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छट्ठा अध्याय
[४१ 'घर' नारीको दिया दिया जब नरको 'बाहर' तब दोनों में भाव-भेद दिख पड़ा यहां पर ।। बाहर का संघर्ष नहीं नारीने पाया । कोमलता भीरुत्व इसीसे उसमें आया ॥२१॥ रणसज्जाका कार्य नहीं है घरके भीतर । इसीलिये है शस्त्रशून्य नारी जीवनभर ॥ फिर भी लड़ती वहां जहां है अवसर पाती । दिखलाती है शौर्य बिजलियाँ है चमकाती ॥२२॥ नर करता जो कार्य वही नारी कर सकती ।। नर हरता जो विपद वही नारी हर सकती ॥ गुण दुर्गुण के योग्य सभी हैं नर या नारी । नर 'बेचारा' कभी कभी नारी 'बेचारी' ॥२३॥ घर बाहर का भेद बना भेदों का कारण । दृर हुआ ईमान और टूटा नरका प्रण । अर्थ-मत्र का दुरुपयोग कर बैठा नर जब । नारी लुटसी गई न्यून अधिकार हुए. तब ॥२४॥ तब ही अबला बनी बढ़ी तब उसकी माया । निर्बलता है जहां वहां मायाकी छाया ॥ नर या नारी रहे जहां निर्बलता होगी । होगा मायाचार वहीं पर खलता होगी ॥२५॥ यदि नर घरमें रहे रहे यदि नारी बाहर । नर नारी सा बने बने नारी मानो नर ॥