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दूसरा अध्याय
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सजनता की जीत हो दुर्जनता की हार । पाप निकंदन कर सदा, कर हलका भू-भार ॥१८॥ मोह ममत्व न पास रख कर तू उचित विचार । वीतराग बन खोल दे शुद्ध न्याय का द्वार ॥१९॥
गीत ४ जग में रह न सके अन्याय ।
नातेका सम्बन्ध तोड़ कर । न्याय धर्म से प्रेम जोड़ कर ।
प्राणों का भी मोह छोड़ कर । वन तू न्याय-सहाय ॥ जगमें........॥२०॥
नातेकी हे झूठी माया । अपना हो या हो कि पराया ।
जिसपर गिरी पापकी छाया । कर उसका सदुपाय ॥ जगमें........॥२१॥
जीवन रोटी पर न बिकावे । पाप न जग पर राज्य जमावे ।
अबलाओं की लाज न जावे । धर्मराज आजाय ॥ जगमें........॥२२॥
गीत ५ भाई कर मत यह नादानी, भल रहा क्यों मोहित होकर अपनी कठिन कहानी । भाई. ॥
याद नहीं आता है तुझको । यह सब कहना पड़ता मुझ को॥