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आठवाँ अध्याय
स्वार्थ रहे या जाय तथ्य का नाश न होने पावे । मुख से निकला वचन चित्र अन्तस्तल का बतलाव ॥२३॥ मन तन वाणी में न विविधता हा न जरा भी माया। हो अतथ्य का लश नहीं यह परम--सत्य बतलाया । प्रथम भेद विश्वास-प्रवर्धक जिम पर जग चलता है। है विश्वास-पिता अतिनिश्चल जो न कभी ढलता है ॥२४॥
शोधक तथ्य प्रमभाव से शुद्ध चित्त से पर के दोष दिग्वाना । 'हो सुधार इसका' ऐसे ही भाव हृदय में लाना । वाणी कोमल या कठोर हा पर न कठिन मन हावे । रहे पूर्ण वात्सल्य, हितैषी बन, सारा मल धोत्रे ॥२५॥ प्यारे जनका या समाज का यो मंशोधन करना । पर मनमें अभिमान न लाना भान न पर का हरना । विनयी हाकर दृढ़हृदयी जो परको सुपथ बताना । उसका तथ्य मधुर या कटु मब शोधक नथ्य कहाता ॥२६॥
पापोत्तेजक तथ्य घटना तथ्य-पूर्ण हो लेकिन दुराचार फैलाव । दिखलाती हो पाप-विजय दुष्पथ में मन ललचावे । जैसे द्यत आदि पापों से बना अमुक धनवाला । तो यह तथ्य असत्य रूप है पड़ा पाप से पाला ॥२७॥ वर्तमानमें ये घटनाएँ तथ्य रूप पाती हैं । पर त्रैकालिक परम तथ्य की वाधक बन जाती हैं ।