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कृष्ण-गीता किन्तु कर विश्गम या श्रद्धा का जो चूर । बुद्धि-अमंगत बात कह रहे सर्वदा दूर ॥४३॥ पुण्यात्तेजक मन्य में जितना होगा तथ्य । उतना ही होगा अधिक वह जीवन को पथ्य ॥४४॥ पुण्योत्तेजक सत्य जो कहलाता है आज | कल असत्य होता वही विकसित अगर समाज ॥४५॥ इसीलिये इम मत्य में जाग्रत रह विवेक । किसी नम्ह होने न दे अतथ्य का अनिक ॥४६।।
स्वरक्षक अतथ्य अपने पर करता अगर कोई अन्याचार । डाकू लम्पट आदि यदि देते कष्ट अपार ॥४७॥ या कि युद्ध में वंचना करता हो अरिपक्ष । तो तथ्य भी क्षम्य है निजरक्षण में दक्ष ॥१८॥ किंतु विपक्षी से अधिक हो अपना अपराध । फिर अतथ्य व्यवहार हो तो हे पाप अगाध ॥४९॥ निज-रक्षण के नाम में अनुचित कथा-प्रसंग । कभी क्षम्य होंगे नहीं वे असन्य कं अंग ॥५०॥ अपने न्याय्य रहस्य को यदि रखना हो गुप्त । तो अतथ्य व्यवहार से सत्य न होता लुप्त ॥५१॥
पर--रक्षक अतथ्य निज-रक्षक की तरह है पर-रक्षक का रूप । नाति सदा सुग्वरूप है है अनीति दुखरूप ॥५२॥