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• दूसग अध्याय
. ९ बोल बोल है कौन यहां पर तेरे नातेदार । कौन न्याय के लिये मरा है, छोड़ा है संसार ॥
तरा प्रेमी मत्य--पुजारी।
अर्जुन झूठी नातेदारी ॥६॥ माह छोड़ दे, बन्ध तोड़ दे, रख मन्में ममभाव । कर कतव्य अभेट-बुद्धि से, रहे रंक या रात्र ।।
मव का जीवन हो मुग्व-कारी । अर्जुन झूटी नाते--दारी ॥ ७ ॥
गीत ३ द्रौपदी के क्यो भला केश । ये तरे ही बन्धु वहाँ थे बने हुए न्यायेश ।।
द्रौपदी के क्यो भूला केश ॥८॥ पुष्पवती थी वह बेचारी, तुम थे मृतक-ममान । पर ये कोई काम न आये ढोगी नीति-निधान ।
बने ये अर्थदाम असुरश ।
द्रौपदी के क्यों भला केश ॥९॥ दुःशामन ने केश ग्वींचकर, दिया उम झकझोर । चीग्ब उठी अबला बेचारी, देवा चारों ओर ॥
पुकारा ' लज्जा रग्वा रमेश'।
द्रौपदी के क्यों भला केश ॥१०॥ फिर भी तेरा बन्धु न माना, मानवता दी छोड़ । भरी सभामें खींचा अंघल उमके हाथ मरोड़।