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नवमाँ अध्याय
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रोला
मुझको है स्वीकार जगत चंचल है सारा । आना जाता बहे यथा सरिता की धारा ॥ लेकिन धारा का न अगर हो अटल किनारा । तो धारा क्या बहे बहे जल मारा मारा ||७|| मह सकता हूँ अगर जगत चंचल है साग । किन्तु अटल हा धर्म दिशा-सूचक ध्रुवतारा । मन्य अहिसा रूप धर्म भी यदि चंचल है । अपरिग्रह गीलादि धर्म में फिर क्या वल है ॥८॥ यदि ये जगदाधार धर्म भी अटल न होंगे । तब सब जगमें पुण्यपाप भी मफल न होंगे । चोरी। या व्यभिचार करेगा मानव जब जब । कह देगा ‘मापक्ष धर्म यह पाप न ' तब तब ॥९॥ तब पापी को भीति गप की रह न सकेगी । बढ़ जावेगा पाप त्रिलोकी सह न सकेगी ॥ चारों को मापक्ष कहोगे माधव कसे । व्यभिचारी का छा महागे माधव कैम ॥१०॥ तब मन--चाह पाप जगत में रम्य बनेंगे । दुर्योधन के दुष्ट--चरित भी क्षम्य बनेंगे । दुःशासन निर्दोष बनेगा गर्ज गर्ज कर । पुण्य दबेगा और पाप गर्जेगा घर घर ॥११॥