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कृष्ण-गीता
जिनका सखा बन कर रहा, जिनको सदा भाई कहा, दिन-रात खेला साथ में, जिनस सदा मिलकर रहा ।।
उन बंधु मित्रों से लहूं उन पर चलाऊँ बाण में । ऐसा कसाई बन करूँगा क्या जगत्कल्याण मैं ॥२६।।
-: दोहा :-- किंकर्तव्य-विमूढ़ हो, भर नयनों में नीर ।
केशव से बोले तभी, अर्जुन बन गंभीर ॥२७॥ इन स्वजनों को देवकर, लड़ने को तैयार ।
भरता है मेरा हृदय, होता खेद अपार ॥२८॥ छूट रहा गाण्डीव है, कँपते हैं सब अंग;
अंग अंग काँटे खड़े, बदल रहा सब रंग ॥२९॥ क्या होगा तब राज्य का, बने बंधु जब धूल;
कान कटे फिर क्या मिला ? कानों को कनफूल ॥३०॥ वैभव है जिनके लिये, यदि हो उनका नाश ।
भर जावेगा शोक से, तो जल थल आकाश ॥३१॥ भले करें ये दुष्टता, पर हम हों क्यों दुष्ट ।
जीवन देकर भी इन्हें, क्यों न करें हम तुष्ट ॥६२॥ होगा मेरी मौत से, वस मेरा ही अन्त ।
पर दुनिया बच जायगी, होगी शान्ति अनन्त ॥३३॥ देखेगी दुद्देश्य वह, कैसे मेरी दृष्टि ।
घर घर में होगी यहां, विधवाओं की मृष्टि ॥३४॥