SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६ ] कृष्ण- गीता कैसे हिंसा करूं अहिंसा कैसे छोडूं । बंधन तोडूं ॥४॥ क्यों हिंसा से विश्व-प्रेम का समझा मैं स्थितिप्रज्ञ नहीं है द्वेपी समभावी है पक्षपात का पूर्ण वह सारे कर्तव्य करेगा निर्भय रक्वेगा समभाव मोह ममता को रागी । त्यागी ॥ होकर | धोकर ||५|| क्यों न रहेगा । सहेगा । पर वह कार्याकार्य - विवेकी क्यों हिंसा के परम पाप का ताप अकर्तव्य कर्तव्य बनायेगा वह कैसे | कार्याकार्य विवेक न पायेगा वह कैसे || ६ || यद्यपि तुम हो बन्धु, मुझे इतना समझाते । पर संशय कल्लोल एक पर एक दिखाते || ये संशय कल्लोल शान्त तुम ही कर सकते | सारी विपदा मनोवेदना तुम हर सकते ||७|| बोलो प्यारे बन्धु मढ़से फिर भी बोलो । मुझ अन्धेके ज्ञान-न-न करुणाकर खोलो । रहूं अहिंसक छू न सके हिंसा की छाया । कर जाऊं कर्तव्य मोहकी लगे न माया ||८|| ( हरिगीतिका ) श्रीकृष्णअर्जुन तुझे संशय हुआ इसका न मुझको खेद है || ऋषि मुनि समाजाते यहां मिलता न इसका भेद है ॥ हिंसा अहिंसा है कहां, तुझको अभी अज्ञात है । 'होती अहिंसा किस जगह हिंसा, कठिन यह बात है ॥९॥
SR No.010814
Book TitleKrushna Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1995
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy