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दसवाँ अध्याय [७५ अर्जुन--
जिससे लें उसके लिये करदें हम प्रतिदान ।
व्यर्थ मरें जगके लिये यह तो है अज्ञान ॥४९॥ श्रीकृष्ण--
जग भी यदि यों सोचले तुझको देगा कौन । घर घर लेने जायगा पर पायेगा मौन ॥५०॥ प्रथम दान का विश्व में यदि हो नहीं प्रचार । फले स्वार्थ भी किस जगह जब न मिले आधार ॥५१ लिया किसी से भी रहे कर जगको प्रतिदान । गौण व्यक्ति सम्बन्ध है रख समाज का ध्यान ॥५२॥ मात पिता से ऋण लिया है उनका उपकार । संतति के प्रतिदान से होता प्रत्युपकार ॥५३॥ सब से तु आदान कर सब ही को कर दान | होता प्राणि-समाज में सब का पर्यवसान ॥५४॥ भेदभाव को छोड़कर देख सभी का स्वार्थ । जो कुछ सब का स्वार्थ है तेरा है परमार्थ ॥५५|| कम से कम ले किन्तु कर अधिक-अधिक प्रतिदान । इसी साधुता में बसे, मुक्ति, भुक्ति, भगवान ॥५६॥ जहां साधुता है वहां होता सब का त्राण । सब जग का कल्याण हे तेरा भी कल्याण ॥५७॥ सब जगको सुखमय बना हट जायेंगे पाप । यही कसौटी धर्म की सत्कर्तव्य-कलाप ॥५८॥