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कृष्ण-गीता न रहने पाई लज्जा लश ।
द्रौपदी के क्यों भूला केश ॥११॥ अंतरीक्ष फट पडा, मचा दुनिया में भारी शोर । पर तेरे नातेदारों के फटे न हृदय कठोर ।।
बने पत्थर की मूर्ति नगेश ।
द्रौपदी के क्यों भूला केश ॥१२॥ भीष्म द्रोण कृप सभी वहाँ थे, तेर पिता समान । पर अपने अपने पेटों का रक्खा सबने व्यान ।
कहाते थे फिर भी वीरेश ।
द्रौपदी के क्यों भूला केश ॥१३॥ कौन पुरुप होकर सह सकता, नारी का अपमान । अब भी खुली हुई है वेणी, रख त उस का ध्यान ॥
बन भारत आर्यों का देश । द्रौपदी के क्यों भूला केश ॥१४॥
दोहा 'मेरा तेरा' मे पड़ा, डूब गया संसार । मोही, ममता छोड़ दे, कर तु शुद्ध विचार ॥१५॥ 'मेरा मेरा' कर रहा, पर तेरा है कान । जहां स्वार्थ बाधा पड़ी हुए सकल जन मौन ॥१६॥ अपना है तो धर्म है, पर है सदा अधर्म । 'मेरा तेरा' छोड़ कर, कर न्यायोचित कर्म ॥१७॥