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दसवाँ अध्याय
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सुख भी हो यदि पाप से तो सुख पाता एक । किन्तु पापके ताप से जलते जीव अनेक ॥६९।। सुखी बनें जग में बहुत दुखी न्यून से न्यून । • काँटों के दुख से अधिक सुख दे सकें प्रसून ।।७०॥ ऐसा ही कर्तव्य कर हो बहुजन को इष्ट ।
इसकी चिन्ता कर नहीं पापी हो यदि क्लिष्ट ॥७१।। अर्जुन--
बहुजन का यदि हित करूं तो भी है अन्धेर । विजय पाप ही पायगा पापी जग में ढेर ॥७२।। रावण का दल था बहुत यद्यपि था दुष्कर्म । होती यदि उसकी विजय तो क्या होता धर्म ॥७३।। दुर्योधन--दल है बहुत पाण्डव--दल है अल्प ।
दुर्योधन की जीत में क्या है पुण्य अनल्प ||७४॥ श्रीकृष्ण---
एक जगह ही देख मत चारों आर निहार । अपरिमेय संसार है, अपनी दृष्टि पसार ॥७५|| वर्तमान ही देख मत जो क्षण हैं दो चार । कर तू निर्णय के लिये भूत-भविष्य-विचार ||७६।। सार्वत्रिक पर डाल त सार्वकालिकी दृष्टि । सत्य तुझे मिल जायगा होगी निर्णय-सृष्टि ॥७७/ रावण की यदि जीत हो रामचन्द्र · की हार । तो घर घर रावण बने डूब जाय संसार ॥७८॥