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तेरहवाँ अध्याय [११५ अंगी अंग जुदे जुदे यही भेद-विज्ञान । धर्मशास्त्रका द्वैत है रख तू इसका ध्यान ॥१०६॥ जहां भेद-विज्ञान है वहां न रहता पाप । आत्मा क्यों तन के लिये सहने बैठे ताप ॥१०७॥ धर्म कहे अद्वैत को विश्व-प्रेम का रंग । स्वार्थ मिले परमार्थ में दोनों का हो संग ॥१०८॥ मान द्वत--अद्वैत या दोनो हैं निर्दोष । किन्तु अर्थ करते समय धर्म-शास्त्र कर कोप ॥१०९।। माया है या सत्य जग इसकी चिन्ता छोड़ । तेरा जो कर्तव्य है उसके मुँह मत मोड़ ॥११०॥ यदि माया है विश्व तो माया तेरा कार्य । माया के दर्वार में माया है अनिवार्य ॥१११॥ माया ही सब दुःख है माया सकल उपाय । माया देने में भला तेरा क्या लुटजाय ॥११२॥ तुझ पर अत्याचार में था माया का मेल । तो उसका प्रतिकार भी है माया का खेल ॥११३॥ मायामय खींचा गया अगर द्रौपदी चीर । दुःशासन की मौत भी माया, फिर क्या पीर ॥११॥ भागा बारह वर्ष तक मायामय वनवाम । अब मायामय राज्य कर इसमें कसा त्रास ॥११५॥ सब माया का खेल है पर न अधुरा खेल । जब तक खेल मिटे नहीं तब तक चोटे झल ॥११६॥ अब तक खेला खेल तु अब क्यों करता त्याग ।