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कृष्ण- गीता
कैसे हिंसा करूं अहिंसा कैसे छोडूं । बंधन तोडूं ॥४॥
क्यों हिंसा से विश्व-प्रेम का
समझा मैं स्थितिप्रज्ञ नहीं है द्वेपी
समभावी है पक्षपात का पूर्ण वह सारे कर्तव्य करेगा निर्भय रक्वेगा समभाव मोह ममता को
रागी ।
त्यागी ॥
होकर |
धोकर ||५||
क्यों न रहेगा ।
सहेगा ।
पर वह कार्याकार्य - विवेकी क्यों हिंसा के परम पाप का ताप अकर्तव्य कर्तव्य बनायेगा वह कैसे | कार्याकार्य विवेक न पायेगा वह कैसे || ६ ||
यद्यपि तुम हो बन्धु, मुझे इतना समझाते ।
पर संशय कल्लोल एक पर एक दिखाते || ये संशय कल्लोल शान्त तुम ही कर सकते | सारी विपदा मनोवेदना तुम हर सकते ||७|| बोलो प्यारे बन्धु मढ़से फिर भी बोलो । मुझ अन्धेके ज्ञान-न-न करुणाकर खोलो । रहूं अहिंसक छू न सके हिंसा की छाया । कर जाऊं कर्तव्य मोहकी लगे न माया ||८|| ( हरिगीतिका )
श्रीकृष्णअर्जुन तुझे संशय हुआ इसका न मुझको खेद है || ऋषि मुनि समाजाते यहां मिलता न इसका भेद है ॥ हिंसा अहिंसा है कहां, तुझको अभी अज्ञात है । 'होती अहिंसा किस जगह हिंसा, कठिन यह बात है ॥९॥