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कृष्ण-गीता पुण्य पाप का भेद दिखाओ मार्ग सुझाओ । कर्तव्याकर्तव्य कसौटी कर दिखलाओ ॥ सत्य अहिंसा रहे रहें सब धर्म अचंचल ।
निःसंशय हो धर्म न्याय का बल ही हो बल |॥१२॥ श्रीकृष्ण-- गीत २०
यह माह कहां से आया । साफ़ माफ़ बातें थीं मेरी तूने जाल बनाया ।
यह मोह कहां से आया ॥१३॥ सत्य अहिसा ब्रह्म अचंचल चंचल उसकी छाया । ब्रह्म अगम्य अगोचर भाई गोचर उसकी माया ।
यह मोह कहां से आया ॥१४॥ उसी ब्रह्म की छाया से ही धर्म विविध वन आया । इसीलिये सापेक्ष रूप में विविध धर्म बतलाया ।।
यह मोह कहां से आया ॥१५॥ होता जो सापेक्ष, नहीं वह संशय रूप-कहाया । समझ, अगम्य ब्रह्मने अपना गम्यरूप दिखलाया ।
यह मोह कहां से आया ॥१६॥
[ ललितपद] जब हैं सत्य अहिंसा निश्चल सकल धर्म निश्चल हैं । शील अचौर्य असंग्रह आदिक इन दोनों के दल हैं । हिंसा और असत्य बिना चोरीका पाप न होता । इन दोनो के बिना जगत में कोई ताप न होता ॥१७॥