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चौदहवाँ अध्याय
(पीयूषवर्ष) सत्य शिव सुन्दर अहिंसा साथ है । अर्ध-नारीश्वर जगत का नाथ है । प्राप्त कर उसका सुदर्शन आज त ।
जानले कर्तव्य के सब साज तृ ॥१२९॥ कवि
(हरिगीतिका) श्रीकृष्ण का उपदेश सुनकर पार्थ जब ध्यानी हुए। भगवान के दबीर का दर्शन हुआ ज्ञानी हुए । दग्वा विराट स्वरूप उनने अश्रु तब बहने लगे ।
रोमाञ्च-अञ्चित-अंग बन श्रीकृष्ण से कहने लगे ॥१३०॥ अर्जुन--
ललितपद पुरुषोत्तम हो रहा मुझे अब दर्शन सत्येश्वर का । करता हूं अपूर्व दर्शन मै नारी का या नर का ।। दक्षिणांग भगवान सत्य है चेतन जग निर्माता । वामांगी भगवती अहिंसा यम नियमो की माता ॥१३१॥ भिन्नाभिन्न अपूर्व ज्योति यह देंग्व रहा हूँ माधव । कोटि कोटि रवि शशि बनते हैं पा पाकर जिसका लव । नित्य दर्शनार्थी योगी जन जिसमें योग रमाने । जो उसका दर्शन पाते वे मुक्ति भुक्ति सब पाते ॥१३२॥ अंग अंग में योग भरे हैं अणु अणु सुखकी छाया । नख नख में पुरुषार्थ तेज है अन्त न जिसका आया ।। तीर्थंकर अवतार रोम-कूपों में भरे हुए है । धर्मबिन्दु से धर्म अनेकों जिनसे भरे हुए हैं ॥१३३।।