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ही नहीं सब का विचार कर । अर्जुन-जब सुख ध्येय है तो पर की चिन्ता क्यों ? श्रीकृष्ण--जगत के कल्याण में ही व्यक्ति का कल्याण है [गीत २२] जितना ले उसस अधिक देने का प्रयत्न हो । अर्जुन-लेने देने के झगड़े में क्यों पडूं ? श्रीकृष्ण-हर एक व्यक्ति समाज का ऋणी है वह ऋण चुकाना ही चाहिये । अर्जुनजिससे लें उसी को दें सब को क्यों ? श्रीकृष्ण-सभी ऐसा सोचलें तो तुझे पहले कौन देगा ? व्यक्ति की चिन्ता न कर, समाज पर नज़र रख । सब से ले, सब को दे, इस प्रकार सुरखी बन । अर्जुनएक को सुखी करने से दूसरे को दुःख होता है क्या किया जाय ? श्रीकृष्ण-जिससे विश्व अधिक सुखी हो वहीं कर्तव्य समझ और आत्मौपम्य विचार से कर्तव्य का निर्णय कर । हर तरह बहुजन को सुखी बनाने की कोशिश कर । अर्जुन-बहुजन तो पापी हैं, रावण और दुर्योधन का ही दल बहुत है । क्या पाप की जय होने दूं ? श्रीकृष्ण-वर्तमान ही मत देख, सार्वकालिक और सार्वदशिक दृष्टि से विचार कर, उसमें बहुजन न्याय के ही पक्ष में है । इस तरह अपना कर्तव्य निर्णय कर, संमोह छोड़, नपुंसक न बन और कर्तव्य कर। ग्यारहवाँ अध्याय पुरुषार्थ] पृ. ८०
अर्जुन--सुख की परिभाषा बताओ । सुख भीतर की वस्तु है या बाहर की ? क्या यही पुरुषार्थ है ? अथवा पुरुषार्थ क्या है ? श्रीकृष्ण-सुख दुःख के लक्षण | काम और मोक्ष दो मूल पुरुषार्थ । अर्थ और धर्म उनके साधन | काम और मोक्ष का स्वरूप । दोनों की आवश्यकता । अर्जुन-मोक्ष का यहाँ क्या उपयोग ? वह तो मरने के बाद की चीज़ है । श्रीकृष्ण-मोक्ष यहीं है | गीत २३]