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चौदहवाँ अध्याय
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चौदहवाँ अध्याय
अर्जुन-
दोहा माधव तुमने कह दिया धर्म-शास्त्र-सन्देश । मैं अपना कर्तव्य कर दूर करूंगा क्लेश ॥१॥ दर्शन के झगड़े मिटे मिटाः 'निरर्थक शोर । बुद्धि हृदय खिंचने लगे धर्म-शास्त्र की ओर ॥२॥ धर्म-शास्त्र ही श्रेष्ठ है सब शास्त्रों का शास्त्र । पाप-प्रताड़न के लिये देता यह परमास्त्र ॥३॥ फिर भी मोहित कर रहे विविध-धर्म के ग्रंथ । कैसे मैं निर्णय करूं कैसे पकडू पंथ ॥४॥ श्रद्धा लूं या तर्क लूँ खोजू सारे धर्म । किसका अवलम्बन करूं समझू अपना कर्म ।।५।।
अगर बनूं श्रद्धालु मैं करूं अन्ध-विश्वास । तो मानवता नष्ट हो पशुता करे निवास ।।६।। धर्म--परीक्षण क्या करूं चलूं रूढ़ि की गैल । एक जगह नचता रहूँ ज्यों कोल्हू का बैल ||७||