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कृष्ण-गीता माया के संसार में माया राग विराग ॥११७॥ राजा बन या रंक बन ले घर या संन्यास । मायामय संसार सब कहाँ करेगा वास ॥११८॥ माया ब्रह्म अभिन्न हैं भीतर तनिक टटोल । ब्रह्म सिन्धु जल तुल्य है माया जल-कल्लोल ॥११९॥ ब्रह्महीन माया नहीं ब्रह्म न मायाहीन । नित्य अनित्य भले रहें किन्तु परस्पर लीन ॥१२०॥ एक छोड़कर दूसरा मिल न सकेगा पार्थ । जहां समन्वय उभय का वहीं रहा परमार्थ ॥१२१॥ बाहर माया दिख रही कर बाहर सब काम । ब्रह्म तुल्य निर्लिप्त रह भीतर तेजो-धाम ॥१२२॥ दर्शन के पार्थक्य से हृदय नहीं कर खिन्न । धर्म-शास्त्र से भिन्न है दर्शन का नय भिन्न ॥१२३॥ दर्शन कोई ले मगर पूर धर्म के प्राण । धर्म-शास्त्र की दृष्टि कर देख स्वपर-कल्याण ॥१२४॥ धर्म धर्म सब एक हैं सब में जनहित सार । सब में सत्येश्वर विजय और पाप की हार ॥१२५॥ सद्धर्मसार ले समझ सत्यका ज्ञान ध्यान में आने दे । दर्शन शास्त्रोंमें झगड़ झगड़ अपनी मति व्यर्थ न जानेदे । कर्तव्य पंथ का दर्शन कर सद्विजय न्याय को पाने दे। मरने को है अन्याय खड़ा तेरे हाथों मर जाने दे ॥१२६।