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ग्यारहवाँ अध्याय
[ ८७ साधन पाये काम के फैल गया संतोष । अर्थ अनर्थ न बन सका दूर हुए सब दोष ॥४६॥ धर्म प्रथम पुरुषार्थ है पुरुषार्थो का मूल । इसके बिना न हो सकें अर्थ-काम फल-फूल ॥४७॥ मोक्ष महल की नीव यह थोड़ी भी हिल जाय । बजे ईट से ईट सब मिट्टी में मिल जाय ॥४८॥
अर्थकाम अर्थ काम परिमित रहें दोनों से कल्याण । अनिमय यदि दोनों हुए समझो निकल प्राण ||४९॥
अर्थ मित भी अर्थ न हो अगर तो हो अमित अनर्थ । अर्थ बिना जीवन नहीं अर्थ बिना सब व्यर्थ ॥५०॥ भिक्षा माँगो श्रम करो बनो जगत के दाम । अन्न बराबर चाहिये कव तक हो उपवास ॥५१॥ खाना पीना बैठना अर्थ सभी का मूल । ये न रहें कब तक रहें काम मोक्ष अनुकूल ॥५२॥ काम मोक्ष प्रतिकूल जब तब दुखमय संसार । फिर जीवन हो किसलिये वसुन्धरा का भार ॥५३॥ गृही रहो या मुनि रहो तुम्हें चाहिये अर्थ । किसी रूप में क्यों न हो अर्थ नहीं है व्यर्थ ॥५४॥
काम काम न जीवन में रहा तो जीवन बेकाम । फूलीफली न बल्लरी व्यर्थ हुई बदनाम ॥५५॥