्ति
हूँ न प्रवृत्ति निवृत्ति में कोई ध्येय-विरोध । है प्रवृत्ति रस-वर्धनी है निवृत्ति मलशोध ||३९||
हो निवृत्ति दुःस्वार्थ की कट जाये सब पाप । हो प्रवृत्ति कल्याण में बरसे पुण्य-कलाप ॥४०॥ स्वार्थ वासनाएँ घटीं चढ़ा प्रेम का का रंग 1 उचित प्रवृत्ति निवृत्ति का अपने आप प्रसंग ॥४१॥
न प्रवृत्ति निवृत्ति से बद्ध सराग विराग । वन में भी संसार है घर में भी है त्याग ॥४२॥ जहां साधु-संस्था बनी देशकाल अनुसार । वहां प्रवृत्ति निवृत्ति के दिखते विविध प्रकार ||४३||