Book Title: Kashay
Author(s): Hempragyashreeji
Publisher: Vichakshan Prakashan Trust
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय Dece 000000000000000 साध्वी हेमप्रज्ञा श्री wowdalnelibranto Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारावास है यह जगत् जिसमें प्राणी अपनी कषाय-वृत्तियों की निबिड़ बेड़ियों में जकड़ा कराह रहा है। जब तक कलुषताओं की कालिख से वह मुक्त नहीं होगा নন ন दुःख की धायँ-धार्य करती लपटों से बच निकलनेकी कोई राह उसे नहीं मिलेगी। पीड़ा, गास, निराशा, चिन्ता की घुटन उसकी अस्मिता को निगले इससे पूर्व उसे आत्म-जागृति के द्वार पर दस्तक देनी होगीविहार करना होना सुख-शान्ति और समता के অলঃ ঠাঠাল और पाना होगा मुक्ति की दुर्लभ संपदा को। -साध्वी मणिप्रभाश्री Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन जैन कोकिला प्रवर्तिनी विचक्षणश्री जी म. सा. की सुशिष्या एवं मरुधर-ज्योति पू. मणिप्रभाश्री जी म. सा. की नेश्रायवर्तिनी साध्वी (डॉ.) हेमप्रज्ञाश्री एम.ए., पी-एच.डी. श्री विचक्षण प्रकाशन इन्दौर Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वनाथ विद्यापीठ ग्रन्थमाला-११२ प्रधान सम्पादक : डॉ. सागरमल जैन कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन (देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इन्दौर द्वारा सन् १९८८ में स्वीकृत शोध-प्रबन्ध का संक्षिप्त रूप) साध्वी (डॉ.) हेमप्रज्ञाश्री प्रकाशन प्राप्ति श्री विचक्षण प्रकाशन, नईदुनिया परिसर, इन्दौर-४५२ ००९ वितरण पार्श्वनाथ विद्यापीठ, आई०टी० आई० मार्ग, करौंदी, वाराणसी - २२१००५ प्रथम संस्करण नवम्बर, १९९९ मूल्य रुपये 50/पचास सहयोग ३०,००० रुपये पन्ना-रूपा धर्मशाला पालीताना (सौराष्ट्र) ज्ञान खाते से। १०,००० रुपये स्व. राजमलजी पन्नालालजी चौधरी नागोर की स्मृति में श्रीमान शिखरचंदजी, श्रीचंदजी चौधरी, कोबे (जापान) द्वारा। . मुद्रण नई दुनिया प्रिन्टरी, इन्दौर अन्तर्राष्ट्रीय मानक पुस्तक संख्या : ८१-८६७१५-३५-५ ISBN : 81-86715-35-5 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय कषाय जैनधर्म का एक पारिभाषिक शब्द है । वे मनोवृत्तियाँ जो आत्मा को कलुषित करती हैं, उन्हें जैन मनोविज्ञान की भाषा में कषाय कहा गया है; अतः जीव के सांसारिक बन्धन में जो मनोवृत्तियाँ कारणभूत हैं, उनमें कषाय का एक प्रमुख स्थान है। कषाय को पूर्णरूप से समझे बिना उस पर विजय पाना नितान्त दुष्कर है। साध्वी (डॉ.) हेमप्रज्ञाजी द्वारा रचित 'कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन' नामक यह पुस्तक इस विषय पर एक अधिकारिक कृति है । प्रस्तुत कृति में आपने न केवल कषाय की सूक्ष्म विवेचना की है अपितु उन्हें कर्मसिद्धान्त एवं गुणस्थान जैसे महत्त्वपूर्ण दार्शनिक सिद्धान्तों के परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित करते हुए कषाय-जय के विभिन्न उपायों को भी सुझाया है। हम साध्वी (डॉ.) हेमप्रज्ञाजी के अत्यन्त आभारी हैं; जिन्होंने उक्त कृति को तैयार कर प्रकाशनार्थ हमें दिया । पार्श्वनाथ विद्यापीठ के मानद निदेशक डॉ. सागरमल जैन के प्रति हम अपना आभार प्रकट करते हैं, जिन्होंने न केवल इस ग्रन्थ की मूल पाण्डुलिपि को आद्योपान्त पढ़ कर इसके प्रकाशन के लिए हमें प्रेरित किया, अपितु इसके लिए विद्वत्तापूर्ण 'प्रस्तावना' भी लिखी। पुस्तक में अपेक्षित सुधार एवं प्रकाशन व्यवस्था के लिए हम विद्यापीठ के प्रवक्ता डॉ. श्री प्रकाश पाण्डेय के भी आभारी हैं। आशा है, पुस्तक अध्येताओं एवं शोधार्थियों के लिए उपयोगी सिद्ध होगी । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत - शत - वन्दन जिनके परम पुनीत चरणों में खरतरगच्छाधिपति, शासनप्रभावक, आचार्य भगवन्त पूज्य श्री जिनमहोदयसागर सूरीश्वरजी महाराज उपाध्याय भगवन्त, शासनप्रभावक पूज्य श्री कैलाशसागरजी महाराज ज्योतिर्विद्, शासनप्रभावक, गणिभगवन्त पूज्य श्री मणिप्रभसागरजी महाराज परोक्ष आशीर्वाद जैन कोकिला, समतामूर्ति, स्व. प्रवर्तिनी, परम पूज्या __गुरुवर्या श्री विचक्षणश्रीजी महाराज साहब . प्रत्यक्ष कृपा अध्यात्मयोगिनी, हृदयस्पर्शी व्याख्यानदात्री, परमपूज्या गुरुवर्या श्री मणिप्रभाश्रीजी महाराज साहब नमन, नमन और नमन पूज्या-वृन्द के चरणों में वात्सल्यपूर्णा पूज्याश्री निपुणाश्रीजी म.सा. आगम-मर्मज्ञा पूज्याश्री तिलकश्रीजी म.सा. शान्त-स्वभावी पूज्याश्री विनीताश्रीजी म.सा. सरल-मना पूज्याश्री चन्द्रकलाश्रीजी म.सा. प्रज्ञा-भारती पूज्याश्री चन्द्रप्रभाश्रीजी म.सा. शासन-ज्योति पूज्याश्री मनोहरश्रीजी म.सा. प्रसन्न-वदना पूज्याश्री सुरंजनाश्रीजी म.सा. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण पारसमणि के स्पर्शमात्र से, लोहा तत्क्षण हेम बने। चिन्तामणि चिन्ता को चूरे, 'दिनमणि हरे अन्धेर घने। नभमणि आलोकित नभमण्डल, तारक धूमिलहीन बने। संत शिरोमणि मणिप्रभामय, गुरु हरे पातक घने। ज्यों हेमनिर्मित मुद्रिका में, जड़ा हुआ हो मणिरतन। ज्यों बावनाचन्दन से सुरभि - युक्त कोई सघन वन। ज्यों तारामध्ये चन्द्र शोभित, हो रहा हो नीलगगन। त्यों संतमध्ये संत शिरोमणि, गुरु विचक्षण को नमन! गुरुचरणरेणु साध्वी हेमप्रज्ञाश्री Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वप्रेम-प्रचारिका, समतामूर्ति पूज्या श्री विचक्षणश्री जी महाराज साहब मुस्कान जिनकी मन्द मन्द, कर लेती जो मनोहरण, करुणापूरित नयन जिनके, शान्त औ उपशान्त वदन। अध्यात्म मार्गदर्शक हैं, जिनके मधुर-मधुर वचन, हे विलक्षण गुरु विचक्षण, लाख-लाख तुम्हें नमन।। • Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका जैन साधना कषायों के विजय की साधना है। आचार्य हरिभद्र ने तो बहुत ही स्पष्ट शब्दों में कहा था कि 'कषायों से मुक्ति ही वास्तविक अर्थ में मुक्ति है (कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव)। कषाय जैन दर्शन का पारिभाषिक शब्द है। यद्यपि बौद्ध परम्परा में 'धम्मपद' (२२३) में और हिन्दू परम्परा में छान्दोग्यउपनिषद् (७।२६ । २) तथा महाभारत में शान्तिपर्व (२४४।३) में कषाय शब्द का प्रयोग अशुभ चित्तवृत्तियों के अर्थ में हुआ है। फिर भी इन दोनों परम्परा में कषाय शब्द का प्रयोग विरल ही देखा जाता है। जबकि जैन परम्परा में इस शब्द का प्रयोग प्रचुरता से देखा जाता है। जैन आचार्यों द्वारा इसकी व्युत्पत्तिपरक परिभाषाएँ अनेक दृष्टिकोणों से की गई है, जिनकी चर्चा प्रस्तुत कृति में साध्वीजी ने की है। सामान्यतया वे मनोवृत्तियाँ या मानसिक आवेग जो हमारी आत्मा को कलुषित करते हैं, हमारे आत्मीय सद्गुणों को कृश करते हैं, जिनसे आत्मा बन्धन में आती है और उसके संसार परिभ्रमण अर्थात् जन्म-मरण में वृद्धि होती है, उन्हें कषाय कहते हैं। दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि "अनिग्रहित क्रोध और मान तथा वृद्धिगत माया तथा लोभ- ये चारों कषायें पुनर्जन्म रूपी वृक्ष का सिंचन करती हैं, दुखः के कारण हैं, अतः समाधि का साधक उन्हें त्याग दें"। उत्तराध्ययनसूत्र में राग और द्वेष को कर्म का बीज कहा गया है। राग-द्वेष के कारण ही कषायों का जन्म होता है। स्थानांगसूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि पाप कर्म की उत्पत्ति के दो स्थान हैं- राग और द्वेष । राग से लोभ का और लोभ से कपट अर्थात् माया का जन्म होता है। दूसरी ओर द्वेष से क्रोध का और क्रोध से अहंकार का जन्म होता है। इस प्रकार कषायों की उत्पत्ति के मूल में राग-द्वेष की वृत्ति ही काम करती है। यह भी सुनिश्चित है कि राग-द्वेष के मूल में भी राग ही प्रमुख तत्त्व है। राग की उपस्थिति में ही द्वेष का जन्म होता है। अतः संक्षेप में कहें तो सम्पूर्ण कषायों के मूल में राग या आसक्ति का तत्त्व ही प्रमुख है। वही कषायों का पिता है। राग-द्वेष से क्रोध, मान, माया और लोभ- इन चार कषायों का क्या सम्बन्ध है। इसकी विस्तृत चर्चा विशेषावश्यकभाष्य में विभिन्न नयों या अपेक्षाओं के आधार पर की गई है। संग्रह नय की अपेक्षा से क्रोध और मान द्वेष रूप हैं, जबकि माया और लोभ राग रूप हैं। क्योंकि प्रथम दो में दूसरे की अहित भावना है और अन्तिम दो में Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन ८ अपनी स्वार्थ-साधना का लक्ष्य है। व्यवहारनय की दृष्टि से क्रोध, मान और माया- तीनों द्वेष रूप हैं, क्योंकि माया भी दूसरे के विघात का विचार ही है। केवल लोभ अकेला रागात्मक है, क्योंकि उसमें ममत्वभाव है। किन्तु ऋजुसूत्रनय की दृष्टि से केवल क्रोध ही द्वेषरूप है, शेष कषाय-त्रिक को न तो एकान्त रूप से राग-प्रेरित कहा जा सकता है, न द्वेष-प्रेरित। राग-प्रेरित होने पर वे राग-रूप हैं और द्वेष-प्रेरित होने पर द्वेषरूप होती हैं। फिर भी यह तो सत्य ही है कि ये चारों कषाय मूलत: व्यक्ति की राग-द्वेषात्मक वृत्तियों की ही बाह्य अभिव्यक्तियाँ हैं। वस्तुतः व्यक्ति में निहित वासना के तत्त्व अपनी विधेयात्मक अवस्था में राग और निषेधात्मक अवस्था में द्वेष बन जातो हैं और ये राग-द्वेष के तत्त्व ही अपनी आवेगात्मक अभिव्यक्ति में क्रोध, मान, माया और लोभ अर्थात् कषाय बन जाते हैं। इस प्रकार कषाय राग-द्वेष की बाह्य अभिव्यक्ति है और राग-द्वेष कषायों के अन्तरंग बीज हैं। राग-द्वेष के अभाव में कषायों की सत्ता नहीं है। कषायें राग-द्वेष रूपी युगल से ही जन्म लेती हैं, उन्हीं से सम्पोषित होती हैं और इनके मरने पर मर जाती हैं। कषाय और मिथ्यात्व - कषायों की उपरोक्त चर्चा के प्रसंग में हमने यह देखा कि कषायों का जन्म राग-द्वेष की वृत्तियों से होता है। पुनः यदि हम यह विचार करें कि कषायों को जन्म देने वाली ये राग-द्वेष की वृत्तियाँ किसके आधार पर जन्म लेती हैं और सम्पोषित होती हैं, तो इस सम्बन्ध में उत्तराध्ययनसूत्र का स्पष्ट निर्देश है कि राग-द्वेष और कषायों का मूलभूत कारण मोह है। इसे अज्ञान या अविवेक दशा भी कहा जा सकता है। किन्तु इससे आगे बढ़कर जब यह पूछा जाए कि यह मोह, अज्ञान या अविवेक क्यों उत्पन्न होता है या किसके द्वारा उत्पन्न होता है, तो हमें कहना पड़ता है कि इसका मूल कारण मिथ्यात्व ही है। वस्तुत: जैन दर्शन में यह एक प्रमुख दार्शनिक समस्या है कि यदि कषायों का कारण मोह या मिथ्यात्व है, तो मोह या मिथ्यात्व का कारण क्या है? सम्प्रति इन प्रश्नों को लेकर जैन चिन्तकों में एक विवाद छिड़ा हुआ है, मिथ्यात्व और कषाय में कौन प्रमुख है और कौन गौण है? यह प्रश्न आज निश्चयनय पर अधिक बल देने वाले कानजी स्वामी के समर्थक पंडितों एवं व्यवहारनय की उपेक्षा नहीं करने वाले पूज्य आचार्य विद्यासागरजी के समर्थकों के बीच विवाद १. विशेषावश्यकभाष्य, २६६८-२६७१ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन ९ का विषय बना हुआ है। एक ओर पू. कानजी स्वामी के समर्थक विद्वानों का कहना है कि बन्धन का मूलभूत कारण मिथ्यात्व है और कषाय अकिंचित्कर है, क्योंकि कषायों का जन्म भी मिथ्यात्व से होता है। दूसरी ओर आचार्य विद्यासागरजी के समर्थक विद्वानों का कहना है कि कषाय ही बन्धन का प्रमुख कारण है, मिथ्यात्व अकिंचित्कर है। क्योंकि मिथ्यात्व का जन्म और सत्ता दोनों ही अनन्तानुबन्धी कषायों की उपस्थिति में ही संभव है। अनन्तानुबन्धी कषायों के अभाव में मिथ्यात्व की सत्ता नहीं है। इस प्रकार हम देखते हैं कि दोनों ही पक्ष अपने-अपने आग्रहों पर खड़े हुए हैं। वस्तुतः मिथ्यात्व और कषाय ये दोनों ही परस्पर आश्रित हैं और यह भी सत्य है कि तीव्रतम कषायों की उपस्थिति में ही मिथ्यात्व की सत्ता सम्भव होती है। वस्तुतः मिथ्यात्व और कषाय दोनों ही परोपजीवी हैं, मिथ्यात्व के अभाव में कषाय नहीं होती है और कषाय के अभाव में मिथ्यात्व भी नहीं होता है। वस्तुतः चिन्तन की अपेक्षा से ही कषाय और मिथ्यात्व को अलग-अलग किया जा सकता है। सत्ता में तो वे एक-दूसरे के अनुस्यूत होकर ही रहते हैं। व्यक्ति में कषायों के आवेग तभी उत्पन्न होते हैं, जब वह मोहग्रस्त या अज्ञान से घिरा होता है, किन्तु जैसे ही वह अज्ञान या मिथ्यात्व का घेरा तोड़ता है, उसके कषाय समाप्त हो जाते हैं। वस्तुतः मिथ्यात्व के बिना कषाय-भाव नहीं होते हैं और कषाय के बिना मिथ्यात्व भी नहीं होता है। एक ही सत्ता पर दूसरे की सत्ता आधारित है, इनमें से कोई भी न तो अकिंचित्कर है और न दूसरे से निरपेक्ष ही। उत्तराध्ययनसूत्र में इसी समस्या का समाधान किंचित् भिन्न शब्दों में किया गया है। जिस प्रकार अण्डा और मुर्गी में कौन प्रथम, इस समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार मिथ्यात्व और कषाय में भी कौन प्रथम या महत्त्वपूर्ण है और कौन गौण या कम महत्त्वपूर्ण है, इसका निर्णय नहीं किया जा सकता है। जिस प्रकार अण्डे के बिना मुर्गी और मुर्गी के बिना अण्डा सम्भव नहीं है, उसी प्रकार मिथ्यात्व के बिना कषाय और कषाय के बिना मिथ्यात्व सम्भव नहीं है। इनमें से किसी की भी पूर्व कोटि निर्धारित नहीं की जा सकती है, क्योंकि दोनों परोपजीवी या परस्पराश्रित हैं। कषाय और कर्म-बन्ध जैन दर्शन निरीश्वरवादी दर्शन है, अत: उसमें कर्म-सिद्धान्त को ही सर्वोपरिता दी गई है। व्यक्ति का संसार में परिभ्रमण ईश्वर के अधीन न होकर Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन १० कर्मव्यवस्था के अधीन माना गया है, फलतः जैन दार्शनिकों ने कर्म के बन्धन और विपाक की तलस्पर्शी गम्भीर विवेचना की है। इसी क्रम में कर्म-बन्ध क्यों और कैसे होता है? इसकी चर्चा करते हुए उन्होंने कर्म-बन्ध के निम्न पाँच कारणों का उल्लेख किया है :- (१) मिथ्यात्व, (२) अविरति (असंयम), (३) प्रमाद, (४) कषाय और (५) योग। ज्ञातव्य है कि यहाँ 'योग' से तात्पर्य मन, वचन एवं शरीर की गतिविधियाँ हैं। यदि इन पाँच कारणों का विश्लेषण करें तो हम यह पाते हैं कि मिथ्यात्व, अविरति और प्रमाद मूलतः कषाय के कारण ही होते हैं। कषायों की अनन्तानुबन्धी चौकड़ी मिथ्यात्व का कारण है क्योंकि कषायों की इस अनन्तानुबन्धी चौकड़ी की उपस्थिति में ही मिथ्यात्व सम्भव होता है। जैसे ही कषायों की यह अनन्तानुबन्धी चौकड़ी समाप्त होती है, मिथ्यात्व भी समाप्त हो जाता है और सम्यग्दर्शन प्रकट हो जाता है। इससे यह सुनिश्चित होता है कि मिथ्यात्व का कारण कषाय है। इसी प्रकार अविरति अर्थात् असंयम का कारण भी अनन्तानुबन्धी अथवा अप्रत्याख्यानी कषाय ही होते हैं। कषाय की अप्रत्याख्यानी चौकड़ी के समाप्त होने पर विरति या संयम का प्रकटन होता है। जब तक अप्रत्याख्यानी कषाय का उदय है, तब तक संयम या विरति संभव नहीं है। इसी प्रकार अविरति का कारण भी कषाय ही है। जब हम बन्ध के तीसरे हेतु प्रमाद पर विचार करते हैं, तो भी हमें स्पष्ट लगता है कि प्रमाद की सत्ता भी कषाय के कारण ही है। जब तक प्रत्याख्यानी कषायों की चौकड़ी सत्ता में है तब तक प्रमाद की भी सत्ता है। गुणस्थान सिद्धान्त में भी स्पष्ट रूप से यह बताया गया है कि प्रत्याख्यानी कषाय-चतुष्क के उदय में रहते हुए अप्रमत्त-सँयत्त गुणस्थान की उपलब्धि सम्भव नहीं होती है। मात्र इतना ही नहीं, प्रबुद्ध जैनाचार्यों ने कषायों को प्रमाद का ही एक प्रकार माना है। इस प्रकार हम देखते हैं कि मिथ्यात्व, अविरति और प्रमाद- तीनों का हेतु कषाय ही है। अनन्तानुबन्धी कषाय-चतुष्क के क्षय के साथ ही मिथ्यात्व का क्षय होता है। अप्रत्याख्यानी कषाय-चतुष्क के क्षय से असंयम या अविरति का क्षय होता है। प्रत्याख्यानी कषाय-चतुष्क के क्षय या क्षयोपशम से प्रमाद समाप्त होता है अत: मिथ्यात्व, अविरत और प्रमाद के मूल में कषाय ही रहे हए हैं। कषायों के अभाव में इनकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती है, अतः बन्धन के प्रथम चार कारणों में कषाय ही प्रमुख कारण है, शेष मिथ्यात्व, अविरति और प्रमाद तो उसके आनुषंगिक ही है, कषाय की सत्ता में ही उनकी सत्ता है। निष्कर्ष यह है Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय: एक तुलनात्मक अध्ययन ११ कि बन्धन के दो ही कारण हैं- कषाय और योग । इन दोनों कारणों में भी योग बन्धनका निमित्त कारण है। कषायों के अभाव में उसमें बन्धन का सामर्थ्य नहीं है। जैन दर्शन की मान्यता है कि कषाय के अभाव में मात्र योग के परिणामस्वरूप जो ईर्यापथिक आस्रव और बन्ध होता है वह क्षणिक ही है। उसमें प्रथम समय में बन्ध होता है, और दूसरे समय में वह निर्जरित हो जाता है। इस प्रकार वस्तुतः बन्ध वास्तविक बन्ध नहीं है। जैसे पानी में खींची गई लकीर खींचने के साथ ही समाप्त हो जाती है, उसी प्रकार ईर्यापथिक बन्ध अपने बन्धन के साथ ही समाप्त हो जाता है। इस समस्त चर्चा का फलित यह है कि कषाय ही बन्धन के प्रमुख कारण हैं, योग तो अकिंचित्कर है। जिस प्रकार घी के अभाव में लड्डू बंधता नहीं है, उसी प्रकार कषाय के अभाव में कर्म भी बंधते नहीं हैं । पुन: जैन कर्म - सिद्धान्त में बन्धन के चार प्रकार माने गये हैं- ( १ ) प्रकृति बन्ध, (२) प्रदेश बन्ध, (३) स्थिति बन्ध और (४) अनुभाग बन्ध । यदि हम बन्धन के उपरोक्त दो कारण- कषाय और योग के सन्दर्भ में बन्धन के इन चार प्रकारों की चर्चा करें, तो हम यह पाते हैं कि योग प्रकृति-बन्ध और प्रदेश - बन्ध के कारण हैं; जबकि कषाय स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध के कारण हैं। योग अर्थात् हमारी मानसिक, वाचिक और कायिक क्रियाओं के द्वारा कर्मों की प्रकृति अर्थात् उनका स्वरूप और उनके प्रदेश अर्थात् मात्रा निर्धारित होती है । किन्तु यह ठीक वैसा ही है जैसा लड्डू बनाने के लिए वस्तु विशेष का एक निर्धारित मात्रा में लाया गया आटा हो। उससे लड्डू तो तभी बनेगा जब उसमें घी और शक्कर का सम्मिश्रण होगा। इसी प्रकार कर्म-बन्ध की प्रक्रिया में भी स्थिति और अनुभाग अर्थात् रस का निर्धारण कषायों के माध्यम से ही होता है । कषाय रूपी घी और शक्कर ही उस आटे को लड्डू के रूप में परिणत करते हैं। कर्मबन्ध में स्थिति अर्थात् काल मर्यादा और अनुभाग अर्थात् उनकी विपाकानुभूति (रस) का निर्धारण तो कषाय के द्वारा ही होता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि कर्म-बन्ध और विपाक ( कर्म-फल ) में मुख्य भूमिका कषाय की ही है । कषायों की तरतमता ही व्यक्ति के बन्धन के स्वरूप का निर्धारक तत्त्व है। संक्षेप में कहें, तो कषाय ही बन्धन के कारण हैं, हमारे सांसारिक अस्तित्व के आधार हैं और कषायों का क्षय या अभाव ही मुक्ति है। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन १२ कषाय के भेद आवेगों की अवस्थाएँ भी तीव्रता की दृष्टि से समान नहीं होती हैं, अतः तीव्र आवेगों को कषाय और मंद आवेगों या तीव्र आवेगों के प्रेरकों को नोकषाय (उप-कषाय) कहा गया है। कषायें चार हैं- १. क्रोध, २. मान, ३. माया और ४. लोभ। आवेगात्मक अभिव्यक्तियों की तीव्रता के आधार पर इनमें से प्रत्येक को चार-चार भागों में बाँटा गया है- १. तीव्रतम, २. तीव्रतर, ३. तीव्र ; और ४. मंद। आध्यात्मिक दृष्टि से तीव्रतम क्रोध आदि व्यक्ति के सम्यक् दृष्टिकोण या विवेक में विकार ला देते हैं। तीव्रतर क्रोध आदि आत्म-नियन्त्रण की शक्ति को छिन्न-भिन्न कर डालते हैं। तीव्र क्रोध आदि आत्म-नियन्त्रण की शक्ति के उच्चतम विकास में बाधक होते हैं। मंद क्रोध आदि व्यक्ति को पूर्ण वीतराग नहीं होने देते। चारों कषायों की तीव्रता के आधार पर चार-चार भेद हैं। अतः कषायों की संख्या १६ हो जाती है। निम्न नो उप-आवेग, उप-कषाय या कषाय-प्रेरक माने गये हैं- १. हास्य, २. रति, ३. अरति, ४. शोक, ५. भय, ६. घृणा, ७. स्त्रीवेद (पुरुष-सम्पर्क की वासना), ८. पुरुषवेद (स्त्री-सम्पर्क की वासना); और ९. नपुंसकवेद (दोनों के सम्पर्क की वासना)। इस प्रकार कुल २५ कषायें हैं। २ क्रोध यह एक मानसिक किन्तु उत्तेजक आवेग है। उत्तेजित होते ही व्यक्ति भावाविष्ट हो जाता है। उसकी विचार-क्षमता और तर्क-शक्ति लगभग शिथिल हो जाती है। भावात्मक स्थिति में बढ़े हुए आवेग की वृत्ति युयुत्सा को जन्म देती है। युयुत्सा से अमर्ष और अमर्ष से आक्रमण का भाव उत्पन्न होता है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार क्रोध और भय में यही मुख्य अन्तर है कि क्रोध के आवेग में आक्रमण का और भय के आवेग में आत्म-रक्षा का प्रयत्न होता है। जैन-दर्शन में सामान्यतया क्रोध के दो रूप मान्य हैं- १. द्रव्य-क्रोध और २. भाव-क्रोध।' द्रव्य-क्रोध को आधुनिक मनोवैज्ञानिक दृष्टि से क्रोध का आंगिक पक्ष कहा जा सकता है, जिसके कारण क्रोध में होनेवाले शारीरिक परिवर्तन होते हैं। भावक्रोध क्रोध की मानसिक अवस्था है। क्रोध का अनुभूत्यात्मक पक्ष भाव-क्रोध है, जबकि क्रोध का अभिव्यक्त्यात्मक या १. तुम अनन्तशक्ति के स्रोत हो, पृ. ४७ २. अभिधानराजेन्द्र कोश, खण्ड ३, पृ. ३९५ ३. भगवतीसूत्र, १२/५/२ . Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय: एक तुलनात्मक अध्ययन १३ शरीरात्मक पक्ष द्रव्य-क्रोध है । क्रोध के विभिन्न रूप हैं । भगवतीसूत्र में इसके दस समानार्थक नाम वर्णित हैं - १. क्रोध - आवेग की उत्तेजनात्मक अवस्था, २. कोप - क्रोध से उत्पन्न स्वभाव की चंचलता, ३. दोष- स्वयं पर या दूसरे पर दोष थोपना, ४. रोष - क्रोध का परिस्फुट रूप, ५. संज्वलन - जलन या ईर्ष्या की भावना, ६. अक्षमा-अपराध क्षमा न करना, ७. कलह अनुचित भाषण करना, ८. चाण्डिक्य–उग्ररूप करना, ९ . मंडन - हाथापाई करने पर उतारू होना, १०. विवाद - आक्षेपात्मक भाषण करना। क्रोध के प्रकार- क्रोध के आवेग की तीव्रता एवं मन्दता के आधार पर चार भेद किए गए हैं, जो इस भांति हैं १. अनन्तानुबंधी क्रोध ( तीव्रतम क्रोध ) - पत्थर में पड़ी दरार के समान क्रोध, जो किसी के प्रति एक बार उत्पन्न होने पर जीवनपर्यन्त बना रहे, कभी समाप्त न हो । २. अप्रत्याख्यानी क्रोध ( तीव्रतर क्रोध ) - सूखते हुए जलाशय की भूमि में पड़ी दरार, जैसे आगामी वर्षा होते ही मिट जाती है, वैसे ही अप्रत्याख्यानी क्रोध एक वर्ष से अधिक स्थाई नहीं रहता और किसी के समझाने से शान्त हो जाता है। ३. प्रत्याख्यानी क्रोध ( तीव्र क्रोध ) - बालू की रेखा जैसे हवा के झोकों से जल्दी ही मिट जाती है, वैसे ही प्रत्याख्यानी क्रोध चार मास से अधिक स्थायी नहीं होता। ४. संज्वलन क्रोध (अल्पक्रोध ) - शीघ्र ही मिट जाने वाली पानी में खींची गयी रेखा के समान इस क्रोध में स्थायित्व नहीं होता है । बौद्ध दर्शन में भी क्रोध को लेकर व्यक्तियों के तीन प्रकार माने गये हैं१. वे व्यक्ति जिनका क्रोध पत्थर पर खींची रेखा के समान चिरस्थायी होता है, २. वे व्यक्ति जिनका क्रोध पृथ्वी पर खींची हुई रेखा के समान अल्प-स्थायी होता है, ३. वे जिनका क्रोध पानी पर खींची रेखा के समान अस्थायी होता है। दोनों परम्पराओं में प्रस्तुत दृष्टान्त - साम्य विशेष महत्त्वपूर्ण है । ' मान (अहंकार) अहंकार करना मान है । अहंकार जाति, कुल, बल, ऐश्वर्य, साधना, ज्ञान आदि किसी भी विशेषता का हो सकता है। मनुष्य में स्वाभिमान की मूल प्रवृत्ति १. अंगुत्तरनिकाय, ३ / १३० Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन १४ . होती है, परन्तु जब स्वाभिमान की वृत्ति दम्भ या प्रदर्शन का रूप ले लेती है, तब मनुष्य अपने गुणों एवं योग्यताओं का बढ़े-चढ़े रूप में प्रदर्शन करता है और इस प्रकार उसके अन्तःकरण में मानवृत्ति का प्रादुर्भाव हो जाता है। अभिमानी मनुष्य अपनी अहंवृत्ति का पोषण करता रहता है। उसे अपने से बढ़कर या अपनी बराबरी का गुणी व्यक्ति कोई दिखता ही नहीं। जैन परम्परा में प्रकारान्तर से मान के आठ भेद मान्य हैं- १. जाति मद, २. कुल मद, ३. बल (शक्ति) मद ४. ऐश्वर्य मद, ५. तप मद, ६. ज्ञान मद (सूत्रों का ज्ञान), ७. सौन्दर्य मद और ८. अधिकार (प्रभुता)। मान को मद भी कहा गया है। ___ मान निम्न बारह रूपों में प्रकट होता है - १. मान-अपने किसी गुण पर अहंवृत्ति, २. मद-अहंभाव में तन्मयता, ३. दर्प-उत्तेजना पूर्ण अहंभाव, ४. स्तम्भ-अविनम्रता ५. गर्व-अहंकार, ६. अत्युक्रोश-अपने को दूसरे से श्रेष्ठ कहना, ७. परपरिवाद-परनिन्दा, ८. उत्कर्ष-अपना ऐश्वर्य प्रकट करना, ९. अपकर्ष-दूसरों को तुच्छ समझना, १०. उन्नतनाम-गुणी के सामने भी न झुकना, ११. उन्नत-दूसरों को तुच्छ समझना; और १२. पुर्नाम-यथोचित रूप से न झुकना। अहंभाव की तीव्रता और मन्दता के अनुसार मान के भी चार भेद हैं १. अनंतानुबन्धी मान-पत्थर के खम्बे के समान जो झुकता नहीं, अर्थात् जिसमें विनयगुण नाममात्र को भी नहीं है। २. अप्रत्याख्यानी मान-हड्डी के समान कठिनता से झुकने वाला अर्थात् जो विशेष परिस्थितियों में बाह्य दबाव के कारण विनम्र हो जाता है। ३. प्रत्याख्यानी मान-लकड़ी के समान प्रयत्न से झुक जाने वाला अर्थात् जिसके अन्तर में विनम्रता तो होती है, लेकिन जिसका प्रकटन विशेष स्थिति में ही होता है। ४. संज्वलन मान-बेंत के समान अत्यन्त सरलता से झुक जानेवाला अर्थात् जो आत्म-गौरव को रखते हुए भी विनम्र बना रहता है। माया कपटाचार माया कषाय है। भगवतीसूत्र के अनुसार इसके पन्द्रह नाम हैं। २- १. माया-कपटाचार, २. उपाधि--ठगने के उद्देश्य से व्यक्ति के पास जाना, ३. निकृति-ठगने के अभिप्राय से अधिक सम्मान देना, ४. वलय-वक्रता १. भगवतीसूत्र, १२/४३ २. वही, १२/२४ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन १५ पूर्ण वचन, ५. गहन-ठगने के विचार से अत्यन्त गूढ़ भाषण करना, ६. नूम-ठगने के हेतु निकृष्ट कार्य करना, ७. कल्क-दूसरों को हिंसा के लिए उभारना, ८. करूप-निन्दित व्यवहार करना, ९. निह्नता-ठगाई के लिए कार्य मन्द गति से करना, १०. किल्विषिक-भांडों के समान कुचेष्टा करना, ११. आदरणता-अनिच्छित कार्य भी अपनाना, १२. गूहनता-अपनी करतूत को छिपाने का प्रयत्न करना, १३. वंचकता-ठगी; और १४. प्रति-कुंचनता-किसो के सरल रूप से कहे गये वचनों का खण्डन करना, १५. सातियोग-उत्तम वस्तु में हीन वस्तु की मिलावट करना। ये सब माया की ही विभिन्न अवस्थाएँ हैं। _माया के चार प्रकार- १. अनंतानुबन्धी माया (तीव्रतम कपटाचार)-बांस की जड़ के समान कुटिल, २. अप्रत्याख्यानी माया (तीव्रतर कपटाचार)-भैंस के सींग के समान कुटिल, ३. प्रत्याख्यानी माया (तीव्र कपटाचार)- गोमूत्र की धारा के समान कुटिल, ४. संज्वलन माया (अल्पकपटाचार)-बांस के छिलके के समान कुटिल। लोभ मोहनीय-कर्म के उदय से चित्त में उत्पन्न होने वाली तृष्णा या लालसा लोभ कहलाती है। लोभ की सोलह अवस्थाएँ हैं- १. लोभ-संग्रह करने की वृत्ति, २. इच्छा-अभिलाषा, ३. मूर्छा-तीव्र संग्रह-वृत्ति, ४. कांक्षा-प्राप्त करने की आशा, ५. गृद्धि-आसक्ति ६. तृष्णा-जोड़ने की इच्छा, वितरण की विरोधी वृत्ति, ७. मिथ्या-विषयों का ध्यान, ८. अभिध्या-निश्चय से डिग जाना या चंचलता, ९. आशंसना-इष्ट-प्राप्ति की इच्छा करना, १०. प्रार्थना-अर्थ आदि की याचना, ११. लोलपनता-चाटुकारिता, १२. कामाशा-काम की इच्छा, १३. भोगाशा-भोग्य-पदार्थों की इच्छा, १४. जीविताशा-जीवन की कामना, १५. मरणाशा-मरने की कामना और १६. नन्दिराग-प्राप्त सम्पत्ति में अनुराग। __ लोभ के चार भेद- १. अनंतानुबन्धी लोभ-मजीठिया रंग के समान जो छूटे नहीं, अर्थात् अत्यधिक लोभ। २. अप्रत्याख्यानी लोभ-गाड़ी के पहिये के औगन के समान मुश्किल से छूटने वाला लोभ। ३. प्रत्याख्यानी लोभ-कीचड़ के समान प्रयत्न करने पर छूट जाने वाला लोभ। ४. संज्वलन लोभ-हल्दी के समान शीघ्रता से दूर हो जाने वाला लोभ। १. भगवती सूत्र, १५/५/५ २. तुलना कीजिए - जीवनवृत्ति और मृत्युवृत्ति (फ्रायड) Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन १६ नोकषाय-नोकषाय शब्द दो शब्दों के योग से बना है नो+कषाय। जैनदार्शनिकों ने 'नो' शब्द को साहचर्य के अर्थ में ग्रहण किया है। इस प्रकार क्रोध, मान, माया और लोभ- इन प्रधान कषायों के सहचारी भावों अथवा उनकी सहयोगी मनोवृत्तियाँ जैन परिभाषा में नोकषाय कही जाती हैं। २ जहाँ पाश्चात्य मनोविज्ञान में काम-वासना को प्रमुख मूलवृत्ति तथा भय को प्रमुख आवेग माना गया है, वहाँ जैन दर्शन में उन्हें सहचारी कषाय या उप-आवेग कहा गया है। इसका कारण यही हो सकता है कि जहाँ पाश्चात्य विचारकों ने उन पर मात्र मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विचार किया है, वहाँ जैन विचारणा में जो मानसिक तथ्य नैतिक दृष्टि से अधिक अशुभ थे, उन्हें कषाय कहा गया है और उनके सहचारी अथवा कारक मनोभाव को नोकषाय कहा गया है। यद्यपि मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विचार करने पर नोकषाय वे प्राथमिक स्थितियाँ हैं, जिनसे कषायें उत्पन्न होती हैं, तथापि आवेगों की तीव्रता की दृष्टि से नोकषाय कम तीव्र होते हैं, और कषायें अधिक तीव्र होती हैं। इन्हें कषाय का कारण भी कहा जा सकता है। जैन ग्रन्थों में इनकी संख्या ९ (नौ) मानी गई है १. हास्य-सुख या प्रसन्नता की अभिव्यक्ति हास्य है। जैन-विचारणा के अनुसार हास्य का कारण पूर्व-कर्म या वासना-संस्कार है। यह मान कषाय का कारण है। २. शोक-इष्टवियोग और अनिष्टयोग से सामान्य व्यक्ति में जो मनोभाव जागृत होते हैं, वे शोक कहे जाते हैं। शोक चित्तवृत्ति की विकलता का द्योतक है और इस प्रकार मानसिक समत्व को भंग करने वाला है। कभी-कभी यह क्रोध कषाय में रूपान्तरित हो जाता है। ३. रति (रुचि)- अभीष्ट पदार्थों पर प्रीतिभाव अथवा इन्द्रिय-विषयों में चित्त की अभिरतता ही रति है। इसके कारण ही आसक्ति एवं लोभ की भावनाएँ प्रबल होती हैं। ४. अरति-इन्द्रिय-विषयों में अरुचि ही अरति है। अरुचि का भाव ही विकसित होकर घृणा और द्वेष बनता है। राग और द्वेष तथा रुचि और अरुचि में प्रमुख अन्तर यही है कि राग और द्वेष मनस् की सक्रिय अवस्थाएँ हैं, जबकि १-२. अभिधानराजेन्द्र कोश, खण्ड ४, पृ. २१६१ ३. वही, खण्ड ७, पृ. ११५७ ४. वही, खण्ड ६, पृ. ४६७ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन १७ रुचि और अरुचि निष्क्रिय अवस्थाएँ हैं। रति और अरति पूर्व कर्म-संस्कारजनित स्वाभाविक रुचि और अरुचि का भाव है। ५. घृणा-घृणा या जुगुप्सा अरुचि का ही विकसित रूप है। अरुचि और घृणा में केवल मात्रात्मक अन्तर ही है। अरुचि की अपेक्षा घृणा में विशेषता यह है कि अरुचि में पदार्थ-विशेष के भोग की अरुचि होती है, लेकिन उसकी उपस्थिति सह्य होती है, जबकि घृणा में उसका भोग और उसकी उपस्थिति दोनों ही असह्य होती है। अरुचि का विकसित रूप घृणा और घृणा का विकसित रूप द्वेष है। ६. भय-किसी वास्तविक या काल्पनिक तथ्य से आत्मरक्षा के निमित्त बच निकलने की प्रवृत्ति ही भय है। भय और घृणा में प्रमुख अन्तर यह है कि घृणा के मूल में द्वेष-भाव रहता है, जबकि भय में आत्म-रक्षण का भाव प्रबल होता है। घृणा क्रोध और द्वेष का एक रूप है, जबकि भय लोभ या राग की ही एक अवस्था है। जैनागमों में भय सात प्रकार का माना गया है, जैसे- (१) इहलोक भय-यहाँ लोक शब्द संसार के अर्थ में न होकर जाति के अर्थ में भी गृही है। स्वजाति के प्राणियों से अर्थात् मनुष्यों के लिए मनुष्यों से उत्पन्न होने वाला भय, (२) परलोक भय-अन्य जाति के प्राणियों से होने वाला भय, जैसे मनुष्यों के लिए पशुओं का भय, (३) आदान भय-धन की रक्षा के निमित्त चोर-डाक आदि बाह्य कारणों से उत्पन्न भय, ४. अकस्मात भय-बाह्य-निमित्त के अभाव में स्वकीय कल्पना से निर्मित भय या अकारण भय। भय का यह रूप मानसिक ही होता है, जिसे मनोविज्ञान में असामान्य भय कहते हैं। ५. आजीविका भय-आजीविका या धनोपार्जन के साधनों की समाप्ति (विच्छेद) का भय। कुछ ग्रन्थों में इसके स्थान पर वेदना-भय का उल्लेख है। रोग या पीड़ा का भय वेदना भय है। ६. मरण भय-मृत्यु का भय ; जैन और बौद्ध विचारणा में मरणधर्मता का स्मरण तो नैतिक दृष्टि से आवश्यक है, लेकिन मरण भय (मरणाशा एवं जीविताशा) को नैतिक दृष्टि से अनुचित माना गया है। ७. अश्लोक (अपयश) भय-मान-प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचने का भय।' ७. स्त्रीवेद-स्त्रीत्व संबंधी काम-वासना अर्थात् पुरुष से संभोग की इच्छा। जैन-विचारणा में लिंग और वेद में अन्तर किया गया है। लिंग आंगिक संरचना का प्रतीक है, जबकि वेद तत्सम्बन्धी वासनाओं की अवस्था है। यह आवश्यक १. श्रमण आवश्यक सूत्र-भयसूत्र Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन १८ नहीं है कि स्त्री-लिंग होने पर स्त्रीवेद हो ही। जैन-विचारणा के अनुसार लिंग (आंगिक रचना) का कारण नाम-कर्म है, जबकि वेद (वासना) का कारण चारित्रमोहनीय-कर्म है। ८. पुरुषवेद-पुरुषत्व सम्बन्धी काम-वासना अर्थात् स्त्री-संभोग की इच्छा। ९. नपुंसकवेद-प्राणी में स्त्रीत्व सम्बन्धी और पुरुषत्व सम्बन्धी दोनों वासनाओं का होना नपुंसकवेद कहा जाता है। दोनों के संभोग की इच्छा ही नपुंसकवेद है। ____ काम-वासना की तीव्रता की दृष्टि से जैन-विचारकों के अनुसार पुरुष की काम-वासना शीघ्र ही प्रदीप्त हो जाती है और शीघ्र ही शान्त हो जाती है। स्त्री की काम-वासना देरी से प्रदीप्त होती है, लेकिन एक बार प्रदीप्त हो जाने पर काफी समय तक शान्त नहीं होती। नपुंसक की काम-वासना शीघ्र प्रदीप्त हो जाती है, लेकिन शान्त देरी से होती है। इस प्रकार भय, शोक, घृणा, हास्य, रति, अरति और काम-विकार- ये उप-आवेग हैं। ये भी व्यक्ति के जीवन को बहुत प्रभावित करते हैं। क्रोध आदि की शक्ति तीव्र होती है, इसलिए वे आवेग हैं। ये व्यक्ति की शारीरिक और मानसिक स्थिति को प्रभावित करने के अतिरिक्त उसके आन्तरिक गुणों-सम्यक् दृष्टिकोण, आत्म-नियन्त्रण आदि को भी प्रभावित करते हैं। भय आदि उप-आवेग व्यक्ति के आन्तरिक गुणों को उतना प्रत्यक्षतः प्रभावित नहीं करते, जितना शारीरिक और मानसिक स्थिति को करते हैं। उनकी शक्ति अपेक्षाकृत क्षीण होती है, इसलिए वे उप-आवेग कहलाते हैं। कषाय-जय-नैतिक एवं आध्यात्मिक प्रगति का आधार- जैन आचारदर्शन के अनुसार उक्त १६ आवेगों (कषाय) और ९ उप-आवेगों (नो-कषाय) का सीधा सम्बन्ध व्यक्ति के चरित्र से है। नैतिक जीवन के लिए इन वासनाओं एवं आवेगों से ऊपर उठना आवश्यक है। जब तक व्यक्ति इनसे ऊपर नहीं उठता है, वह नैतिक प्रगति नहीं कर सकता। गुणस्थान आरोहण में यह तथ्य स्पष्ट रूप से वर्णित है कि नैतिक विकास की किस अवस्था में कितनी कषायों का क्षय हो जाता है और कितनी शेष रहती हैं। नैतिकता की सर्वोच्च भूमिका समस्त कषायों के समाप्त होने पर ही प्राप्त होती है। १. जैन साइकोलाजी, पृ. १३१-१३४ २. तुम अनन्त शक्ति के स्रोत हो, पृ. ४७ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन १९ जैन-सूत्रों में इन चार प्रमुख कषायों को 'चंडाल चौकड़ी' 'कहा गया है। इनमें अनन्तानुबन्धी आदि जो विभाग हैं, उनको सदैव ध्यान में रखना चाहिए और हमेशा यह प्रयत्न करना चाहिए कि कषायों में तीव्रता न आये, क्योंकि अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ के होने पर साधक अनन्तकाल तक संसार परिभ्रमण करता है और सम्यग्दृष्टि नहीं बन पाता है। यह जन्म-मरण के रोग की असाध्यावस्था है। अप्रत्याख्यानी कषाय के होने पर साधक, श्रावक या गृहस्थ साधक के पद से गिर जाता है। यह साधक के आंशिक चारित्र का नाश कर देती है। यह विकारों की दुःसाध्यावस्था है। इसी प्रकार प्रत्याख्यानी कषाय की अवस्था में साधुत्व प्राप्त नहीं होता। इसे विकारों की प्रयत्नसाध्यावस्था कहा जा सकता है। साधक को अपने जीवन में उपर्युक्त तीनों प्रकार की कषायों को स्थान नहीं देना चाहिए, क्योंकि इससे उसकी साधना या चारित्र धर्म का नाश हो जाता है। इतना ही नहीं, साधक को अपने अन्दर संज्वलन कषाय को भी स्थान नहीं देना चाहिए, क्योंकि जब तक चित्त में सूक्ष्मतम क्रोध, मान, माया और लोभ रहते हैं, साधक अपने लक्ष्य- निर्वाण की प्राप्ति नहीं कर सकता। संक्षेप में, अनन्तानुबन्धी चौकड़ी या कषायों की तीव्रतम अवस्था यथार्थ दृष्टिकोण की उपलब्धि में बाधक है। अप्रत्याख्यानी चौकड़ी या कषायों की तीव्रतर अवस्था आत्म-नियन्त्रण में बाधक है। प्रत्याख्यानी चौकड़ी या कषायों की तीव्र अवस्था श्रमण जीवन में घातक है। इसी प्रकार संज्वलन चौकड़ी या अल्प-कषाय पूर्ण निष्काम या वीतराग जीवन की उपलब्धि में बाधक है। इसलिए साधक को सूक्ष्मतम कषायों को भी दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए, क्योंकि इनके होने पर उसकी साधना में पूर्णता नहीं आ सकती। दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि आत्म-हित चाहने वाला साधक पाप की वृद्धि करने वाले क्रोध, मान, माया और लोभ- इन चार दोषों को पूर्णतया छोड़ दे। नैतिक जीवन की साधना करने वाला इनको क्यों छोड़ दे? इस तर्क के उत्तर में दशवैकालिक सूत्र में इनकी सामाजिक एवं वैयक्तिक सद्गुणों का घात करने वाली प्रकृति का भी विवेचन किया गया है-क्रोध प्रीति का, मान विनय (नम्रता) का, माया मित्रता का और लोभ सभी सद्गुणों का नाश कर देता है। आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं कि मान विनय, श्रुत, शील-सदाचार एवं त्रिवर्ग १. दशवैकालिक, ८/३७ २. वही, ८/३८ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन २० का घातक है। वह विवेकरूपी नेत्रों को नष्ट करके मनुष्य को अन्धा बना देता है। क्रोध जब उत्पन्न होता है तो प्रथम आग की तरह उसी को जलाता है, जिसमें वह उत्पन्न होता है। माया, अविद्या और असत्य की जनक है और शीलरूपी वृक्ष को नष्ट करने में कुल्हाड़े के समान तथा अधोगति की कारण है। लोभ समस्त दोषों की उत्पत्ति का कारण है, समस्त सद्गुणों को निगल जाने वाला राक्षस है, सारे दुःखों का मूल कारण और धर्म तथा काम-पुरुषार्थ का बाधक है। यहाँ पर विशेष द्रष्टव्य यह भी है कि कषायों में जहाँ क्रोध-मानादि को एक या अधिक सद्गुणों का विनाशक कहा गया है, वहाँ लोभ को सर्व सद्गुणों का विनाशक कहा गया है। लोभ सभी कषायों में निकृष्टतम इसलिए है कि वह रागात्मक है और राग या आसक्ति ही समस्त असत् वृत्तियों की जनक है। आचार्य महाप्रज्ञ सामाजिक जीवन पर होने वाले कषायों के परिणामों की चर्चा करते हुए लिखते हैं कि "हमारे मतानुसार (सामाजिक) सम्बन्ध-शुद्धि की कसौटी है- ऋजुता, मृदुता, शान्ति और त्याग से समन्वित मनोवृत्ति। हर व्यक्ति में चार प्रकार की वृत्तियाँ (कषाय) होती हैं:- १. संग्रह, २. आवेश, ३. गर्व (बड़ा मानना); और ४. माया (छिपाना)। चार वृत्तियाँ और होती हैं। वे उक्त चार प्रवृत्तियों की प्रतिपक्षी हैं:- १. त्याग या विसर्जन, २. शान्ति, ३. समानता या मृदुता, ४. ऋजुता या स्पष्टता। ये दोनों प्रकार की प्रवृत्तियाँ वैयक्तिक हैं, इसलिए इन्हें अनैतिक और नैतिक नहीं कहा जा सकता। इन्हें आध्यात्मिक (वैयक्तिक) दोष और गुण कहा जा सकता है। इन वृत्तियों के जो परिणाम समाज में संक्रान्त होते हैं, उन्हें अनैतिक और नैतिक कहा जा सकता कषाय की वृत्तियों के परिणाम १. संग्रह (लोभ) की मनोवृत्ति के परिणाम-शोषण, अप्रामाणिकता, निरपेक्ष-व्यवहार, क्रूर-व्यवहार, विश्वासघात। २. आवेश (क्रोध) की मनोवृत्ति के परिणाम-गाली-गलौज, युद्ध, आक्रमण, प्रहार, हत्या। ३. गर्व (अपने को बड़ा मानने) की मनोवृत्ति के परिणाम-घृणा, अमैत्रीपूर्ण व्यवहार, क्रूर-व्यवहार। ४. माया (छिपाने) की मनोवृत्ति के परिणाम- अविश्वास, अमैत्रीपूर्ण व्यवहार। १. योगशास्त्र, ४/१०, १८ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन २१ कषाय जय के परिणाम १. त्याग (विसर्जन) की मनोवृत्ति के परिणाम- प्रामाणिकता, सापेक्ष व्यवहार, अशोषण। २. शान्ति की मनोवृत्ति के परिणाम- वाक्-संयम, अनाक्रमण, समझौता, समन्वय। ३. समानता की मनोवृत्ति के परिणाम- सापेक्ष-व्यवहार, प्रेम, मृदु व्यवहार। ४. ऋजुता की मनोवृत्ति के परिणाम- मैत्रीपूर्ण व्यवहार, विश्वास। __ अतः आवश्यक है कि सामाजिक जीवन की शुद्धि के लिए प्रथम प्रकार की वृत्तियों का त्याग कर जीवन में दूसरे प्रकार की प्रतिपक्षी वृत्तियों को स्थान दिया जाये। इस प्रकार वैयक्तिक और सामाजिक दोनों ही जीवन की दृष्टियों से कषाय-जय आवश्यक है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा है, क्रोध से आत्मा अधोगति को जाता है और मान से, माया से अच्छी गति (नैतिक विकास) का प्रतिरोध हो जाता है, लोभ से इस जन्म और अगले जन्म दोनों में ही भय प्राप्त होता है। जो व्यक्ति यश, पूजा या प्रतिष्ठा की कामना करता है, मान और सम्मान की अपेक्षा करता है, वह व्यक्ति अपने मान की पूर्ति के लिए अनेक प्रकार के पाप-कर्म करता है और कपटाचार का प्रश्रय लेता है। ३ दुष्पूर्य लोभ की पूर्ति में लगा हुआ व्यक्ति सदैव ही दुःख उठाया करता है, अत: इन जन्ममरण रूपी वृक्ष का सिंचन करने वाली कषायों का परित्याग कर देना चाहिए। कषाय-जय कैसे? - प्रश्न यह है कि मानसिक आवेगों (कषायों) पर विजय कैसे प्राप्त की जाये? पहली बात यह कि तीव्र कषायोदय में तो विवेकबुद्धि प्रसुप्त ही हो जाती है, अतः विवेक-बुद्धि से कषायों का निग्रह सम्भव नहीं रह जाता। दूसरे इच्छापूर्वक भी उनका निरोध सम्भव नहीं, क्योंकि इच्छा तो स्वतः उनसे ही शासित होने लगती है। पाश्चात्य दार्शनिक स्पीनोजा (Spinoza) के अनुसार आवेगों का नियंत्रण संकल्पों से भी संभव नहीं, क्योंकि संकल्प तो आवेगात्मक स्वभाव के आधार पर ही बनते हैं और उसके ही एक अंग होते हैं।४ तीसरे, आवेगों का निरोध भी मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से अहितकर १. नैतिकता का गुरुत्वाकर्षण, पृ. २ २. उत्तराध्ययन, ९/५४ ३. दशवैकालिक, ५/२/३५ ४. स्पीनोजा इन दी लाईट ऑफ वेदान्त, पृ. २६६ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय: एक तुलनात्मक अध्ययन २२ माना गया है और उनकी किसी न किसी रूप में अभिव्यक्ति आवश्यक मानी गयी है। तीव्र आवेगों के निरोध के लिए तो एक ही मार्ग है कि उन्हें उनके विरोधी आवेगों के द्वारा शिथिल किया जाये। स्पीनोजा की मान्यता यही है कि कोई भी आवेग अपने विरोधी और अधिक शक्तिशाली आवेग के द्वारा ही नियंत्रित या समाप्त किया जा सकता है । १ जैन एवं अन्य भारतीय चिन्तकों ने इस सम्बन्ध में यही दृष्टिकोण अपनाया है । दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि शान्ति से क्रोध को मृदुता से मान को, सरलता से माया को और सन्तोष से लोभ को जीतना चाहिए । २ आचार्य कुन्दकुन्द तथा आचार्य हेमचन्द्र भी यही । कहते हैं । ३ धम्मपद में कहा है कि अक्रोध से क्रोध को, साधुता से असाधुता को जीतें तथा कृपणता को दान से और मिथ्या भाषण को सत्य से पराजित करें। महाभारत में भी लगभग इन्हीं शब्दों में इन वृत्तियों के ऊपर विजय प्राप्त करने का निर्देश है । " महाभारत और धम्मपद का यह शब्द - साम्य और दशवैकालिक एवं धम्मपद का यह विचार - साम्य बड़ा महत्त्वपूर्ण है। ५ वस्तुतः कषाय ही आत्म - विकास में बाधक है। कषायों का नष्ट हो जाना ही भव-भ्रमण का अंत है। एक जैनाचार्य का कथन है- 'कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव' - कषायों से मुक्त होना ही वास्तविक मुक्ति है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि साधक को हमेशा यही विचार करना चाहिए कि मैं न तो क्रोध हूँ, न मान, न माया, न लोभ ही हूँ अर्थात् ये मेरी आत्मा के गुण नहीं हैं। अतएव मैं न तो इनको करता हूँ, न करवाता हूँ, और न करने वालों का अनुमोदन ( समर्थन ) करता हूँ । इस प्रकार कषायों को विकृति समझकर साधक शुद्ध आत्म-स्वरूप का चिन्तन करते हुए इनसे दूर होकर शीघ्र निर्वाण प्राप्त कर लेता है, क्योंकि इन चारों दोषों का त्याग कर देने वाला पाप नहीं करता है । सूत्रकृतांग में कहा गया है कि क्रोध, मान, माया और लोभ- इन चार महादोषों को छोड़ देने वाला महर्षि न तो पाप करता है, न करवाता है । " कषाय-जय से जीवनमुक्ति को प्राप्त कर वह निष्काम जीवन जीता है। १. स्पीनोजा नीति, ४/७ २. दशवैकालिक, पृ. ८/३९ ३. ( अ ) नियमसार, ११५ (ब) योगशास्त्र, ४ / २३ ४. धम्मपद, २२३ महाभारत, उद्योग पर्व - उद्धृत धम्मपद भूमिका ६. नियमसार, ८१ ७. ५. सूत्रकृतांग, १/६/२६ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन २३ ___बौद्ध दर्शन और कषाय-जय-धम्मपद में कषाय शब्द का प्रयोग दो अर्थों में हुआ है। एक तो उसका जैन-परम्परा के समान दूषित चित्तवृत्ति के अर्थ में प्रयोग हुआ है और दूसरे संन्यस्त जीवन के प्रतीक गेरूए वस्त्रों के अर्थ में। तथागत कहते हैं- 'जो व्यक्ति (रागद्वेषादि) कषायों को छोड़े बिना काषाय वस्त्रों (गेरूए कपड़ों) को अर्थात् संन्यास धारण करता है वह संयम के यथार्थ स्वरूप से पतित व्यक्ति काषाय-वस्त्रों (संन्यास मार्ग) का अधिकारी नहीं है। लेकिन जिसने कषायों (दूषित चित्तवृत्तियों) को वमित कर दिया (तज दिया) है, वह संयम के यथार्थ स्वरूप से युक्त व्यक्ति काषाय-वस्त्रों (संन्यास मार्ग) का अधिकारी है'।' बौद्ध-विचार में कषाय शब्द के अन्तर्गत कौन-कौन दूषित वृत्तियाँ आती हैं, इसका स्पष्ट उल्लेख हमें नहीं मिलता। क्रोध, मान, माया, लोभ को बौद्ध-विचारणा में दूषित चित्त-वृत्ति के रूप में ही माना गया है और नैतिक आदर्श की उपलब्धि के लिए उनके परित्याग का निर्देश है। बुद्ध कहते हैं कि क्रोध को छोड़ दो और अभिमान का त्याग कर दो; समस्त संयोजनों को तोड़ दो, जो पुरुष नाम तथा रूप में आसक्त नहीं होता, लोभ नहीं करता, जो अकिंचन है, उस पर क्लेशों का आक्रमण नहीं होता। जो उठते हुए क्रोध को उसी तरह निग्रहित कर लेता है, जैसे सारथी घोड़े को; वही सच्चा सारथी है (नैतिक जीवन का सच्चा साधक है), शेष सब तो मात्र लगाम पकड़ने वाले हैं। भिक्षुओ! लोभ, द्वेष और मोह पापचित्त वाले मनुष्य को अपने भीतर ही उत्पन्न होकर नष्ट कर देते हैं जैसे केले के पेड़ को उसी का फल (केला)। मायावी मर कर नरक में उत्पन्न हो दुर्गति को प्राप्त होता है। ३ सुत्तनिपात में कहा गया है कि जो मनुष्य जाति, धन और गोत्र का अभिमान करता है और अपने बन्धुओं का अपमान करता है, वह उसके पराभव का कारण है। जो क्रोध करता है, वैरी है तथा जो मायावी है उसे वृषल (नीच) जानो। इस प्रकार बौद्ध दर्शन इन अशुभ-चित्त वृत्तियों का निषेध कर साधक को इनसे ऊपर उठने का संदेश देता है। ___ गीता और कषाय-निरोध- यद्यपि गीता में कषायों का ऐसा चतुर्विध वर्गीकरण तो नहीं मिलता, तथापि कषायों के रूप में जिन अशुभ मनोवृत्तियों का चित्रण जैनागमों में है, उन सभी अशुभ मनोवृत्तियों का उल्लेख गीता में भी १. धम्मपद, ९-१० ४. सुत्तनिपात, ७।१ २. संयुत्तनिकाय, ३।३।३ ५. वही, ६।१४ ३. वही, ४०।१३।१ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन २४ है। हिन्दू आचार-दर्शन में कषाय शब्द का अशुभ मनोवृत्तियों के अर्थ में प्रयोग विरल ही हुआ है। छान्दोग्य उपनिषद् में कषाय शब्द राग-द्वेष के अर्थ में व्यवहृत हुआ है । ' महाभारत के शान्तिपर्व में भी कषाय शब्द का प्रयोग अशुभ मनोवृत्तियों के अर्थ में हुआ है। वहाँ कहा गया है कि मनुष्य जीवन की तीन सीढ़ियों अर्थात् ब्रह्मचर्य, गृहस्थ एवं वानप्रस्थ आश्रम में कषायों को विजित कर फिर संन्यास का अनुसरण करें । २ गीता में कषाय शब्द का प्रयोग नहीं है । फिर भी गीता में कषाय- -वृत्तियों का विवेचन है। गीता कहती है कि 'दम्भ, दर्प, मान, क्रोध आदि आसुरी सम्पदा है। अहंकार, बल, दर्प (मान), काम (लोभ) और क्रोध के आश्रित होकर मनुष्य अपने और दूसरों के शरीर में स्थित परमात्मा ( आत्मा ) से द्वेष करने वाले होते हैं अर्थात् मान, क्रोध, लोभ आदि विकारों के वशीभूत होकर आत्मा के यथार्थ स्वरूप को नहीं जान पाते हैं। यह काम, क्रोध और लोभ आत्मा का नाश करने वाले ( आत्मा को विकारी बनाकर उसके स्व-लक्षणों को आवरित करने वाले ) नरक के द्वार हैं। अतः इन तीनों का त्याग कर देना चाहिए। जो इन नरक के द्वारों से मुक्त होकर अपने कल्याण-मार्ग का आचरण करता है, वह परमगति को प्राप्त करता है । ५ इस प्रकार क्रोध, मान और लोभ - इन तीन कषायों का विवेचन हमें गीता में मिल जाता है। गीता में माया शब्द का प्रयोग तो हुआ है, लेकिन जिस निम्नस्तरीय कपटट-वृत्ति के अर्थ में जैन दर्शन में उसका प्रयोग किया गया है, उस अर्थ में उसका प्रयोग नहीं हुआ है । वहाँ तो वह दैवी माया ( ७ । १४) है, फिर भी वह नैतिक विकास में बाधक अवश्य मानी गयी है। गीता में कृष्ण कहते हैं कि माया के द्वारा जिनके ज्ञान का अपहरण हो गया है, ऐसे आसुरी स्वभाव से युक्त, दूषित कर्मों का आचरण करने वाले, मनुष्यों में नीच, मूर्ख मुझ परमात्मा को प्राप्त नहीं होते । ६ सारांश यह है कि मनोवृत्तियों के चारों रूप, जिन्हें जैन विचारणा कषाय कहती है, गीता में भी निकृष्ट माने गये हैं और नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास के लिए इनका परित्याग करना आवश्यक है। गीताकार की दृष्टि में जो मनुष्य इस शरीर के नाश होने के पहले ही काम और क्रोध से उत्पन्न आवेगों (संवेगों ) को सहन करने में समर्थ है अर्थात् जो काम एवं क्रोध की भावनाओं से ऊपर १. छान्दोग्य उपनिषद् ७।२६ । २ महाभारत शांतिपर्व, २४४ | ३ ३. गीता, १६।४ २. ४. वही, १६।४ ५. वही, १६ । २१-२२ ६. गीता, ७।१५ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन २५ उठ गया है, वही योगी है और वही सुखी है। काम-क्रोधादि (कषाय-वृत्तियों से रहित, विजित-चित्त एवं विकार रहित आत्मा के यथार्थ स्वरूप को जानने वाला ज्ञानी पुरुष सभी ओर से ब्रह्म-निर्वाण में ही निवास करता है अर्थात् जीवनमुक्त हो जाता है। ___ इस प्रकार हम देखते हैं कि बौद्ध और गीता के आचार-दर्शनों में भी जैनदर्शन के समान क्रोध (आवेश), मान (अहंकार), माया (छिपाने की वृत्ति) और लोभ (संग्रह-वृत्ति) आदि आवेगों को वैयक्तिक आध्यात्मिक विकास एवं सामाजिक सम्बन्धों की शुद्धि की दृष्टि से अनुचित माना गया है। यदि व्यक्ति इन आवेगात्मक मनोवृत्तियों को अपने जीवन में स्थान देता है तो एक ओर वैयक्तिक दृष्टि से वह अपने आध्यात्मिक विकास को अवरुद्ध करता है और यथार्थ बोध से वंचित रहता है, दूसरी ओर उसकी इन वृत्तियों के परिणाम सामाजिक जीवन में संक्रान्त होकर क्रमशः संघर्ष (युद्ध), शोषण, घृणा (ऊँचनीच का भाव) और अविश्वास को उत्पन्न करते हैं जिसके परिणामस्वरूप सामाजिक जीवन-व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो जाती है। अतः वैयक्तिक-आध्यात्मिक विकास और सामञ्जस्यपूर्ण सामाजिक जीवन प्रणाली के लिए आवेगात्मक मनोवृत्तियों का त्याग आवश्यक है और इनके स्थान पर इनकी प्रतिपक्षी शान्ति, समानता, सरलता (विश्वसनीयता) और विसर्जन (त्याग) की मनोवृत्तियों को जीवन में स्थान देना चाहिए ताकि वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन का विकास हो सके। व्यक्ति जैसे-जैसे इन आवेगात्मक मनोवृत्तियों से ऊपर उठता जाता है, वैसे-वैसे उसका व्यक्तित्व परिपक्व बनता जाता है और जब इन आवेगात्मक मनोभावों से पूर्णतया ऊपर उठ जाता है, तब वीतराग, अर्हत् या जीवनमुक्त अवस्था को प्राप्त कर लेता है, जो कि नैतिक जीवन का साध्य है। आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से इसे परिपक्व व्यक्ति (MATURED PERSONALITY) की अवस्था कहा जा सकता है। ___कषाय एवं हमारा व्यक्तित्व- हमारे व्यक्तित्व का सीधा सम्बन्ध हमारे कषाय सम्बन्धी आवेगों से है। इन आवेगों की जितनी अधिक तीव्रता होगी, व्यक्तित्व में उतनी ही अधिक अस्थिरता होगी। व्यक्ति जितना कषायों या आवेगों से ऊपर उठेगा, उसके व्यक्तित्व में स्थिरता एवं परिपक्वता आती १. वही, ५।२३ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन २६ जायेगी। इसी प्रकार व्यक्ति में वासनात्मक आवेगों (कषायों) की जितनी अधिकता होगी, नैतिक दृष्टि से उसका व्यक्तित्व उतना ही निम्न स्तरीय होगा। आवेगों (मनोवृत्तियों) की तीव्रता और उनकी अशुभता दोनों ही व्यक्तित्व को प्रभावित करती हैं। वस्तुतः आवेगों में जितनी अधिक तीव्रता होगी, उतनी व्यक्तित्व में अस्थिरता होगी और व्यक्तित्व में जितनी अधिक अस्थिरता होगी उतनी ही अनैतिकता होगी। आवेगात्मक अस्थिरता अनैतिकता की जननी है। इस प्रकार आवेगात्मकता, नैतिकता और व्यक्तित्व तीनों ही एक-दूसरे से जुड़े हैं। यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि व्यक्ति के सन्दर्भ में न केवल आवेगों की तीव्रता पर विचार करना चाहिए वरन् उनकी प्रशस्तता और अप्रशस्तता पर भी विचार करना आवश्यक है। प्राचीन काल से ही व्यक्ति के आवेगों तथा मनोभावों के शुभत्व एवं अशुभत्व का सम्बन्ध हमारे व्यक्तित्व से जोड़ा गया है। आचार दर्शन में व्यक्तित्व के वर्गीकरण या श्रेणी-विभाजन का आधार व्यक्ति की प्रशस्त और अप्रशस्त मनोवृत्तियाँ ही हैं। साध्वीश्री हेमप्रज्ञाश्री जी के इस शोधकार्य के विषय चयन से लेकर उसकी पूर्णता तक की समस्त प्रक्रिया का मैं साक्षी रहा हैं। साध्वीश्री जी ने अत्यन्त श्रमपूर्वक मूल आगम ग्रन्थों का अध्ययन एवं अवगाहन कर प्रस्तुत शोध निबन्ध को तैयार किया था। इसी शोध-प्रबन्ध पर देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इन्दौर द्वारा उन्हें पी-एच.डी. की उपाधि भी प्रदान की गई। प्रस्तुत कृति उसी शोधप्रबन्ध का संक्षिप्त रूप है। अतः पी-एच.डी. के शोध-प्रबन्ध में जो अनावश्यक विस्तार होता है, उससे यह कृति मुक्त है। संक्षिप्त होते हुए भी यह कृति कषाय सिद्धान्त के सारभूत सभी पक्षों को अपने में समाहित करती है। अपनी ही कृति का पुनर्लेखन कर उसे संक्षिप्त कर पाना एक कठिन एवं नीरस कार्य है, इसमें श्रम के साथ-साथ साहस और सूक्ष्म दृष्टि की भी आवश्यकता होती है, अन्यथा अपेक्षित पक्षों के छूट जाने का भय रहता है। पूज्या साध्वी हेमप्रज्ञाजी इस श्रम और साहस के लिए निश्चय ही साधुवाद की पात्र हैं। मुझे विश्वास है कि अपनी सहज संप्रेषणीयता के कारण प्रस्तुत कृति न केवल विद्वत् जगत् में अपितु जन साधारण में भी अपना स्थान बना पाने में सफल होगी। पूज्या साध्वीश्री मणिप्रभाश्री जी म.सा. का आदेश एवं साध्वीश्री हेमप्रज्ञाश्री जी का आग्रह प्रस्तुत कृति की भूमिका लिखने का निमित्त बना और इस माध्यम से मुझे इस कृति के संक्षिप्त स्वरूप के अवलोकन का पुनः एक Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन २७ अवसर मिला। एतदर्थ मैं साध्वीवर्या-द्वय का आभारी हूँ। मुझे विश्वास है कि पूज्या साध्वीश्री मणिप्रभाश्री जी अपनी प्रेरणा एवं श्री हेमप्रज्ञाश्री जी अपने श्रम से ऐसी अन्य कृतियों का प्रणयन करते हुए जैन विद्या के भण्डार को समृद्ध करती रहेंगी। इसी मंगल भावना के साथ। भाद्रपद शुक्ल ५ डॉ. सागरमल जैन दिनांक : २७.८.९८ निदेशक (इमेरिटस) पार्श्वनाथ विद्यापीठ वाराणसी Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन 'कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन' साध्वी श्री हेमप्रज्ञाजी का देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इन्दौर द्वारा पी-एच.डी. की उपाधि के निमित्त स्वीकृत एक महत्त्वपूर्ण अधिनिबन्ध है। साध्वीश्री को ज्ञान और चरित्र; श्रद्धा और निष्ठा; सम्यक्त्व और सहिष्णुता का जो रिक्थ (उत्तराधिकार में प्राप्त धन) मरुधर-ज्योति साध्वीश्री मणिप्रभाजी तथा उनकी दिव्यावदानी गुरुवर्या परम तपस्विनी साध्वी श्री विचक्षणश्रीजी में-से छन कर मिला है, वह एक दुर्लभ निधि है। तितिक्षा का जो अलौकिक धन विचक्षणश्रीजी को सहज सुलभ था, उसने न मालूम कितनों को उपकृत किया है और कितनों के जीवन को अपूर्व दिशादृष्टि दी है। मृत्यु को अमृतत्व में रूपान्तरित करने का जो अपूर्व रसायन उनके व्यक्तित्व और उनकी महत्तम प्रज्ञा में प्रकट हुआ था, वह वैसा/उतना आज के संहनन में होना चमत्कार के अलावा और क्या कहलायेगा? इतनी सोढव्यता, इतनी महान् साधना, इतनी विलक्षण तपश्चर्या कि यम को भी नतशीश होना पड़ा, विपदाओं और संकटों को भी घुटने टेकने पड़े - प्रणम्य है। वस्तुतः उनका व्यक्तित्व कषाय-जय का सर्वोत्तम उदाहरण है; इसीलिए प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध अपने-आप ही महत्त्वपूर्ण बन गया है। क्या एक कषाय-जयी के विराट् व्यक्तित्व की शीतल वरद छाँव में कषाय को ज़र्रा-ज़र्रा समझना और उसके आगमोक्त स्वरूप को सफलतापूर्वक प्रतिपादित करना स्वयं में एक महान् उपलब्धि नहीं है? ___मुझे प्रसन्नता है कि साध्वीश्री हेमप्रज्ञाजी ने अपने दायित्व का अप्रमत्त सावधान निर्वाह किया है और कषाय के तकनीकी स्वरूप को विस्तार से विवेचित करने में सफलता प्राप्त की है। प्राकृत-ग्रन्थ पंचसंग्रह (अधि.-१, गाथा-१०९) में कषाय के स्वरूप को इस तरह स्पष्ट किया गया है- सुहदुक्खं बहुसस्सं कम्मक्खित्तं कसेइ जीवस्स। संसार गदीमेरं तेणो कसाओ ति णं विति।। - जो क्रोध इत्यादि जीव के सुख-दुःख रूप बहुविध धान्य को उत्पन्न करने वाले कर्मरूप खेत का कर्षण करते हैं अर्थात् उसे जोतते हैं और जिनके लिए संसार की चारों गतियाँ सरहदी या मेंढ हैं; वे कषाय हैं। प्रमुख कषायें हैं : क्रोध, मान, माया, लोभ ; जिनकी तीव्रताओं और मन्दताओं को ले कर अनेकानेक सूक्ष्म भेदोपभेद किये गये हैं। जैन शास्त्रों में कषाय रागद्वेष की जो केमिस्ट्री (रसायन-शास्त्र) वर्णित है; उसके स्वरूप की जो गहन समीक्षा हुई है, वैसी अन्यत्र उपलब्ध नहीं है। जैनाचार्यों ने कषाय को खोजने और उसे रेशे-रेशे जानने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। उन्होंने इसके बहुवर्णी संजाल के हर पहलू की समीक्षा की है और इस विघ्न को हराने में स्वच्छ, स्वस्थ और अमोघ रणनीति अपनायी है। __ मुझे विश्वास है साध्वीश्री का यह पुरुषार्थ कषाय-संबन्धी खोज़-परम्परा को आगे बढ़ायेगा और उन अनुसंधानकर्ताओं के मार्ग को प्रशस्त करेगा, जो इस सूत्र को आगे बढ़ाने के लिए उत्कण्ठित हैं। डॉ. नेमीचन्द जैन इन्दौर : ६ अप्रैल १९९८ -संपादक 'तीर्थंकर' Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व-कथ्य चित्तरूपी सागर में विविध भाव-तरंगें उठती रहती हैं; कभी हर्ष, कभी शोक, कभी काम, कभी क्रोध, कभी भय तो कभी घृणा। कषाय के बहुविध रूप हमारे मनरूपी रंगमंच पर नृत्य करते रहते हैं। मूल रंग पाँच हैं : सफेद, काला, पीला, नीला, लाल। विज्ञान ने यह संख्या तीन मानी है : नीला, लाल, पीला। इन रंगों से अनेक रंगों की रचना संभव है। उसी प्रकार मूलतः कषाय चार हैं : क्रोध, मान, माया, लोभ। झुंझलाहट, चिड़चिड़ाहट, ईर्ष्या, द्वेष, मद, दर्प, छल-प्रपंच आदि कषाय की विविध अवस्थाएँ हैं। क्रोध स्व-परदाहक भयंकर अग्नि है। जिस प्रकार दियासलाई पहले स्वयं जलती है, फिर दूसरों को जलाती है; ठीक उसी प्रकार क्रोधी पहले स्वयं अशान्त होता है, फिर दूसरों पर कहर बरसाता है, गज़ब ढाता है। क्रोधी व्यक्ति - गिरता हुआ वह मकान है, जो स्वयं तो गिरता ही है; पर जिस पर गिरता है, उसे भी चोट पहुँचाता है। क्रोध दुश्मन पैदा करता है, मान आत्मीयता से वंचित करता है, माया विश्वास के टुकड़े-टुकड़े कर डालती है और लोभ अनर्थों की जड़ है। इन चारों चित्तवृत्तियों को कषाय संज्ञा दी गई है। इस कषाय के फलस्वरूप परिवार में अशान्ति, कलह, मनोमालिन्य का वातावरण बनता है। समाज में सामाजिकता नहीं रहती। व्यापार में प्रामाणिकता नहीं होती। राष्ट्र में गृहयुद्ध, विद्रोह, संघर्ष, गन्दी राजनीति पनपती है। काषायिक परिणति का परिणाम विश्वयुद्ध - विभीषिका के रूप में दिखाई देता है। अधिकारलिप्सा से विरोधी देश पर अणुबम का प्रयोग, नरसंहार तीव्रतम कषाय की ही परिणति है। जहाँ कषाय है, वहाँ कर्मबन्ध है; जहाँ कर्मबन्ध है, वहाँ संसार-परिभ्रमण है; जहाँ संसार-परिभ्रमण है, वहाँ दुःख, दुःख, भयंकर दु:ख है। मुक्ति-पथ पर चलने के लिए धर्मरथ के दो पहिये हैं- कषाय-मन्दता और आत्म-रमणता! कषाय के उन्मूलन के लिए उसके स्वरूप का ज्ञान अत्यावश्यक है! अतः सहज ही ऐसे महत्त्वपूर्ण, उपयोगी और आत्मोपकारक विषय पर शोध की इच्छा जागृत हुई। अहिल्या विश्वविद्यालय (इन्दौर) से डॉ. धोलकिया के उदार निर्देशन में कार्य प्रारम्भ हुआ। विद्वद्वर्य डॉ. सागरमल जैन एवं डॉ. श्री नेमीचन्द जैन (इन्दौर) का अमूल्य समय और सहयोग समय-समय पर मिलता रहा। एक विचार साकार हुआ। - प्रत्यक्षतः परिश्रम भले मेरा दिखाई देता हो, किन्तु वस्तुतः यह आत्मज्ञानी साधिका करुणामूर्ति गुरुवर्या श्री विचक्षणश्रीजी महाराज साहब के परोक्ष शुभाशीर्वाद Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय: एक तुलनात्मक अध्ययन ३० एवं परमपावन अध्यात्म - गंगा गुरुवर्या श्री मणिप्रभाश्रीजी महाराज साहब की विपुल प्रेरणा एवं असीम कृपा की ही फलश्रुति है। विदुषी ज्येष्ठाभगिनी पू. श्री विद्युत्प्रभाश्रीजी म. सा. एवं लघु-गुरुभगिनीवृन्द का स्नेहमय सहयोग सदा मिलता रहा है। जैन कोकिला एवं विचक्षण भावना की रचयित्री सुश्राविका श्री भँवरबाई रामपुरिया की सहृदयता एवं प्रतिभा का लाभ भी प्राप्त हुआ है। श्री हेमन्त बाबू शेखावत ( इन्दौर) एवं श्री माणकचंदजी डूंगरवाल ( इन्दौर ) ने विश्वविद्यालय सम्बन्धी कार्यवाही सम्पन्न करने में परिश्रम किया है । समस्त प्रत्यक्ष एवं परोक्ष सहयोगियों के प्रति मेरे हृदय में कृतज्ञता है। मुझे विश्वास है, शोध-प्रबन्ध में जो कमियाँ रह गई हैं; उन्हें सुधीजन पूरा करेंगे और शोध के इस सूत्र को सातत्य प्रदान करेंगे। श्री विचक्षणमणिचरणरेणु साध्वी प्रज्ञाश्री Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची अनुक्रमणिका पृष्ठ संख्या २. ७-५० ५१-६६ प्रथम अध्याय - कषाय का स्वरूप निक्षेप अपेक्षा कषाय छह अनुयोगद्वारों में नयों की अपेक्षा कषाय चतुर्गति में कषाय-चतुष्क की तरतमता। द्वितीय अध्याय - कषाय के भेद राग और द्वेष क्रोध, मान, माया और लोभ अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी, संज्वलन कषाय के सोलह भेद कषाय के चौंसठ भेद। तृतीय अध्याय - कषाय और कर्म आठ कर्म व कषाय कषाय की तीव्रता-मन्दता से कर्मस्थिति की न्यूनाधिकता कषाय और नोकषाय मोहनीय का अनुभागबन्ध कषाय और नोकषाय मोहनीय सम्बन्धित प्रकृतिबन्ध कषाय और नोकषाय मोहनीय कर्म-प्रकृतियों के बन्ध स्थान कषाय और नोकषाय मोहनीय कर्म-प्रकृतियों का प्रदेशबन्ध कषाय और नोकषाय मोहनीय कर्म-प्रकृतियों का स्थितिबन्ध। चतुर्थ अध्याय - कषाय और गुणस्थान चौदह गुणस्थान व कषाय उपशम एवं क्षपक श्रेणी में कषायों का उपशम-क्षय। पंचम अध्याय - कषाय और लेश्या छह लेश्याओं में कषाय कषाय अपेक्षा लेश्या के बहत्तर भेद। षष्ठ अध्याय - कषाय और तत्त्व जीव - स्वभाव और विभावदशा अजीव - कषाय का फल – कर्म आस्रव - कषाय का आगमन बन्ध - कषाय का बन्धन ६७-७४ ७५-८८ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन ३२ १३३-१४७ संवर - कषाय का संवरण निर्जरा - कषाय का निगमन मोक्ष - कषायमुक्ति। सप्तम अध्याय - कषाय-जय क्रोध एवं क्रोध शमन के सामान्य उपाय मान एवं मान-जय हेतु चिन्तन माया एवं माया-जय हेतु विविध विचार बिन्दु लोभ एवं लोभ-जय हेतु चिन्तन। उपसंहार सन्दर्भ-ग्रन्थ-सूची १४८-१५३ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय का स्वरूप Legion १. २. ३. ४. प्रथम अध्याय जन्म चतुर्गति पुनः शरीरधारण संसार कर्म व्याधि पुनः मरण कषाय (जड़) जैनागमों में राग-द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ इत्यादि मलिन चित्तवृत्तियों को कषाय संज्ञा दी गई है । ' मरण 'कषाय' शब्द का प्रयोग कहीं-कहीं 'कसैलेपन" के अर्थ में हुआ है, किन्तु मुख्यतः इसका उपयोग क्रोधादि भावों के लिए ही हुआ है । प्राचीनतम आगम आचारांगसूत्र में इन दोनों अर्थों में कषाय शब्द प्रयुक्त है। सूत्रकृतांग में एक स्थल पर कटुवचन के लिए भी 'कषाय' शब्द आया है; किन्तु सामान्यतया आगमिक एवं दार्शनिक ग्रन्थों में क्रोधादि वृत्तियों के लिए ही 'कषाय' शब्द दिया गया है। 'आचारांगसूत्र' की वृत्ति में शीलांकाचार्य ने 'कषाय' शब्द का अर्थ किया है - 'कष्' अर्थात् संसार, आय अर्थात् लाभ संसार प्राप्ति का लाभ कराने समवाओ। समवाय ४1 सूत्र - १ ६ / सू. १३० ) 'ण तित्ते, ण कडुए, ण कसाए ।' (आयारो । अ. ५ / उ 'कसाए पयगुए किच्चा ।' (आयारो / अ. ८ / उ. ६ / सू. १०५ ) 'अप्पेगे पलियंतेसि··· बाला कसायवयणेहिं । । ' ( सूत्रकृतांग / अ. ३ / उ. १ / गा. १५ ) Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन वाली चित्तवृत्ति कषाय है । जिनभद्रगणि श्रमाश्रमण के अनुसार- ' 'जिससे दुःखों की प्राप्ति होती है, वह कषाय है ।' आचार्य नेमिचन्द्र ( ११वीं शती) ने 'कषाय ' शब्द की व्युत्पत्ति हिंसार्थक 'कष' धातु से एवं जोतनार्थक 'कृष विलेखने' धातु से बनाई है। हिंसार्थक 'कष' धातु की अपेक्षा से जो आत्म-साक्षात्कार, व्रतपालन (अंशतः तथा सर्वतः ) तथा वीतरागता प्रकट होने रूप भावों का हनन करे, वह कषाय है। इसी का समर्थन राजवार्तिककार ने किया है, 'जो आत्मा का हनन करे, कुगति में ले जाए; वह कषाय है ।' जोतने के अर्थ में कषाय की परिभाषा है. -' 'कर्मरूपी खेत को जोतकर जो सुख - दुःख रूपी धान्य को उत्पन्न करती है, वह कषाय है । ' निक्षेप - अपेक्षा कषाय २ १ सामान्यतः ग्रन्थों में निक्षेप के चार भेद निर्दिष्ट हैं; किन्तु आचारांगसूत्र', विशेषावश्यकभाष्य" एवं कसायपाहुड चूर्णिसूत्र में निक्षेप की अपेक्षा 'कषाय' के आठ प्रकार बताये गये हैं- ( १ ) नाम ( २ ) स्थापना ( ३ ) द्रव्य ( ४ ) उत्पत्ति ( ५ ) प्रत्यय ( ६ ) आदेश (७) रस (८) भाव । ( १ ) नाम कषाय - किसी भी वस्तु या व्यक्ति का नाम 'कषाय' रख देना, नाम कषाय है । ( २ ) स्थापना कषाय- - ऐसे चित्र अथवा प्रतिमा की स्थापना करना जिसकी आकृति में कषाय का भाव झलक रहा हो, स्थापना कषाय है। ( ३ ) द्रव्य कषाय - विशेषावश्यक भाष्यकार ने द्रव्य - कषाय दो प्रकार का बताया है" - कर्मद्रव्य कषाय, नो कर्मद्रव्य कषाय । ५. ६. ७. ८. ९ - 'कम्मं कस भवो वा कसमाओ सिं जओ कसाया ता .. ( विशेषावश्यक भाष्य / गा. २९७८ ) 'सम्यक्त्वदेश··· घातयन्ति वा कषायाः । । ' (गोम्मटसार / जी. का. / अधि. ६ / गा. २८३ ) कपायवेदनीयस्यो‘कषाय' इत्युच्यते । । ' ( राजवार्तिक / अ. २ / सू. ६ ) सुख दुःखसुबहसस्यं कर्मक्षेत्र कृषति कषाय इतीमं बुवन्ति । । ( गो. सा. / जी. का. / अधि. ६ / गा. २८२ ) 'णामंठवणा.. कोहाइया चउसे ।' (आचारांग सूत्र / अ. २ /उ. १ / सू. १९० की शीलांकाचार्यकृत निर्युक्ति ) १०. नामंठवणा... तेसिमा होइ । । ' ( विशेषा. भाष्य / गा. २९८० ) ११. कसाओ ताव णिक्खिवियव्वो णामकसाओ, ठवणकसाओ, दव्वकसाओ, पच्चयकसाओ··· (कषायपाहुड / चूर्णिसूत्र / अ. १ / गा. १३-१४ / सू. ३९ ) १२. दुविहो दव्वकसाओ ( विशेषा / गा. २९८१ ) Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय का स्वरूप क्रोधादि कषायों की उत्पत्ति में निमित्त बनने वाला चारित्र-मोहनीय कर्म तथा क्रोधादि भावों से बँधने वाला कर्म - ये दोनों कर्मद्रव्य कषाय हैं। कपाय भाव का उदय होने पर शरीर में होने वाले परिवर्तन : जैसे क्रोधावस्था में मुख तमतमाना, आँखें लाल होना, भृकुटि तनना, नथूने फूलना, होंठ फड़फड़ाना, मान-कषाय में खिलखिलाकर हँसना, इतराना आदि क्रियाएँ सहज होती हैं, ये नो कर्मद्रव्य कषाय हैं। कसायपाहुडसूत्र में सर्ज और शरीष नामक वृक्षों के कसैले रस को द्रव्य कषाय कहा है। १३ विशेषावश्यक भाष्यकार ने द्रव्य कषाय की परिभाषा देते हुए द्रव्यनिक्षेप के स्वरूप को ध्यान में रखा है; किन्तु कषायपाहुड चूर्णिसूत्र में द्रव्य का अर्थ पदार्थ करते हुए व्याख्या की गई है। ४. उत्पत्ति कषाय- विशेषावश्यक भाष्यानुसार" - जिस द्रव्य अथवा जिस क्षेत्र, काल आदि से कषाय की उत्पत्ति (उदय) होती है; वह द्रव्य अथवा क्षेत्रादि ही उत्पत्ति कषाय है। उदाहरणार्थ, पाँव में काँटा चुभने पर काँटे के प्रति क्रोध आया। क्षेत्र की परिस्थिति के अनुसार भी कषाय भाव उत्पन्न होते हैं- जैसे गर्म प्रदेश में शीतल पेय प्राप्त होने पर राग, शीत प्रदेश में उष्ण पदार्थ मिलने पर प्रसन्नता, दलदली रास्ता होने पर भय, कंटकाकीर्ण पथ में क्षुब्धता, सुन्दर उद्यान-दर्शन में लुब्धता प्रकट होती है। कालानुसार भाव बनते हैं, रात्रि में विश्राम का लोभ, चाँदनी रात में भ्रमण की लालसा उत्पन्न हो जाती है। इन काषायिक वृत्तियों के उदय में निमित्तभूत पदार्थ, क्षेत्र अथवा कालादि उत्पत्ति कषाय हैं। सामान्य मानस निमित्ताधीन होता है। निमित्तानुसार वृत्तियाँ उभरती हैं। वीतरागी अकषायी आत्मा की समता भयंकर उपसर्गों/परीषहों में भी अखण्डित रहती है, किन्तु कषाय संस्कारग्रस्त व्यक्ति में सामान्य-सामान्य निमित्तों, छोटीछोटी बातों में कषायोत्पत्ति हो जाती है। कषायोत्पत्ति में निमित्त रूप आठ विकल्प कसायपाहुड चूर्णिसूत्र में बताए हैं-१५ १३. दव्वकसाओ जहा सज्जकसाओ सिरिसकसाओ (क.पा./चू.सू./अ.१/सा.१३-१४/सू. ४४) १४ खेत्ताइ समुघत्ती जप्तोधमवो कसायाणं ... (विशेषा./ गा. २९८२) १५. एवं जं पडुच्च कोहो समुप्पज्जदि... (क. पा.) चू. सू. / अ. १ / गा. १३-१४ / सू. ५७) Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय: एक तुलनात्मक अध्ययन २ ( क ) एक व्यक्ति कषाय, ( ख ) एक वस्तु कषाय, ( ग ) अनेक व्यक्ति कषाय, (घ) अनेक वस्तु कषाय, (च) एक व्यक्ति और एक वस्तु कषाय, (छ) अनेक व्यक्ति और एक वस्तु कषाय, (ज) एक व्यक्ति और अनेक वस्तु कषाय, ( झ ) अनेक व्यक्ति और अनेक वस्तु कषाय । इन आठ विकल्पों को हम उदाहरणों के माध्यम से स्पष्ट करेंगे। ( ५ ) प्रत्यय कषाय - कषाय- उत्पत्ति में दो कारण होते हैं - बाह्य व अन्तरंग । बाह्य निमित्त वस्तु, व्यक्ति, क्षेत्र, काल, घटना, परिस्थिति आदि होते हैं तथा अन्तरंग निमित्त मोहनीय कर्म का उदय है 1 विशेषावश्यक " एवं कसायपाहुड" में अन्तरंग निमित्त रूप मोहनीय कर्म को प्रत्यय - कषाय कहा गया है। उत्पत्ति-कषाय और प्रत्यय - कषाय में अन्तर - सामान्य दृष्टि से दोनों में अन्तर प्रतीत नहीं होता; किन्तु सूक्ष्मतया दोनों भिन्न हैं। उत्पत्ति - काय बाह्य कारणभूत व्यक्ति और वस्तुओं को कषाय- उत्पत्ति में कारण मानता है तथा प्रत्यय-काय अन्तरंग कारणरूप कर्म को कषाय - उत्पत्ति का निमित्त मानता है। (६) आदेश- कषाय - 'विशेषावश्यक'"" के अनुसार - अन्तरंग में क्रोधादि भाव न होने पर भी क्रोधी, अभिमानी आदि का अभिनय करना, आदेश- कषाय है । जैसे - मन में क्रोध न होने पर भी कभी-कभी माता कठोर शब्द बोल कर उदण्ड बच्चे को शान्त बिठा देती है। एक सर्प को संन्यासी ने शिक्षा देते हुए कहा, 'तुम किसी को डँसना मत, लेकिन यदि कोई तुम्हें छेड़े तो फुफकार से डरा देना।' यह आदेश - कषाय है । 'कसायपाहुड' में चित्रलिखित रोषयुक्त, भृकुटि चढ़ाए हुए व्यक्ति की आकृति को आदेश-कषाय कहा गया है। यह परिभाषा स्थापना - कषाय के समान होने से उपयुक्त प्रतीत नहीं होती । (७) रस- कषाय - कसैले रसवाला द्रव्य रस- कषाय कहलाता है, जैसे हरीतकी, सर्ज आदि वनस्पति । २० १६. होइ कसायाणं बंधकारणं... (विशेषा. / गा. २९८३ ) १७. पच्चयकसाओ णाम... ( क. चू. / अ. १ / गा. १३-१४ / सू. ४५ ) १८. आएसओ कसाओ (विशेषा. / गा. २९८४ ) १९. आदेश कसाएण जहा चित्रकम्मे लिहि दो कोहो ... ( क. चू. / अ. १ / गा. १३-१४ / सू. ५९ ) २०. रसकसाओ नाम कसायरसं दव्वं (क. चू. / अ. १ / गा. १३-१४ / सू. ६५ ) *** Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय का स्वरूप (८) भाव-कषाय- क्रोध, मान, माया, लोभ इत्यादि मनोविकार भावकषाय कहलाते हैं। इन्हें छह अनुयोगद्वारों में नयों के माध्यम से स्पष्ट किया गया है। छह अनुयोगद्वारों में नयों की अपेक्षा भाव-कषाय भाव-कषाय छह अनुयोगद्वार निम्नोक्त हैं-२१ (अ) निर्देश (ब) स्वामित्व (स) साधन (द) अधिकरण (प) काल (फ) भेद। _ निर्देश (कषाय क्या है? )-नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र नयों की अपेक्षा कषाय करने वाली आत्मा ही कषाय है२२; क्योंकि कषाय-उत्पत्ति में कारण कोई भी बने पर उपादान-रूप स्वयं अशुद्ध आत्मा है। __ शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत नयों की अपेक्षा क्रोध, मान, माया, लोभ के भाव-कषाय हैं। स्वामित्व (कषाय का स्वामी कौन? )-नैगम आदि चार नयों की अपेक्षाकषाय का स्वामी आत्मा है, शब्द नय आदि तीन नय कषाय का स्वामी कषाय को मानते हैं। साधन (कषाय का कारण क्या है? )- नैगम आदि चार नयों की अपेक्षा कषाय का कारण है - अन्तरंग में चारित्रमोहनीय-कर्म का उदय एवं बाह्य में अनिष्ट वचन, प्रतिकूल भोजन इत्यादि। शब्द नय आदि तीन नयों की अपेक्षा जीव का अशुद्ध परिणमन कषाय का कारण है। ___अधिकरण (कषाय किसमें उत्पन्न होता है? )- नैगम आदि चार नयों की अपेक्षा प्रतिकूलता अथवा अनुकूलता रूप बाह्य कारणों से कषाय उत्पन्न होता है, अतः बाह्य सामग्री कषाय का आधार है। शब्द आदि तीन नयों की दृष्टि से कर्मयुक्त आत्मा कषाय का आधार है। काल (कषाय का समय)- अभव्य जीव की अपेक्षा अनादि-अनन्त काल कषाय रहता है। अनादि से था तथा अनन्तकाल तक रहेगा। क्षपक श्रेणी आरूढ़ साधकों का कषाय अनादि सान्त है। अनादिकाल से कषाय था; किन्तु श्रेणी पूर्णता पर कषाय क्षय होता है। उपशम श्रेणीच्युत साधक का कषाय सादि-सान्त होता है। ग्यारहवें गुणस्थान में कषायोदय नहीं होता; किन्तु श्रेणी अवरोह में पुनः उदय होता है। २१. क. चू. / अ. १ / गा. १३-१४/ सू. ७२ से ७९ २२. वही। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन चतुर्गति में कषाय-चतुष्क की काल तरतमता प्रत्येक संसारी आत्मा कषायसहित होती है। एक समय में एक कषाय का उदय रहता है, अन्य तीन कषायें उस समय सत्ता में स्थित रहती हैं। प्रत्येक कषाय अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक उदय रह सकती है ; उसके पश्चात् भाव-परिवर्तन अवश्य हो जाता है। २३ __ आगम-साहित्य में गति की अपेक्षा कषाय की तीव्रता के विषय में प्रतिपादन है (१) देवगति में लोभ की अधिकता, (२) मनुष्यगति में मान की बहुलता, (३) तिर्यंचगति में माया की प्रमुखता; तथा (४) नरकगति में क्रोध की तीव्रता होती है। देवगति में भोगों की बहुलता, यौवन की मादकता, पुण्य की प्रखरता के कारण अनुकूलता बनी रहती है; अतः भोगेच्छा रूप लोभ-भाव का उदय अधिक रहता है। मान, माया एवं क्रोध की अल्पता रहती है। मनुष्य सम्मान-प्रिय होता है। यश, प्रतिष्ठा के लिए परिश्रम से कमाए धन का लोभ त्याग कर देता है। अपयश की संभावना में आत्मघात कर लेता है। शक्ति के मद में व्यक्ति स्वयं को महत्त्वपूर्ण समझता है और अन्य से महत्त्व पाना चाहता है। अपमानित होकर सुस्वादु व्यंजन की अपेक्षा वह ससम्मान प्राप्त सादा भोजन को अधिक पसन्द करता है। यद्यपि लोभ, माया एवं क्रोध कषाय सभी का उदय होता रहता है; किन्तु मान का उदय विशेष रहता है। तिर्यंच गति में माया-कषाय विशेष होती है। माया तिर्यंच गति के बन्ध का कारण है। पशु-पक्षियों के जीवन में क्षुधा-पूर्ति के लिए माया विशेष दिखाई देती है। बगुला मछली पकड़ने के लिए स्थिर खड़ा रहता है। बिल्ली दूध पीने का अवसर ताकती रहती है और मौका पा कर रसोईघर में घुस जाती है। माया के साथ-साथ लोभ, मान एवं क्रोध का भी उदय होता है। नरक गति में क्षेत्रजन्य वेदना, परमाधामी देवों द्वारा प्रदत्त वेदना, क्षुधा तुषा, रोगादि की भयंकर पीड़ा तथा अवधिज्ञान विभंगज्ञान से अपने पूर्वजन्म के शत्रुओं को पहचानकर द्वेष भावना से क्रोधाग्नि विशेष प्रज्ज्वलित रहती है। लोभ, मान एवं माया कषाय की अल्पता रहती है। छह अनुयोगद्वारों में अन्तिम द्वार कषाय के भेदों का विवेचन अगले अध्याय में होगा। २३. क. चू. / अ. २ / गा. २५ / सू. ३४-३५ का विशेषार्थ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय कषाय के भेद - क्रोध राग । लोभ मान माया _ 'प्रशमरति' ग्रन्थ में राग एवं द्वेष कषाय के दो भेद बताए हैं' ; किन्तु 'स्थानांगसूत्र' में राग-द्वेष की उत्पत्ति आसक्ति से बताई गई है। राग-द्वेष शब्दों का प्रयोग आगम साहित्य, आध्यात्मिक एवं दार्शनिक साहित्य में भी दिखाई देता है। ___ अनुकूल, इष्ट और प्रिय पदार्थों के संयोग से राग की उत्पत्ति होती है। जिस समय जो संयोग इष्ट प्रतीत होता है, उस समय उस संयोग के प्रति रागभाव उदित होता है, वही संयोग यदि किसी समय अनिष्ट प्रतीत होने लगे तो उसी के प्रति द्वेष-भाव आने लगता है। राग-भाव में तरतमता आती है तो राग के पात्रों में परिवर्तन होता है। इसीलिए राग के अनेक रूप होते हैं- 'प्रशमरति' में राग के आठ पर्याय वर्णित हैं : १. इच्छा-इष्ट संयोग की चाहना। २. काम-प्रिय-मिलन की विशेष भावना। १. प्रशमरति/ गा. ३१ २. दुविहा मुच्छा पन्नता... (ठाणं/ स्थान २/सूत्र ४३२ ३. इच्छामूर्छाकामः .... (प्रशमरति/ गा. १८) Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन ३. अभिलाषा-इच्छित संयोग की तीव्रतम कामना। ४. अभिनन्द-मनोवांछित पूर्ण होने पर अति हर्ष। । ५. स्नेह-व्यक्ति विशेष के प्रति अनुराग। ६. ममत्व-वस्तु या व्यक्ति के प्रति स्वामित्व। ७. गृद्धता-प्राप्त विषयों में सघन लिप्सा। ८. मूर्छा-मन पसन्द विषयों में गहन आसक्ति। Sunny जैसे एक ही रंग में हल्के गहरे रूप कई छवियाँ संभव हैं, ठीक वैसे ही राग-भाव में भी राग की अनेक छवियाँ (रंगतें) हैं। मुख्यतः वे दो प्रकार की हैं- (१) अशुभ-राग; और (२) शुभ-राग।" __ अशुभ-राग (अशुभोपयोग)-इन्द्रिय-विषय तथा क्रोधादिक कषायों में तल्लीनता, सुख-सुविधा के साधनों में, सत्ता सम्पत्ति सौन्दर्य के प्रसाधनों में रमणता, काया, कामिनी, कुटुम्ब में मुग्धता इत्यादि ये अशुभ-राग की ही परिणतियाँ हैं।" अशुभ-राग पाप बन्ध का कारण है, अतः सर्वथा त्याज्य है। यथासंभव अशुभ-राग से बचना श्रेयस्कर है। शुभ-राग (शुभोपयोग)-शुद्धता के प्रति अनुराग, शुद्धात्म प्राप्ति हेतु त्याग, तप, सेवा, व्रतपालन, प्रभु-पूजन आदि शुभ क्रियाओं के प्रति रुचि शुभराग है।' इन्द्रिय-विषयों से पराङ्मुख होकर मन जब-जब शुभ प्रवृत्तियों में तल्लीन बनता है, तब-तब पुण्य-बन्ध होता है। वृत्ति एवं प्रवृत्ति- दोनों की शुभता में पुण्यानुबन्धी पुण्य का बन्ध होता है। यह बन्ध हेय नहीं उपादेय है, यह सोने की बेड़ी नहीं मोक्ष की सीढ़ी है। राग-भाव जब प्रभु परमात्मा में निष्काम रूप से केन्द्रित होता है; तो भक्ति कहलाता है। इसे प्रशस्त-राग भी कहा है। इस तथ्य से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता कि अशुभ (इन्द्रिय विषय, व्यसनादि) में रहने की अपेक्षा शुभ (प्रभु भक्ति, सेवा, ज्ञानार्जन आदि) में रहना श्रेयस्कर है। शुद्ध की अपेक्षा शुभ एवं अशुभ दोनों हेय हैं। द्वेष-प्रीति का अभाव एवं अप्रिय व्यक्ति, स्थिति या वस्तु के प्रति अन्तरंग में आक्रोश का नाम द्वेष है। - ४. प्रवचनसार/ गा. ६६-६९ ५. विसयकसाओगाढ़ो (प्रवचनसार/गा. ६६) ६. देवदजदिगुरुपूजासु (प्रवचनसार/गा. ६९) ७. समयसार अधि. ३/गा. १४६ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय के भेद 'प्रशमरति' में द्वेष के आठ भेद बताए हैं - १. दोष-चित्तवृत्ति का दूषित होना। २. असूया-अन्य के गुणों को सहन न करना। ३. प्रचण्डन-दुस्सह क्रोध। ४. मत्सर-द्वेष के कारण यथार्थ को स्वीकार न करना, अन्य की योग्यता को यथोचित सम्मान नीच देना। ५. परिवाद-दूसरों के दोष देखना व बताना। सामान्यतः इस वृत्ति को निन्दा कहते हैं। निन्दा में अपनी शक्तियों के प्रति अहंकार एवं दूसरों के प्रति तिरस्कार की भावना होती है। ६. रोष-जब अभिमान को ठेस लगती है, तब रोष का जन्म होता है। रोष क्रोध का रूपान्तरण है। ७. ईर्ष्या-किसी की सम्पत्ति, सम्मान तथा सुविधा को देख जलना तथा उनके नाश हेतु दुर्भावना रखना। ईर्ष्यालु, जो उसके पास नहीं है उससे उतना दुःखी नहीं होता; बल्कि वह इसलिए दुःखी होता है कि दूसरों के पास वह सब क्यों है? आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ईर्ष्या का विवेचन किया है -ईर्ष्या में कई भावों का मिश्रण होता है। ईर्ष्या एक संकर भाव है, जिसकी सम्प्राप्ति आलस्य, अभिमान और नैराश्य के योग से होती है। जब दो बच्चे किसी खिलौने के लिए झगड़ते हैं, तब कभी-कभी ऐसा देखा जाता है कि एक बच्चा उस खिलौने को लेकर तोड़ देता है, जिससे वह किसी के काम नहीं आता। इससे अनुमान होता है कि उस लड़के के मन में यह भाव होता है कि चाहे यह खिलौना मुझे मिले या न मिले किन्तु दूसरे को भी न मिले। इस प्रकार ईर्ष्या द्वेष का ही एक रूप है। ईर्ष्या में मान एवं क्रोध दोनों की युति (समन्वय) है। उदाहरण प्राप्त होता है कि रथमर्दन नगर के राजकुमार कनकरथ ने कावेरी नगर की राजकुमारी रुक्मिणी से विवाह हेतु प्रयाण किया। जंगल में नैसर्गिक सौन्दर्यशालिनी ऋषिदत्ता से भेंट होने पर मुग्ध हो कर विवाह-बंधन में बँध गया। रुक्मिणी को कुमार के लौटने का समाचार सम्प्राप्त हुआ। क्रोध से शरीर काँपने लगा- ईर्ष्या से तन-बदन में ज्वाला दहकने लगी। एक षड्यन्त्र रचा। विद्यासिद्ध योगिनी को धन से वश करके रथमर्दन नगर भेज दिया। ८. प्रशमरति गा. १९ ९. चिन्तामणि/ भाग-२/पृ. १०७ १०. नैन बहे दिन रैन आचार्य भद्रगुप्त सूरीश्वर Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन इधर नगर में हाहाकार मच गया। प्रतिदिन एक नरहत्या। आश्चर्य युवराज्ञी ऋषिदत्ता के आसपास प्रतिदिन माँस के टुकड़े और चेहरे पर खून के दाग। योगिनी ने राजा हेमरथ को भ्रमित कर दिया- यह तुम्हारी पुत्रवधू, कुलीन नारी के वेश में राक्षसी है। ऋषिदत्ता को शूली का दंड प्राप्त हुआ; पर चाण्डाल की दया से भागने का मौका मिल गया। पुनः रुक्मिणी से विवाह का प्रस्ताव आने पर कुमार को बारात ले कर जाना पड़ा। प्रथम रात्रि- रुक्मिणी ने मुस्करा कर पूछा- नाथ! वह ऋषिदत्ता ऐसी कैसी सुन्दरी थी कि आप बारात ले कर आते-आते पुनः लौट गए। कुमार की आँखों में नमी छा गई- 'रुक्मिणी! वह अनिंद्य सुन्दरी ही नहीं भोली-भाली, मृदु स्वभावी, गुणों से दूसरों के हृदय पर साम्राज्य स्थापित करने में निपुण रमणी थी।' रुक्मिणी विद्रूपता से हँस पड़ी- 'स्वामिन्! आप भले कितने भी गुण गाएँ; पर मैंने अपने मार्ग का कण्टक साफ कर दिया है। उस योगिनी को भेजने वाली मैं ही थी!' धक् रह गया राजकुमार! 'अहो! तुमने ईर्ष्यावश एक निरपराध को मृत्यु की वेदी पर चढ़ा दिया। अब मैं भी अग्नि-स्नान करके मृत्यु-वरण करता हूँ।' ईर्ष्या ने कितने घरों को बरबाद किया है। झूठा कलंक लगाना, कलह करना, द्वेष आदि ईर्ष्या की ही प्रतिध्वनियाँ हैं। ८. वैर- अन्तरंग में क्रोध का स्थायित्व लेना वैर है। रामचन्द्र शुक्ल ने वैर मनोवृत्ति का चित्रण किया है। ११ 'क्रोध सब्जी है, वैर अचार-मुरब्बा है।' जैसे सब्जी बनने के बाद उसी दिन उसका उपयोग कर बर्तन साफ कर दिया जाता है, वैसे ही क्रोध आता है, मनोमस्तिष्क पर छा जाता है, व्यक्ति गरजता है, बरसता है और शान्त हो जाता है। अचार/मुरब्बे के उपयोग का समय लम्बा होता है। काँच की बरनी में भरा मुरब्बा समय-समय परं निकाला जाता है और स्वाद लिया जाता है। वैसे ही वैर बँधने के बाद उस प्रसंग, शब्द, घटना की स्मृति मनोमस्तिष्क की परतों में गहरे तक पैठ जाती है और समय-समय पर निमित्त प्रसंग मिलने पर वह शब्द, वह घटना चलचित्र की भाँति स्मृति-पटल पर उभरने लगती है। व्यक्ति उस अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए तड़पने लगता है। यह प्रतिशोध भावना- वैर परम्परा विवेक न आने पर जन्मजन्मान्तर चलती रहती है। ११. चिन्तामणिभाग-२/ पृ. १३८ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय के भेद पार्श्वनाथ प्रभु एवं कमठ का प्रसंग प्राप्त होता है। पार्श्वनाथ प्रभु के प्रति कमठ का वैर दस भव तक चलता रहा। १२ । पोतनपुर नगर के राजा अरविन्द थे। राज पुरोहित कमठ लघुभ्राता मरुभूति की पत्नी वसुन्धरा का रूप-लुब्ध बन व्यभिचारी बन गया। ज्ञात होने पर मरुभूति ने राजा से शिकायत की। कमठ को देश-निकाला दण्ड मिला। क्रुद्ध कमठ ने तापस-वेश ग्रहण किया। नगर के बाहर धूनी रमा कर बैठ गया। तपस्वी रूप में विख्यात कमठ को श्रद्धा से नमन करने हेतु मरुभूति अतीत को विस्मृत करके चला आया। कमठ ने पाँवों में झुकते ही मरुभूति के सिर पर शिलाखण्ड से प्रहार किया। मरुभूति तड़प-तड़प कर मरण-शरण हो गया। __ यह वृतान्त ज्ञात होने पर राजा अरविन्द सांसारिक सम्बन्धों की स्वार्थपरता समझ वैराग्य-वासित हो गए। श्रमण जीवन अंगीकार किया। अवधिज्ञान प्राप्त हुआ। मरुभूति को हाथी रूप में देख उपदेश दिया। मरुभूति समता-साधना में स्थित हआ। कमठ की वैराग्नि प्रज्ज्वलित रही- अतः निरन्तर दस भव/जीवन तक वह मरुभूति के जीव को देखने मात्र से क्रोधित होता रहा तथा उन्हें मृत्यु के मुख में पहुँचाता रहा। दस भव निम्नोक्त हुए.. मरुभूति (पार्श्वनाथ) कमठ मारने का साधन १. मरुभूति पत्थर २. सुजातोरु हाथी कुक्कुट सर्प ३. सहस्रार (८वाँ) देवलोक नरक (५वाँ) ४. किरणवेग राजर्षि सर्प अच्युत (१२वाँ) देवलोक नरक (५वाँ) ६. वज्रनाभ राजर्षि भील बाण ७. ग्रैवेयक देव नरक (७वाँ) ८. सुवर्णबाहु चक्रवर्ती (मुनि) सिंह आक्रमण प्राणत (१०वाँ) देवलोक १०. पार्श्वकुमार तापस मर कर नासाग्र जल मेघमाली बरसाने रूप उपसर्ग __ मरुभूति समता में स्थित रहते हुए पार्श्वनाथ तीर्थंकर हुए; किन्तु कमठ का वैर भाव दस भव तक चलता रहा। १२. श्री कल्पसूत्र/ भद्रबाहु स्वामी रचित कमठ दंश दश नरक Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन राग-द्वेष एवं क्रोधादि कषाय अपने स्वरूप का अज्ञान, स्वयं की शरीर रूप मान्यता की भूल ही संसार की जड़ है। शरीर को 'मैं' रूप मान कर जीव परिवार, सम्बन्धी आदि के प्रति 'मेरा' भाव बना लेता है। व्यक्ति जगत के साथ-साथ वस्तु-जगत के प्रति अधिकार स्थापित करता है। इष्ट, मनोनुकूल, वांछित संयोगों को प्राप्त कर अभिमान करता है। प्राप्त में प्रसन्नता राग भाव है, अत: मान राग का एक रूप है। यह अज्ञानी जीव अपने आपको सर्वश्रेष्ठ, विलक्षण दिखाने हेतु अनेकविध कपटाचरण करता है। मायावी रूप से अन्य को छल कर हर्षित होता है, अत: माया राग स्वरूप है। परमात्म-तुल्य यह आत्मा, जो अनन्त शक्तियों का भंडार है; किन्तु स्वयं की शक्तियों से अनभिज्ञ बन कर भौतिक-सम्पदा की कामना करता है। सांसारिक सुखों की चाहना, संग्रह में आसक्ति होने के कारण लोभ राग की एक परिणति है। अपनी मानी हुई प्रतिष्ठा को धक्का लगने पर, छल-कपट प्रकट होने पर अथवा स्वार्थ को ठेस लगने पर क्रोधोत्पत्ति होती है, वह क्रोध द्वेष-रूप है। आचारांग में विषय को संसार कहा गया है। पाँच इन्द्रियों के विषय कषायों के उत्पत्ति स्थान हैं। विषयों के कारण आत्मा अशुभ भाव परिणमन करता है। विषय सामग्री के आधार पर अभिमान, उसे प्राप्त करने के लिए माया, उसी को पाने की चाहना रूप लोभ तथा विषय-प्राप्ति न होने पर क्रोध करता है। नय-दृष्टि से राग-द्वेष में क्रोधादि कषायों का अन्तर्भाव निम्न प्रकारेण है नैगम एवं संग्रह नय-इन दोनों नयों की अपेक्षा क्रोध-मान द्वेष-रूप तथा माया-लोभ राग-रूप हैं। १३ क्रोध-परिताप देता है, वैर को जन्म देता है, दुर्गति में ले जाता है, अनर्थ की जड़ है, अतः द्वेष-रूप है। ___ मान-अभिमानी अपने मदोन्मत्त व्यवहार के कारण दूसरों को अपना शत्रु बना लेता है, अतः द्वेष-रूप है। १३. विशेषा./गा. २९६९ १४. प्रशमरति/ गा. २६ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय के भेद माया-कार्यसिद्धि के लिए होती है तथा कार्यसिद्धि होने पर प्रसन्नता होती है, अतः राग-रूप है। लोभ-इसके मूल में सुख की कामना छिपी होती है। मनोवांछित पदार्थ को पा कर सुखानुभव होता है, अत: राग-रूप है। व्यवहार नय-विशेषावश्यकभाष्य" एवं कसायपाहुड' में व्यवहार नय की अपेक्षा क्रोध, मान और माया को द्वेष-रूप एवं लोभ को राग-रूप बताया गया क्रोधी एवं मानी तो जगत में हेय दृष्टि से देखे ही जाते हैं; किन्तु माया प्रकट होने पर मायावी को भी सभी सन्देह, अविश्वास एवं घृणा की दृष्टि से देखते हैं। फलस्वरूप मायावी का चित्त अशान्ति एवं दुःख का अनुभव करता है, अत: व्यवहार नयापेक्षा माया द्वेष-रूप है। व्यवहार नयापेक्षा लोभ राग-रूप है, क्योंकि परिवार-पालन एवं जीवननिर्वाह के लिए धन-संग्रह की आवश्यकता है। अतः पदार्थों की लालसा से धनसंग्रह में तत्परता/परिश्रम को जगत् में अनुचित नहीं माना गया है। ऋजुसूत्र नय-विशेषावश्यकभाष्य में ऋजुसूत्र नयापेक्षा क्रोध द्वेष-रूप है तथा मान, माया, लोभ प्रसंगानुसार कभी राग-रूप, कभी द्वेष-रूप होते हैं, क्योंकि प्रस्तुत नय वर्तमानग्राही है। जब परगुणों में अप्रीति हो, अन्यों के प्रति तिरस्कार हो- तब मान द्वेषरूप है तथा स्वयं के गुणों में प्रसन्नता हो, तो वह मान राग-रूप है। परोपघात करने पर माया एवं लोभ द्वेष-रूप हैं, स्वशरीर, स्वजन, स्वधन हेतु माया-लोभ राग-रूप हैं। कसायपाहुड में लोभ को ऋजुसूत्र नयापेक्षा पूर्णतः राग-रूप बताया गया शब्द नय-विशेषावश्यकभाष्य में शब्दादि तीन नयों की अपेक्षा मान, माया को लोभ में अन्तर्भूत किया गया है। जब ये स्व-उपकार से सम्बन्धित होते हैं तब राग-रूप ; किन्तु जब ये परघाती होते हैं, तब ये द्वेष-रूप होते हैं। १५. विशेषा./ गा. २९७० १६. क. चू./ अ. १/गा. २१/सूत्र ८९ १७. विशेषा. गा. २९७१ से २९७४ १८. क. चू./ अ. १/गा. २१/सू. ९० १९. विशेषा. गा. २९७५ मे २९७७ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन __ कसायपाहुड में शब्दादि नयापेक्षा चारों कषाय को द्वेष-रूप बताया गया है क्योंकि ये संसार परिभ्रमण के कारण हैं। मात्र लोभ किंचित् राग, किंचित् द्वेष- रूप है। जब धर्म-साधना का लोभ हो तब वह राग-रूप है; क्योंकि वह उज्ज्वल भविष्य निर्माता है, किन्तु सांसारिक विषयों का लोभ, द्वेष-रूप है; क्योंकि वह भव-भ्रमण का कारण है। उपर्युक्त विवेचन के आधार पर राग-द्वेष कषाय के भेद निरूपित किए गए हैं। किन्तु समयसार में राग-द्वेष एवं कषाय – दोनों में अन्तर किया गया है। ___ 'समयसार'२१ में राग-द्वेष को चिदाभास अर्थात् चैतन्य का विकार कहा गया है- उसका आधार आसक्ति है तथा कषाय को कर्म का कारण होने के कारण पुद्गल परिणाम बताया गया है। कषाय की उत्पत्ति मोहनीय-कर्म से होने के कारण वह पुद्गल का विकार है। यह अपेक्षात्मक एक कथन है। निष्कर्षतः आसक्ति मूल है, राग-द्वेष शाखाएँ तथा कषाय उपशाखाएँ हैं। प्रशमरति ग्रन्थानुसार कषाय के दो भेद राग एवं द्वेष हैं; किन्तु सामान्यतः कषाय के चार भेद बताये गये हैं। समवायांगसूत्र,२२ विशेषावश्यकभाष्य२३ आदि में कषाय के चार प्रकार निम्नलिखित हैं१. क्रोध, २. मान, ३. माया; और ४. लोभ। (१) क्रोध क्रोध एक ऐसा मनोविकार है, जिसके उत्पन्न होने पर शारीरिक, मानसिक सन्तुलन बिगड़ जाता है। शरीर में अनेक परिवर्तन होते हैं, जैसे- चेहरे का तमतमाना, आँखें लाल होना, भृकुटि चढ़ाना, होंठ फड़फड़ाना, नथुने फूलना, जिह्वा लड़खड़ाना, वाक्य व्यवस्था स्खलित होना, शरीर असन्तुलित होना इत्यादि। योगशास्त्र" में आचार्य हेमचन्द्र ने क्रोध का २०. क. चू./ अ. १/ गा. २१/ सू. ९१ २१. समयसार/ गा. १६४-१६५ की तात्पर्यवृत्ति २२. समवाओ| समवाय ४/ सूत्र-१ २३. विशेषा./ गा. २९८५ २४. योगशास्त्र/ प्रकाश ४/ गा. ९ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय के भेद १५ स्वरूप वर्णित किया है- क्रोध शरीर और मन को सन्ताप देता है, क्रोध वैर का कारण है, क्रोध दुर्गति की पगडण्डी है, क्रोध मोक्ष सुख में अर्गला के समान है। क्रोध की भयंकरता उपमाओं के माध्यम से धर्मामृत (अनगार) २५ में बताई गयी है- क्रोध कोई एक अपूर्व अग्नि है; क्योंकि अग्नि तो मात्र देह को जलाती है, पर क्रोध शरीर और मन दोनों को जलाता है। क्रोध कोई एक अपूर्व अन्धकार है; क्योंकि अन्धकार मात्र बाह्य पदार्थों को देखने में बाधक है, किन्तु क्रोध तो बाह्य और विवेक दोनों चक्षुओं को बन्द कर देता है। क्रोध कोई एक अपूर्व ग्रह या भूत है; क्योकि भूत तो एक जन्म में अनिष्ट करता है; लेकिन क्रोध जन्म-जन्मान्तर में अनिष्ट करता है। क्रोध से हानि बताते हुए, उसके अनिष्ट परिणाम ज्ञानार्णव' में इस प्रकार वर्णित किए गए हैं- क्रोध में सर्वप्रथम स्वयं का चित्त अशान्त होता है, भावों में कलुषता छा जाती है, विवेक-दीपक बुझ जाता है। क्रोधी दूसरे को अशान्त कर पाए या नहीं, पर स्वयं तो झुलसता ही है; जैसे दिया-सलाई दूसरे को जलाए या नहीं, स्वयं तो जल ही जाती है। क्रोध मनोविकार से सम्बन्धित वर्णन जैन-शास्त्रों में तो यत्र-तत्र-सर्वत्र दिखाई देता ही है; किन्तु जैनेतर ग्रन्थों में भी क्रोध कषाय से सम्बन्धित विवेचन बहुतायत रूप में प्राप्त होता है। गीता में श्रीकृष्ण ने काम, क्रोध तथा लोभ को आत्मा के मूल स्वभाव का नाश करने वाला नरक का द्वार बताया है। क्रोध-वृत्ति से होने वाली हानि की चर्चा करते हुए कहा गया है२८– क्रोध से मूढ़ता उत्पन्न होती है, मूढ़ता से स्मरण-शक्ति या सजगता नष्ट हो जाती है; स्मृति के अभाव में बुद्धि अर्थात् विवेक नष्ट हो जाता है और बुद्धि के नाश से सर्वनाश हो जाता है। आसुरी वृत्ति रूप क्रोध उत्पत्ति का कारण बताते हुए गीता में कृष्ण ने कहा है- विषयों का चिन्तन करने से विषयों में आसक्ति उत्पन्न हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की प्राप्ति की कामना पैदा होती है और उन विषयों की प्राप्ति में विघ्न उपस्थित होने पर क्रोध उत्पन्न होता है। जैनागमों में भी कषायोत्पत्ति का कारण विषय-कामना बताई गई है। २५. धर्मामृत अणगार| अ. ६/ श्लो. ४ २६. ज्ञानार्णव सर्ग १९/ गा. ६ २७. गीता/ अ. १६/ श्लो. २१ २८. गीता/ अ. २/ एलो. ६३ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन - आचारांगसूत्र में विषयों को संसार कहा है। २९ क्रोधोत्पत्ति में विषय परम्परागत कारण है। क्रोध से सम्बन्धित विवेचना के अन्तर्गत बौद्ध ग्रन्थ (अंगुत्तरनिकाय) में क्रोधी मनुष्य की उपमा सर्प से दी गई है। तथागत बुद्ध ने चार प्रकार के सर्प बताते हुए चार प्रकार के मनुष्यों का कथन किया है। सर्प के चार प्रकार(१) विषैला, किन्तु घोर विषैला नहीं। (२) घोर विषैला, विषैला नहीं। (३) विषैला, घोर विषैला। (४) न विषैला, न घोर विषैला। इसी प्रकार मनुष्य भी चार प्रकार के होते हैं(१) शीघ्र क्रोधित, किन्तु क्रोध का काल लम्बा नहीं। (२) शीघ्र क्रोधित नहीं, किन्तु आने पर बहुत देर तक क्रोध। (३) शीघ्र क्रोधित तथा क्रोध की अवधि भी लम्बी। (४) न शीघ्र क्रोधित, न ही अधिक समय तक क्रोध। इतिवृत्तक' में महात्मा बुद्ध ने भिक्षुओं को उपदेश देते हुए कहा है-जिस क्रोध से क्रोधी दुर्गति को प्राप्त होते हैं, उस क्रोध को योगी छोड़ देते हैं, अतः फिर कभी इस संसार में नहीं आते। इसलिए क्रोध को जड़ से उखाड़ कर फेंक देना चाहिए। संयुत्तनिकाय२ में दो-तीन ऐसे प्रसंग प्राप्त होते हैं, जिनमें तथागत को क्रोध करने का निमित्त प्राप्त हुआ; किन्तु उन्होंने क्रोध नहीं किया। यथाभारद्वाज गोत्रीय व्यक्ति क्रुद्ध होकर तथागत के पास आया और प्रश्न किया किसका नाश कर सुख से सोता है? किसका नाश कर शोक नहीं करता? किस एक धर्म का वध करना-हे गौतम! आपको रुचता है? तथागत बुद्ध ने प्रत्युत्तर दिया २९. आयारो अ. १/उ. ५/सू. ९३ ३०. अंगुत्तर निकाय/द्वितीय भाग/पृ. १०८-१०९ ३१. इतिवृत्तक/पहला निपात/पहला वर्ग/पृ. २ । ३२. संयुत निकाय/पहला भाग/अनु. - भिक्षु जगदीश काश्यप, भिक्षु धर्मरक्षित/ संयुत ७, पृष्ठ १२९ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय के भेद १७ क्रोध का नाश कर सुख से सोना, क्रोध का नाश कर शोकमुक्त होना, विष के मूलस्वरूप क्रोध का वध करना-हे ब्राह्मण! बड़ा अच्छा लगता है। इसी प्रकार किसी व्यक्ति द्वारा गालियाँ देने पर भी वे शान्त बने रहे और प्रश्न किया : 'भद्र! तुम किसी के पास कोई वस्तु ले जाओ और वह स्वीकार न करे, तो वह कहाँ रहेगी?' उस क्रुद्ध व्यक्ति ने झंझलाकर कहा : 'किसके पास...? अरे वह तो मेरे पास ही रहेगी!' तथागत ने बड़ी शान्ति से उत्तर दिया- 'भद्र! तुम्हारे द्वारा दी जाने वाली गाली मैं स्वीकार नहीं करता।' । तथागत बुद्ध ही नहीं समस्त महापुरुषों में क्षमा, समता, सहिष्णुता, अक्रोध स्थिति रहती ही है। भगवान् महावीर को साधनाकाल में कितने भयंकर कष्ट, बहुतेरे उपद्रव, मलिन उपसर्ग और कठोर परीषहों को सहन करने का प्रसंग बना- हर निमित्त में वे शान्त, अविचल समता में स्थित रहे। मनोविज्ञान में क्रोध को संवेग कहा गया है। संवेग उत्पन्न होने की स्थिति में अनेक शारीरिक परिवर्तन घटित होते हैं। भय, क्रोधावस्था में थाइरायड ग्लैण्ड (गलग्रन्थि) समुचित कार्य नहीं करती- जिससे स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। ३४ स्वचालित तन्त्रिका तन्त्र का अनुकम्पी तन्त्र क्रोधावेश में हृदयगति, रक्त प्रवाह तथा नाड़ी की गति बढ़ा देता है। पाचन क्रिया में विघ्न आता है, रुधिर का दबाव बढ़ता है तथा एड्रीनल ग्लैण्ड (अधिवृक्क ग्रन्थि) को उत्तेजित करता है। ३५ क्रोध के प्रदीप्त होने पर शक्ति का ह्रास होता है, ऊर्जा नष्ट होती है, बल क्षीण होता है। मनोविज्ञान की मान्यता है- तीन मिनट किया गया तीव्र क्रोध नौ घंटे कठोर परिश्रम करने जितनी शक्ति को समाप्त कर देता है। जैसे दिन भर चलने वाली हवा से घर में उतनी मिट्टी नहीं आती- जितनी धूल पाँच मिनट की आँधी में आ जाती है। वैसे ही पूरे दिन भर की भाव-दशा से इतने कर्म-परमाणु आत्मा में नहीं आते-जितने पाँच मिनट के क्रोध में आ जाते हैं। क्रोध-भाव की विभिन्न परिणतियों के अनुसार क्रोध की कई समानार्थक स्थितियाँ बताई गई हैं, जो इस प्रकार हैं- क्रोध के समानार्थक नाम-समवायांगसूत्र एवं भगवतीसूत्र" में क्रोध के दस पर्याय प्राप्त होते हैं३३. शिक्षा मनोविज्ञान/प्रो. गिरधारीलाल श्रीवास्तव पृ. १८१ ३४. शारीरिक मनोविज्ञान/ ओझा एवं भार्गव पृ. २१४ ३५. सामान्य मनोविज्ञान की रूपरेखा/ डॉ. रामनाथ शर्मा/ पृ. ४२०-४२१ ३६. तं जहा - कोहे कोवे रोसे दोसे अखमा संजलणे. (समवाओ/ समवाय ५२/ सू. १) ३७. भगवतीसूत्र/ श. १२/ उ. ५/ सू. २ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन १. क्रोध २. कोप ३. रोष ४. दोष ५. अ-क्षमा ६. संज्वलन ७. कलह ८. चाण्डिक्य ९. मंडन १०. विवाद। कसायपाहुड में भी क्रोध के दस पर्याय वर्णित हैं। जिनमें 'चाण्डिक्य' एवं 'मंडन' के स्थान पर 'वृद्धि' एवं 'झंझा' पर्याय उपलब्ध हैं। १. क्रोध-क्रोधोत्पत्ति में निमित्तभूत कर्म की सामान्य संज्ञा क्रोध है। २. कोप-संस्कृत में 'कुप्' धातु से भाव अर्थ में 'घञ्' प्रत्यय जुड़ कर कोप शब्द की सिद्धि होती है। अभिधानराजेन्द्रकोष में कोप कामाग्नि से उत्पन्न होने वाली चित्तवृत्ति बताई गई है। ३९ यह प्रणय और ईर्ष्या से उत्पन्न होती है। 'साहित्य दर्पण' के अनुसार प्रेम की कुटिल गति से जो अकारण क्रुद्ध स्थिति होती है- वह कोप है। ‘भगवती वृत्ति' के अनुवादक के अनुसार क्रोध के उदय को अधिक अभिव्यक्त न करना कोप है। सामान्यतः देखने में आता है- कई व्यक्ति क्रोध आने पर वाचिक प्रतिक्रिया नहीं करते हैं; पर चेहरे की स्तब्धता/भंगिमा उनकी असामान्य स्थिति का बोध करा देती है। इसलिए बोलचाल की भाषा में कह दिया जाता है- 'क्यों मुँह फुला रखा है? अथवा इनका मुँह सूजा हुआ है।' ३. रोष-शीघ्र शान्त नहीं होने वाला क्रोध- रोष है।" रोष में मुखमुद्रा से होने वाली क्रोधाभिव्यक्ति लम्बी अवधि तक बनी रहती है। इस अवस्था में आँखों की लालिमा प्रकट करती है कि यह क्रोधावस्था में है। ४. दोष-स्वयं को अथवा दूसरे को दूषण देना।२ कई व्यक्ति क्रोध स्थिति में स्वयं पर दोष मढ़ते रहते हैं- जैसे- 'हाँ भई! हम तो झूठ बोलते हैं?' अथवा 'मैंने क्यों कहा? मुझे क्या पड़ी थी - बीच में बोलने की!' कई व्यक्ति क्रोध की तीव्रता में अपने द्वेष-पात्र पर झूठा कलंक लगा देते हैं, विपरीत बोलते हैं। वे तो सदा पक्षपात करते हैं! अपनी छोटी बहू को चुपचाप न जाने क्या-क्या देते रहते हैं! कितना सोना-चाँदी-रुपया दे चुकेहिसाब ही नहीं है।' -इस तरह की भाषा का उपयोग द्वेष रूपी क्रोधावस्था में हो जाता है। ३८. क.चू./ अ. ९/ गा. ८६ का अनुवाद ३९. अभिधानराजेन्द्रकोष/ भाग ७/ पृ. १०६ ४०. भगवतीसूत्र/ अभयदेवसूरि वृत्ति/ श. १२/ उ. ५/ सू. २ ४१. से ४२. वही। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय के भेद ५. अक्षमा-दूसरे के अपराध को सहन न करना- अक्षमा है।४३ इस स्थिति में इतनी असहिष्णुता होती है कि भूल पर तुरन्त दण्ड देने की प्रवृत्ति होती है। जैसे- बच्चे ने दूध पीकर गिलास रास्ते में रख दिया कि तुरन्त थप्पड़ चाँटा मारने वाले कई अभिभावक होते हैं। जबकि यह बात प्रेम से भी समझाई जा सकती है। ६. संज्वलन-क्रोध से बार-बार आगबबूला होना- संज्वलन है।" यहाँ 'संज्वलन' का अर्थ संज्वलन कषाय से भिन्न है। कई लोग व्यतीत हो चुके क्षणों को, बीत चुके घटना-प्रसंग को, किसी के बोले गये शब्दों को बार-बार दिमाग में दोहराते रहते हैं और क्रोध से भरते रहते हैं। ७. कलह-क्रोध में अत्यधिक अनुचित शब्दावली का प्रयोग करना। ५ इसे सामान्य रूप से वाक्युद्ध कहा जाता है। सामान्य-सामान्य प्रसंगों में अपने स्वार्थ की हानि होने पर क्रोधाविष्ट हो कर कई व्यक्ति अविवेकपूर्ण, अनर्गल, उत्तेजक शब्दों में बोलना प्रारम्भ कर देते हैं- यह कलह है। ८. चाण्डिक्य-क्रोध में रौद्ररूप धारण करना, सिर पीटना, बाल नोंचना, अंग-भंग करना, आत्म-हत्या करना चाण्डिक्य क्रोध की परिणतियाँ हैं।६ ९. मंडन-दण्ड, शस्त्र आदि से युद्ध करना मंडन है।" चाण्डिक्य में क्रोधावस्था में स्वयं को कष्ट दिया जाता है एवं मंडन में दूसरों पर प्रहार होता है। मुँहमाँगा दहेज न लाने पर क्रोध में भर कर कई बहुओं को जला दिया जाता है। लूटपाट में बाधक बनने पर कई लोगों को लुटेरे गोली का निशाना बना देते हैं। कई बार क्रोधावेश में पति, पत्नी की हत्या कर देता है। न जाने कितनी घटनाएँ संसार में घटित होती रहती हैं। १०. विवाद- परस्पर विरुद्ध वचनों का प्रयोग करना।८ पक्ष-विपक्ष में उत्तेजक वार्तालाप होना विवाद है। 'कसायपाहुड' में 'वृद्धि' एवं 'झंझा' पर्याय दिए हैं-१९ १. वृद्धि-कलह, वैर आदि की वृद्धि करने वाली प्रवृत्ति व्यवहार करनावृद्धि है। जैसे अपने विरोधी को जान बूझकर चिढ़ाना आदि! ४३. वही। ४४. से ४६. भगवतीसूत्र/ अभयदेवसूरि वृत्ति/ श. १२/ उ. ५/सू. २ ४७. से ४८. भगवतीसूत्र/ अभयदेवसूरि वृत्ति/ श. १२/ उ. ५/ सू. २ ४९. क. चू./ अ. ९/ गा. ३३ का अनुवाद Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन २. झंझा-तीव्र संक्लेश परिणाम को झंझा कहा गया है। ‘आचारांगसूत्र' में 'झंझा' शब्द का प्रयोग 'व्याकुलता' के अर्थ में हुआ है। ५० ।। साहित्यकार रामचन्द्र शुक्ल ने क्रोध के अन्य रूप बताये हैं-५१ (अ) चिड़चिड़ाहट-क्रोध का एक सामान्य रूप है- चिड़चिड़ाहट। चित्त व्यग्र होने पर, कार्य में विघ्न उपस्थित होने पर, मनोनुकूल सुविधा प्राप्त न होने पर झल्लाना, चिड़चिड़ाना- क्रोध का रूप है। (ब) अमर्ष-किसी अप्रिय स्थिति से न बच पाने पर क्षोभयुक्त, आवेगपूर्ण अनुभव अमर्ष है। ___ इसी प्रकार क्रोध के अन्य रूप दृष्टिगोचर होते हैं। कई लोग क्रोध में भोजन छोड़ देते हैं; कई क्रोध में अधिक भोजन कर लेते हैं। कई लोग क्रोधावेश में त्वरित गति से कार्य करते हैं, तो कई चुपचाप एक कोने में बैठ जाते हैं। कई क्रोध में बोलना छोड़ देते हैं, चुप्पी धारण कर लेते हैं, कई बड़बड़ाना प्रारम्भ कर देते हैं। उदाहरण प्राप्त होता है- यूनान के दार्शनिक सुकरात जितने शान्त थे, पत्नी उतनी ही कर्कशा थी। प्रतिकूल संयोग को प्रभु का उपकार मान वे शान्ति से गृहस्थी की गाड़ी चला रहे थे। ___ एक दिन मित्रों ने घर चलने का अति आग्रह किया और मना करने के उपरान्त भी साथ हो लिये। शंकित मन से, भारी कदमों से सुकरात घर आए। पत्नी को परिस्थिति से अवगत किया और जलपान भेजने का आग्रह किया। स्वयं मित्रों के मध्य आ बैठे। बातचीत प्रारम्भ हो गई। पर शीघ्र ही वार्तालाप का क्रम टूट गया; क्योंकि कमरे के भीतर से बड़बड़ाने की ध्वनि सुनाई दे रही थी। मित्र घबराए- 'भैया! यह क्या?' सुकरात मुस्कुराए- 'कुछ नहीं'। पुनः चर्चा का सूत्र जुड़ गया। इतने में पानी की बौछार हुई- सब भीग गए और चौंक कर दृष्टि उठाई! रसोईघर के द्वार पर घर की मालकिन बाल्टी लिए खड़ी थी। मेजबान मुस्कुराया- 'मित्रो! आश्चर्य जैसी क्या बात है? पहले बादल गरजते हैं और फिर बरसते हैं।' ___ क्रोध भाव एक है; किन्तु उसके रूप-स्वरूप, परिणतियाँ विभिन्न दिखाई देती हैं। ५०. आयारो/ अ. ३/उ. ३/ सू. ६९ ५१. चिन्तामणि| भाग-२/ पृ. १३९ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय के भेद क्रोध की चार अवस्थाएँ स्थानांगसूत्र तथा प्रज्ञापनासूत्र५३ में क्रोध की चार अवस्थाओं का उल्लेख १. आभोगनिर्वर्तित, २. अनाभोगनिर्वतित, ३. उपशान्त ; ४. अनुपशान्त। १. आभोगनिर्वर्तित क्रोध-वृत्तिकार श्री अभयदेवसूरि ने 'आभोग' का अर्थ ज्ञान किया है। क्रोध के दुष्परिणामों को जानते हुए भी क्रोध करनाआभोगनिर्वर्तित क्रोध है। आचार्य मलयगिरि ने इसकी व्याख्या भिन्न प्रकार से की है-५५ क्रोध न आने पर भी अपराधी को सबक देने के लिए क्रोधपूर्ण मुद्रा बनानाआभोगनिर्वर्तित क्रोध है। जैसे बच्चे को भयभीत करने के लिए माँ क्रोध का अभिनय करती है। २. अनाभोगनिर्वर्तित क्रोध-क्रोध के दुष्परिणाम से अनजान हो कर क्रोध करना- अनाभोगनिवर्तित क्रोध है। आचार्य मलयगिरि के अनुसार-५६ आदत से मजबूर हो कर लाभ-हानि का विचार किए बिना अकारण निष्प्रयोजन क्रोध करना - अनाभोगनिर्वतित है। ३. उपशान्त क्रोध- सुप्त क्रोध संस्कार उपशान्त क्रोध है। ४. अनुपशान्त क्रोध- उदय को प्राप्त क्रोध अनुपशान्त क्रोध है। क्रोधोत्पत्ति के कारण- स्थानांगसूत्र में क्रोध को चतुः प्रतिष्ठित कहा है। वे इस प्रकार हैं-५० (अ) आत्म-प्रतिष्ठित, (ब) पर-प्रतिष्ठित, (स) तदुभय-प्रतिष्ठित; (द) अप्रतिष्ठित। (अ) आत्म-प्रतिष्ठित (स्व-निमित्त)- जिस क्रोधोत्पत्ति में कारण स्वयं ही हो। जैसे हाथ से काँच का गिलास गिरा, टूट गया। अपनी लापरवाही पर मन क्षुब्ध हो गया, स्वयं को धिक्कारने लगा। . ५२. चउब्बिहे कोहे पण्णति - तं जहा आभोगणिव्वतिते, अणाभोग। (ठाणं स्थान ४/ उ.१/ सू. ८८) ५३. प्रज्ञापना/पद १४/ मलयगिरि वृत्ति/ पत्र २९१ ५४. आभोगो – ज्ञानं तेन निर्वतितो.... (स्थानांग वृत्ति/ पत्र १८२) ५५. यदा परस्यापराधं सम्यगवबुध्य .... (प्रज्ञापना/ पद १४/ मलयगिरि वृत्ति पत्र २९१) ५६. वही। ५७. चउपतिट्टिते कोहे पण्णत्ते, तं जहा- आतपतिट्टिते..... (ठाणं/स्थान ४/उ. १/ सू. ७६) Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन (ब) पर-प्रतिष्ठित (पर-निमित्त)- जब अन्य कोई क्रोधोत्पत्ति में कारणभूत हो- जैसे कर्मचारी के हाथ से घड़ी गिरने पर मालिक को क्रोध आया। (स) तदुभय-प्रतिष्ठित (उभय-निमित्त)- जिस क्रोध में कारण स्व तथा पर दोनों हों। जैसे कर्मचारी के हाथ से गिलास लेते-लेते छूट गया, गिर गया, टूट गया। कर्मचारी पर क्रोध इसलिए आया- मैंने ठीक से पकड़ा नहीं था और तुमने छोड़ दिया। अपने प्रति क्रोध इसलिए कि इतने गर्म दूध का गिलास हाथ में क्यों लेने लगा? मेज पर क्यों नहीं रखवा दिया। '' " (द) अप्रतिष्ठित-बाह्य निमित्त नहीं होने पर भी स्वयमेव चित्त क्षुब्ध होता रहता है, उद्धिग्नता-चंचलता बनी रहती है। यह स्थिति अन्तरंग में क्रोधमोहनीय-कर्म के उदय से बनती है। स्थानांगसूत्र में अन्यापेक्षा भी क्रोधोत्पत्ति के चार कारण बताए गए हैं-५८ (क) क्षेत्र-खेत, भूमि आदि के निमित्त से क्रोध करना। (ख) वस्तु-घर, दुकान, फर्नीचर आदि के कारण से क्रोध आना। (ग) शरीर-कुरूपता, रुग्णता आदि कारण से क्षुब्ध होना। (घ) उपाधि-सामान्य साधन-सामग्री निमित्त कलह करना। स्थानांगसूत्र में क्रोधोत्पत्ति के दस कारण बताये गये हैं। ५९ जो निम्नोक्त हैं १. मनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध का अपहरण करने वाले के प्रति क्रोध। २. अमनोज्ञ शब्दादि विषयों का संयोग कराने वाले के प्रति क्रोध। ३. इष्ट विषयों का अपहरण दूसरों के द्वारा कराने वाले के प्रति क्रोध। ४. अनिष्ट विषयों का संयोग दूसरों के द्वारा कराने वाले के प्रति क्रोध। ५. प्रिय संयोगों के वियोग/ अपहरण की संभावना जिसके द्वारा है- उसके प्रति क्रोध। ६. अप्रिय प्राणी/ पदार्थों की प्राप्ति की आशंका जिसके द्वारा है- उसके प्रति क्रोध। ५८. चउहि ठाणेहिं कोधुप्पती सिता – तं जहा खेतं पडुच्चा, वत्थु....।' (ठाणं/ स्थान ४/ उ. १/ सू. ८०) ५९. दसहि ठाणेहिं कोधुप्पती सिया - तं जहा - मणुण्णाई।" (ठाणं/स्थान १०/ सू. ६) Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय के भेद mr ७. अतीत, आज या अनागत में मनोनुकूल संयोगों का अपहरण जिसके द्वारा- उसके प्रति क्रोध। ८. भूत, वर्तमान या भविष्य में जिससे अमनोज्ञ संयोगों की प्राप्ति की संभावना- उसके प्रति क्रोध। ९. भूत, वर्तमान या भविष्य में मन पसन्द विषयों का अपहरण एवं नापसन्द विषयों की प्राप्ति में जो कारणभूत- उसके प्रति क्रोध। १०. आचार्य, उपाध्याय के प्रति सम्यक्/उचित व्यवहार होने पर भी उनसे प्रतिकूलता प्राप्त होने पर क्रोध। क्रोध एक कार्य है, उसके कारण हैं- मान, माया और लोभ। अभिमान को ठेस लगने पर, माया प्रकट होने पर अथवा लोभ आकांक्षा पूर्ण न होने पर क्रोध-ज्वालाएँ भभकने लगती हैं। निमित्त रूप कोई भी पदार्थ या प्राणी हो; पर मूल कारण स्वयं आत्मा की अशुद्ध परिणति है। (२) मान मान एक ऐसा मनोविकार है, जो स्वयं को उच्च एवं दूसरों को निम्न समझने से उत्पन्न होता सूत्रकृतांग में कहा गया है ६० 'अभिमानी अहं में चूर होकर दूसरों को परछाईं के समान तुच्छ मानता ज्ञानार्णव में शुभचन्द्राचार्य का कथन है - ६१ 'अभिमानी विनय का उल्लंघन करता है और स्वेच्छाचार में प्रवर्तन करता है।' योगशास्त्र में हेमचन्द्राचार्य ने मानजनित हानियाँ बताई हैं-६२ 'मान बिनय, श्रुत और सदाचार का हनन करने वाला है। धर्म, अर्थ और काम का घातक है। विवेकरूपी चक्षु को नष्ट करने वाला है। धर्मामृत (अनगार) में उपमा के माध्यम से मान के विषय में कहा गया है-६३ 'जैसे सूर्य के अस्त होने पर अन्धकार व्याप्त हो जाता है और निशाचर ६०. "अण्णं जणं पस्सति बिंबभूयं (सू. कृ. / अ. १३ / गा.८) ६१. करोत्युद्धतधीर्मानाद्विनयाचारलघनम् (ज्ञानार्णव | सर्ग १९ / गा. ५३) ६२. विनय श्रुतशीलानां त्रिवर्गस्य च घातकः (योगशास्त्र | प्र. ४ | गा. १२) ६३. धर्मामृत अनगार / अ. ६ / श्लो. १० Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन (राक्षस) भ्रमण करने लगते हैं, उसी प्रकार विवेकरूपी सूर्य जब अहंकार रूपी अस्ताचल की ओट में लुप्त हो जाता है तो मोहान्धकार व्याप्त हो जाता है। राग-द्वेष रूपी निशाचर घूमने लगते हैं, चौर्य, व्यभिचार आदि पाप कर्म पनपने लगते हैं। प्राणी दृष्टिहीन होकर स्वच्छन्दतापूर्वक उन्मार्ग में प्रवर्तने लगते हैं। मोक्षमार्ग प्रकाशक में अभिमानी का स्वरूप बताया है कि 'अभिमानी व्यक्ति स्वयं को उच्च एवं अन्य को निम्न प्रदर्शित करने की इच्छा रखता है। परिणामस्वरूप वह अन्य की निन्दा करता है, स्वप्रशंसा हेतु विवाहादि कार्यों में शक्ति उपरान्त व्यय करता है । यदि उसकी इच्छा पूर्ण न हो तो अत्यन्त सन्तप्त होता है। सन्ताप की तीव्रता में कभी-कभी विष-भक्षण, अग्नि-स्नान आदि से आत्मघात भी कर लेता है। ___ मान कषाय जीवन को गहरे पतन-गर्त में धकेलने वाली एक मनोवृत्ति है। मान अनेक रूपों में प्रकट होता है, अत: मान के समानार्थक पर्यायों का वर्णन आगमों में प्राप्त होता है। समवायांग ५ एवं भगवती सूत्रों में मान के ग्यारह पर्याय उल्लिखित हैं : (१) मान, (२) मद, (३) दर्प, (४) स्तम्भ, (५) आत्मोत्कर्ष, (६) गर्व, (७) परपरिवाद, (८) उत्कर्ष, (९) अपकर्ष, (१०) उन्नत, (११) उन्नाम। श्री अभयदेवसूरि द्वारा भगवतीसूत्र के वृत्ति-अनुवाद में इन ग्यारह पर्यायों का अर्थ-निरूपण निम्न प्रकारेण किया गया है १. मान-जिस कर्म के उदय से मान-भाव उत्पन्न होता है - वह कर्म ही मान है।६७ २. मद-शक्ति का अहंकार मद कहलाता है। समवायांगसूत्र में मद के आठ प्रकार बताये गये हैं ६..- (क) जाति-मद, (ख) कुल-मद (ग) रूप-मद (घ) बल-मद (च) श्रुत-मद (छ) तप-मद (ज) लाभ-मद (झ) ऐश्वर्य-मद। (क) जाति-मद- मूल में आत्मा की कोई जाति नहीं है। मनुष्यों में वर्णव्यवस्था (जातियाँ) कर्म के आधार पर निर्मित हुई है। ये जातियाँ चार हैं६४. मोक्षमार्ग प्रकाशक / पं. टोडरमल | पृ. ५३ ६५. माणे मदे दप्पे थंभे (समवाओ/समवाय ५२ / सूत्र १) ६६. भगवती सूत्र / श. १२ / उ. ५ / सू. ३ की वृत्ति ६७. भगवतीसूत्र | श. १२/ उ. ५ / सू. ३ की वृत्ति ६८. अट्ठ मयट्णणा पण्णत्ता, तं जहा - जातिमए, कुलमए, बलमए, रूवमए, तवमए, सुयमए, लाभमए इस्सरियमए।' (समवाओ/समवाय ८ / सू. १) Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय के भेद ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र। यद्यपि प्रत्येक कर्म यदि फलाकांक्षा रहित अनासक्ति से किया जाए तो श्रेष्ठ ही है; किन्तु मानव ने इन जातियों में उच्च और नीच की अवधारणा कर ली। उच्च कहलाने वाली जाति में जन्म लेना अहंकार का कारण बनने लगा! इसी अहंकार के वशीभूत होकर कई अज्ञानी जीवों ने हीन अवस्था को आमन्त्रण दिया। हरिकेश चाण्डाल ने पूर्वजन्म में ब्राह्मण जाति में जन्म लेकर जाति-मद से ऐसा कर्मसंचय किया कि वर्तमान भव में चाण्डाल शूद्र जाति में जन्म हुआ। किसी भी शक्ति का भेद कालान्तर में उस शक्ति से च्युत कर देता है। ६९ (ख) कुल-मद-कुल की व्यवस्था नैतिक मर्यादाओं के पालन हेतु हुई थी। कुल अपने-आप में न उच्च होता है, न नीच। पर जिस कुल में सुसंस्कार, सम्पन्नता, विशिष्टता होती है; जिस कुल में महान पुरुषों का जन्म होता हैवह कुल श्रेष्ठ कहलाता है। ऐसे कुल में जन्म मद का निमित्त बन जाता है, यदि विवेक ज्ञान न हो तो। मरीचि उस समय अहंकार से नाचने लगा, जब भरत चक्रवर्ती ने उसे वन्दन कर कहा- 'तुम भविष्य में वासुदेव, चक्रवर्ती एवं तीर्थंकर - तीनों पद के भोक्ता बनोगे।' मरीचि विचार करने लगा - मेरे दादा तीर्थंकर, मेरे पिता चक्रवर्ती और मैं श्रेष्ठातिश्रेष्ठ तीन पदवी प्राप्त करूँगा। अहो! हमारा कुल कितना उत्तम है।' इस कुलमद के परिणामस्वरूप मरीचि को महावीर के भव में निम्न कुल में देवानन्दा की कुक्षि में अवतरित होना पड़ा। ७० (ग) रूप-मद-शारीरिक वैभव मिलना अलग बात है और उस रूप की चकाचौंध में अन्धा न बनना अलग बात है। देह का लावण्य, सौन्दर्य बाह्यात्मा को मदोन्मत्त बना देता है और उस रूप की रौशनी में उसे सब सामान्य निम्न दिखाई देते हैं। सनत्कुमार चक्रवर्ती " के रूप की प्रशंसा इन्द्र ने जब सभा में की; तब दो देव रूप-परिवर्तन कर धरा पर आ पहुँचे। सनत्कुमार स्नान हेतु समुपस्थित थे कि परिचारक ने कहा, 'प्रभो! ब्राह्मण-द्वय आपके दर्शनोत्सुक हैं।' 'आने दो' का आदेश प्राप्त होते ही दो ब्राह्मणों ने आँगन में प्रवेश लिया। सनत्कुमार की ६९. उत्तराध्ययनसूत्र ७०. श्री कल्पसूत्र | महावीर प्रभु के सत्ताइस भव ७१. योगशास्त्र | हेमचन्द्राचार्य Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन रूप-माधुरी का पान करके 'वाह-वाह' बोल उठे। “राजन ! देवराज इन्द्र से जैसा श्रवण किया था, उससे कहीं अधिक है - आपका सौन्दर्य।" ब्राह्मण के इस कथन पर सनत्कुमार गर्वोन्मत्त हो उठे - ओ हो! आप हमारा सौन्दर्य निहारने आए हैं? हे विप्रो! अभी क्या देखते हो? जब वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर सभा में हमारा आगमन हो - तब इन आँखों को खुली रखना। चक्रवर्ती रूप-मद से छलछलाते जब राजसभा में प्रविष्ट हुए; तब दोनों ब्राह्मण को देख गर्व भरी हँसी हँस पड़े- 'कहो! आप मौन क्यों हैं? ब्राह्मण रूपधारी देवों के चेहरे पर म्लानता छा गई - 'राजन! अब उस सुन्दरता में दीमक लग चुकी है। आपको विश्वास न हो तो स्वर्णपात्र में थूक कर देख लीजिए - कितने कीड़े कुलबुला रहे हैं?' चक्रवर्ती देह-नश्वरता के चिन्तन में खो गए। वैराग्य पथ के पथिक बने! (घ) बल-मद-प्रत्येक मनुष्य की अपनी-अपनी शारीरिक संरचना होती है। किसी की देह सुगठित, बलिष्ठ होती है, किसी की देह निर्बल। अपने शौर्य, पराक्रम का अहंकार करना बल-मद है। इतिहास में अनेकों ऐसे उदाहरण मिलते हैं जिन्होंने अपने बल के मद में निर्दोष-निरपराधों पर कहर बरसा दिए। सम्राट अशोक २ ने कलिंग युद्ध में बस्तियों को श्मशान बना दिया था, रणक्षेत्र में लाशों के ढेर लगे थे, खून की नदियाँ बह चली थीं। अपनी विजय पर हर्षोल्लास से उन्मत्त बने सम्राट अशोक को जब भिक्षु उपगुप्त ने रणक्षेत्र का दृश्य दिखाया तो उनका हृदय पश्चात्ताप से भर उठा। आँखें नम हो गईं, सिर ग्लानि से झुक गया। अपने बल का उपयोग जनहानि नहीं, जनहित के लिए करने का संकल्प किया। (च) श्रुत-मद-आत्मा अनन्त ज्ञानादि गुणों से सम्पन्न है। प्रत्येक आत्मा में त्रिलोक एवं त्रिकालज्ञाता बनने की शक्ति छिपी है। इस आत्मशक्ति को विस्मृत कर जब अल्पज्ञान में अधिकता का बोध हो जाता है, तो मान को नष्ट करने में समर्थ ज्ञान ही मान का कारण बन जाता है। उपाध्याय यशोविजयजी २ व्याकरण, साहित्य, न्यायशास्त्र आदि सब शास्त्रों का अध्ययन कर षट्दर्शन के पारगामी बने। काशी में विद्याभ्यास कर ७२. कथा-संग्रह ७३. प्रियदर्शी यशस्वी सितारे Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय के भेद २७ पाँच सौ पण्डितों को वाद में पराजित किया। शब्द विद्या की विशालता, बुद्धि की प्रबलता, तर्कशक्ति की प्रखरता, वक्तृत्व-कला में वाचालता आदि अनेक बाह्य शक्तियों के बल प्राप्त होने पर गर्विष्ठ बन गए। प्रवचन सभा में अपने शक्ति प्रदर्शन रूप पाँच-पाँच ध्वजा अपने समक्ष रखते थे। एक बार एक बहन वंदनार्थ आई। वंदना कर पूछा- 'एक प्रश्न का उत्तर देंगे?' 'कहो!' - उपाध्याय जी ने कहा। वह बहन कहने लगी- 'गौतम स्वामी कितने विद्वान् थे।' यशोविजयजी का गंभीर स्वर गूंज उठा - वे तो महाविद्वान् थे। वे ज्ञान के सिन्धु थे, हम तो बिन्दु भी नहीं हैं। आगन्तुका ने हाथ जोड़कर नम्र निवेदन किया-'प्रभो! फिर वे अपनी व्याख्यान-सभा में कितनी ध्वजाएँ रखते थे?' सहज भाषा में किए गए इस प्रश्न ने श्री यशोविजयजी को झकझोर दिया। उन्हें अपने अहंकार का बोध हुआ। (छ) तप-मद-तप अपूर्व कल्पवृक्ष है, मोक्ष सुख की प्राप्ति इसका फल है। देव, मनुष्य, इन्द्र या चक्रवर्ती की ऋद्धियाँ उसके पुष्प के समान है। उपशम रस उसका मकरन्द (या सुगन्ध) है। जो तप अग्नि के समान जीव रूपी स्वर्ण पर से कर्मरूप गाढ़ मैल को तत्काल दूर कर देता है - ऐसे तप का आलम्बन लेकर भी कई जीव अभिमानी हो जाते हैं। तप का मद होने पर वे अन्य जीवों का तिरस्कार कर देते हैं। कुरगडु मुनि " साधनारत थे। वे समता की पगडण्डियों पर चढ़ते हए गन्तव्य के निकट पहुँच रहे थे; किन्तु बाह्य तप अंगीकार करने में शारीरिक दृष्टि से समर्थ नहीं थे। अतः संवत्सरी जैसे पर्वदिवस में भी आहार लेने हेतु जाते थे। एक वर्ष जैसे ही पर्व दिन आया - मुनि घड़ा भर जितना चावल का आहार लेकर आए और मर्यादा के अनुसार सभी मुनियों को आहार के लिए निमन्त्रित किया। मासक्षमण तपस्वी मुनि-वृन्द तपस्या के अहंकार से ग्रस्त था! एक मुनि ने क्रुद्ध होकर आहार पर थूकते हुए कहा- ‘धिक्! संवत्सरी को भी खाने बैठ गए।' इस तिरस्कार से भी मुनि कुरगडु विचलित नहीं हुए। __ अपितु मुनि के थूक को घी मानकर चावल में मिला लिया - विचार करने लगे - अहो! तपस्वी मुनि का प्रसाद प्राप्त हुआ है। मैं तो अधम, पामर, तुच्छ प्राणी हूँ - आहारलुब्ध जीव हूँ - अतः एक दिन के लिए भी आहार त्याग नहीं कर पाता। समता के बल से मुनि उसी समय केवलज्ञानी बने। ७४. कथा संग्रह Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन (ज) लाभ - मद - पुण्य योग जब प्रबल होता है, तब पग-पग पर सफलता की विजयमाला मिलती है। कई लब्धियाँ, ऋद्धियाँ, सिद्धियाँ चरण-चुम्बन करती हैं। तत्त्वज्ञान का अभाव अनेक बार ऐसी स्थिति में मदोन्मत्त बना देता है। २८ सुभूम चक्रवर्ती ७५ षट्खण्डाधिपति थे । चक्रवर्ती पदभोक्ता, चौदह रत्नों के स्वामी - सुभूम को अतुल सम्पदा प्राप्त होने पर भी सन्तोष नहीं था । सप्तम खण्ड विजय की भावना बलवती बनने लगी । देव वाणी से इन्कार होने पर भी विजयोन्माद में कदम बढ़ चले । अथाह जलराशि पर तैरता देवाधिष्ठित जलयान अचानक एक देव के मन में विचार आया - यदि मैं कुछ क्षणों के लिए अपना स्थान छोड़ दूँ तो क्या हानि है ? यही विचार उन समस्त देवों के मन में उसी समय आया जिन्होंने जहाज संभाला हुआ था । देवों के जहाज से हटते ही वह जलयान सागर की अतल गहराई में जा पहुँचा और सातवें खण्ड की विजय का स्वप्न लिए सुभूम चक्रवर्ती अगली जीवन-यात्रा पर चल पड़ा। - (झ) ऐश्वर्य - मद - 'मैं अतुल वैभव सम्पन्न हूँ' ऐसा अभिमान ऐश्वर्य मद कहलाता है। भगवान् महावीर का नगर के बाहर पदार्पण हुआ था । उद्यानपालक ने नृपति को ज्ञापित किया । ७६ राजा दशार्णभद्र ५ विशाल परिवार के साथ प्रभु दर्शनार्थ महल से चल पड़े। कितने हाथी, घोड़े, रथ, सेना, जनमेदिनी पृथ्वीपति दशार्णभद्र का सिर गर्व से उन्नत हो गया। मस्तिष्क में एक विचार उमड़ने लगा - 'मेरे जैसे ऐश्वर्ययुक्त होकर प्रभु वन्दना के लिए कौन जाता होगा ? ' - साथ ही गर्वोन्नत राजा की आँखें देवराज इन्द्र ने दशार्णभद्र का विशाल जुलूस देखा; पर शिर भी देखा । तत्काल इन्द्र अपनी व्यवस्था लेकर चल पड़े। आकाश-मण्डल से आते इन्द्र के परिवार एवं व्यवस्था पर पड़ी। विस्मय - विमुग्ध हो गए- “कैसा अद्भुत विमान! हज़ारों हाथी ! एक-एक ऐरावत हाथी की आठ-आठ सूँड ! प्रत्येक सूँड पर विराट् कमल ! कमल की कर्णिकाओं पर नृत्य करती अप्सराएँ!” दशार्णभद्र का चेहरा निस्तेज हो गया । अहंकार बर्फ की तरह गलने लगा। अभिमान के बादल बिखर गए। ऐश्वर्य का नशा उतर गया । भौतिकता का रंग उड़ गया और संयम रंग में मन रंग गया। प्रभु चरणों में दीक्षित हुए। ७५. कथा-संग्रह ७६. सामायिक सूत्र Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय के भेद (३) दर्प - गर्व में चूर होकर दुष्टता का परिचय देना, दर्प है। (४) स्तम्भ - झूठी अकड़ में तने रहना, झुकना नहीं स्तम्भ मान है। कसायपाहुड में अनर्गल या यद्वा तद्वा वचनालाप को स्तम्भ कहा गया है। (५) आत्मोत्कर्ष - अपनी विद्वता, विभूति या ख्याति की उच्चता का भाव ! ( ६ ) गर्व - शक्ति का अहंकार । (७) परपरिवाद - पर - दोष कथन, निन्दा - परपरिवाद कहलाता है। (८) उत्कर्ष - अपनी ऋद्धि का प्रदर्शन 'उत्कर्ष मान' है। ( ९ ) अपकर्ष - अभिमानपूर्वक हिंसक प्रवृत्ति में संलग्न होना अथवा अन्य किसी को उस क्रिया में प्रवृत्त करना। (१०) उन्नत - मानवश नीति का त्याग करके अनीति करना। ( ११ ) उन्नाम - वन्दनीय को वन्दन न करना, नमस्कार करने वाले को प्रति नमस्कार नहीं करना । ७७ 'भगवतीसूत्र' में मान का पर्याय दुर्नाम बताया गया है।' ( अ ) दुर्नाम - वन्दनीय को अभिमान, अनिच्छा एवं अविधि से वन्दन करना । २९ कसा पाहुड सूत्र में मान के दस पर्याय उल्लिखित हैं" - मान, मद, दर्प स्तम्भ, उत्कर्ष, प्रकर्ष, समुत्कर्ष, आत्मोत्कर्ष, परिभव, उत्सिक्त। इन दस पर्यायों में चार पर्याय 'भगवतीसूत्र' में निर्दिष्ट पर्यायों से भिन्न हैं । जो निम्नलिखित हैं (क) प्रकर्ष - अपनी विद्वता, विभूति अथवा ख्याति को प्रकट करना । (ख) समुत्कर्ष - उत्कर्ष और प्रकर्ष के लिए समुचित पुरुषार्थ करना । (ग) परिभव-दूसरे का तिरस्कार या अपमान । (घ) उत्सिक्त - आत्मोत्कर्ष से उद्धत या गर्वयुक्त होना । स्थानांग एवं प्रज्ञापना सूत्रों में मान की चार अवस्थाएँ दी गई हैं। उसकी उत्पत्ति के चार कारण बताए गए हैं, जो क्रोध की चार अवस्थाओं एवं क्रोधोत्पत्ति के कारणों के समान हैं। अतः यहाँ हम उनका अलग विवेचन नहीं करेंगे। ७७. ७८. भगवतीसूत्र / श. १२ / उ ५ / सू. ३ की वृत्ति क. चू. / अ. ९ / गा. ८७ का हिन्दी अनुवाद Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन (३) माया माया-कषाय कुटिलता का बोधक है। धर्मामृत (अनगार) में मायादी का स्वरूप बताया गया है- 'जो मन में होता है, वह कहता नहीं है; जो कहता है, वह करता नहीं है - वह मायावी होता है।' वस्तुतः मायावी शहद लगी उस छुरी के समान है, जो मृदु व्यवहार से विश्वास जगाकर विश्वासघात करता है। वह स्वार्थसिद्धि में चतुर, छल-कपट का आश्रय लेकर हर प्रकार का स्वांग भरने में चतुर होता है। अन्ततः भेद खुलने पर वह किसी का विश्वासपात्र नहीं रहता है। आचारांगसूत्र में कहा है। मायावी और प्रमादी बार-बार जन्म लेता है, उसका संसार-परिभ्रमण कभी समाप्त नहीं होता। कितनी भी साधना हो, पर यदि माया-कषाय कृश नहीं हुआ तो सम्पूर्ण साधना निरर्थक है। सूत्रकृतांगसूत्र में माया से होने वाली हानियों का दिग्दर्शन कराया गया है। कहा गया है- जो माया-कषाय से युक्त है, वह भले ही नग्न-निर्वस्त्र रहे, घोर तप से कृश होकर विचरण करे, एक-एक मास का लगातार उपवास करे, तो भी अनन्तकाल तक वह गर्भवास में आता है अर्थात् उसका जन्म-मरण समाप्त नहीं होता। योगशास्त्र-इस माया का आश्रय कभी नहीं लेना चाहिए, क्योंकि ये असत्य की जननी, शीलवृक्ष को काटने वाली कुल्हाड़ी, मिथ्यात्व और अज्ञान की जन्मभूमि तथा दुर्गति का कारण है। ८२ ज्ञानार्णव- यह माया अविद्या की भूमि, अपयश का घर, पापकर्म का विशाल गर्त तथा मोक्ष मार्ग की अवरोधक है। ८३ मोक्षमार्ग प्रकाशक- इस माया-कषाय से वशीभूत हुआ जीव - नानाविध कपट वचन बोलता है, प्राणान्तक संभावना होने पर भी छल करता है और यदि ७९. यो वाचा स्वमपि स्वान्तं... (धर्मा./ अ.६ / गा. १९) ८०. माई पमाई पुणरेह गभ (आयारो | अ. ३ / उ. १ / सू. १४) ८१. जे इह मायाइ मिज्जड, आगंता गब्भाय णंत सो। (सू. कृ. / अ. २ / उ. १/गा. ९) ८२. असूनृतस्य जननी (यो. शा. / प्र. ४/ गा. १४) ८३. ज्ञानार्णव/ सर्ग १९ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय के भेद छल द्वारा कार्यसिद्धि न हो तो स्वयं बहुत संतप्त होता है। माया महादोष है। इससे निवृत्ति का उपाय ढूँढ़ना चाहिए।" माया के बहतेरे रंग और ढंग होते हैं। समवायांगसूत्र में माया के सत्रह पर्याय बताये हैं। ये हैं- माया, उपधि, निकृति, वलय, गहन, न्यवम, कल्क, कुरूक, दम्भ, कूट, जिम्ह, किल्विषिता, अनाचरणता, गृहनता, वंचनता, परिकुंचनता और सातियोग। भगवतीसूत्र में माया के पन्द्रह समानार्थक दिये गए हैं। ६ 'समवायांग' में दिये सत्रह पर्यायों में से दंभ एवं कूट को 'भगवतीसूत्र' में नहीं लिया गया है। इन पर्यायों का अर्थ निम्नोक्त है१. माया-माया का भाव उत्पन्न करने वाला कर्म। ८७ २. उपधि-ठगने के लिए समीप जाने का भाव। ८ ३. निकृति-आदर-सत्कार से विश्वास जमाकर विश्वासघात करना। ४. वलय-जब वचन और व्यवहार में वलय सम वक्रता हो। ५. गहन-ठगने के लिए शब्द जाल की रचना।। ६. न्यवम-नीचता का आश्रय लेकर ठगना। ९२ ७. कल्क-हिंसादि पाप-भावों से ठगना। ९३ ८. कुरूक-निन्दित रीतिपूर्वक मोह उत्पन्न करके ठगना। ४ ९. दम्भ-शक्ति के अभाव में स्वयं को शक्तिमान मानना। ५ १०. कूट-असत्य को सत्य बताना। ९६ ११. जिम्ह-ठगी के अभिप्राय से कुटिलता का आलम्बन। ९७ १२. किल्विषि-माया प्रेरित होकर किल्विषी जैसी निम्न प्रवृत्ति करना। ४ १३. अनाचरणता-ठगने के लिए विविध क्रियाएँ करना। भगवतीसूत्र में अनाचरण नहीं, आदरणता शब्द प्रयोग हुआ है। १४. गृहनता-मुखौटा लगाकर ठगना। १५. वंचनता-छल-प्रपंच करना। १०१ ८४. मोक्षमार्ग प्रकाशक पं. टोडरमल | पृ. २३ ८५. माया उ वही नियडो वलए (समवाओ/ समवाय ५२/ सूत्र१) ८६. भगवतीसूत्र/ श. १२/ उ. ५/ सू. ४) । ८७. से ९८. / भगवतीसूत्र/ श. १२/ उ. ५/ सू. ४ ९९. से १०१. भगवतीसूत्र | श. १२ / उ. ५ / सू. ४ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन १६. परिकुंचनता-किसी के सहज उच्चारित शब्दों का खण्डन करना, विपरीत अर्थ लगाना या अनर्थ करना। १०२ १७. सातियोग-उत्तम पदार्थ में हीन पदार्थ का संयोग करना। जिसे आजकल मिलावट कहा जाता है। १०३ 'कसायपाहुड'०४ में दिये माया के ग्यारह पर्यायों में से इनमें से कुछ समान हैं व कुछ भिन्न हैं। भिन्न पर्याय ये हैं (१) अनृजुता-यह वलय का समानार्थक है। (२) ग्रहण-अन्य के मनोनुकूल पदार्थों को स्वयं ग्रहण कर लेना। (३) मनोज्ञमार्गण-किसी की गुप्त अभिप्राय जानने की चेष्टा। (४) कुहक-उपर्युक्त वर्णित 'कुरूक' शब्द से इसकी साम्यता है। (५) छन्न-गुप्त प्रयोग अथवा विश्वासघात। माया के विभिन्न रूपों के दर्शन इन पर्यायों में होते हैं। मुख्यतः हृदय की वक्रता का नाम माया है। जिस आत्मा में माया/वक्रता है; उस आत्मा में धर्म टिक नहीं सकता। जैसे बंजरभूमि में बोया बीज निष्फल जाता है, मलिन चादर पर चढ़ाया केसरिया रंग व्यर्थ हो जाता है, नमक लगे बर्तन में दूध विकृत हो जाता है, ऊबड़-खाबड़ दीवार पर चित्र के रंग व तूलिका का कार्य रूप चित्र नहीं बन पाता है; ठीक वैसे ही मायावी का किया गया धर्म-कार्य भी सफल नहीं हो पाता है। शास्त्रों में लक्ष्मणा साध्वी एवं रुक्मी साध्वी का उदाहरण प्राप्त होता है। सामान्य-सी माया भी अनन्तकालीन भवभ्रमण का हेतु बन गई। लक्ष्मणा'५ साध्वी ने एक बार चक्रवाक एवं चक्रवाकी की प्रणय-क्रिया को कुछ क्षणों तक ध्यान से देखा। हृदय में वासना के सुप्त संस्कार जागृत हो गए। विकार-भावों में मन बहता रहा। कुछ देर में विचारों से उबरने के बाद मन को एक झटका लगा-'अहो! मैं कहाँ खो गई थी। संयमी जीवन में ऐसे विचार क्या शोभास्पद हैं? मुझसे कितना जघन्य अपराध हुआ है। अब इसका क्या परिणाम मुझे भोगना होगा? क्यों न मैं प्रायश्चित की अग्नि से आत्मदेव को पवित्र कर लूँ।' १०२. से १०३. भगवतीसूत्र | श. १२ / उ. ५ / सू. ४ १०४. से १०५. क. चू./ अ. ९/ गा. ८८ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय के भेद سه - गुरु चरणों में विनम्र अंजलिबद्ध प्रणाम के उपरान्त लक्ष्मणा ने मन्द स्वर में प्रश्न किया- 'हे पूज्या! किसी पक्षी-युगल की वासनात्मक क्रिया देख यदि विकार-परिणाम आए तो क्या प्रायश्चित करना चाहिए?' गुरु ने गंभीरता से प्रतिप्रश्न किया-'यह प्रायश्चित किसे लेना है?' लक्ष्मणा के माथे पर पसीने की बूंदें झिलमिला उठी। पाप को स्वीकार करने का साहस वह जुटा नहीं पाई! सहसा मुख से बोल फूट पड़े- 'किसी ने यह प्रश्न करने के लिए मुझे कहा है।' बस सब समाप्त हो गया। माया ने प्रायश्चित करने के उपरान्त प्रायश्चित नहीं होने दिया। दीर्घकालिक तपस्या भी पाप के दाग धो नहीं पाई और वह माया अनंत संसार का कारण बन गई। रुक्मी राजकुमारी पिता की मृत्यु पश्चात् राजसिंहासन पर आसीन हुई। रुक्मी के ब्रह्मचर्य की ख्याति दूर-सुदूर देशों तक फैलती गई। एक दिन राजसभा में एक राजकुमार रुक्मी के दर्शनार्थ आया- कुछ देर ठहरा और अपने मार्ग पर चला गया। वर्षों बीत गये। रुक्मी का मन राज्य-वैभव से हटकर आत्म-वैभव पाने के लिए तड़प उठा। साध्वी जीवन अंगीकार किया। साधना प्रखर बनती गई। एक दिन आचार्य भगवन्त के समक्ष मुनि-मण्डल एवं साध्वी-मंडल समुपस्थित था। कई श्रमण-श्रमणियाँ आचार्यश्री से अपने पापों की आलोचना रूप प्रायश्चित ग्रहण कर रहे थे। अचानक आचार्यश्री ने रुक्मी साध्वी पर दृष्टिपात किया और पूछ लिया- 'हे आर्या! आपको प्रायश्चित लेना है? रुक्मी ने सहज- सौम्यता से कहा- 'नहीं भगवन्! आचार्य की दृष्टि में अतीत परत-दर-परत उघड़ने लगा था। उन्होंने पुनः कहा-'स्मरण करो! जब तुम राजकुमारी थी। राजसिंहासन पर आसीन थी और एक राजकुमार तुम्हारे दर्शन की भावना से आया था।' रुक्मी मुस्कुराई-'प्रभो! याद है।' आचार्य फिर अतीत में खींच ले गए-'फिर क्या यह भी याद है कि तुमने विकारमय कटाक्ष दृष्टि से उस राजकुमार पर दृष्टि-निपात किया था?' रुक्मी चौंक पड़ी। ओ हो! क्या वही कुमार- ये आचार्य हैं? पाँवों तले धरती खिसकने लगी। आँखों के आगे अन्धकार छाने लगा। जिस अखण्ड ब्रह्मचर्य की ख्याति दूर-सुदूर व्याप्त थी- उस पर कालिमा का दाग दिखाई देने लगा। पर मन पाप स्वीकार की स्थिति के लिए तैयार नहीं हुआ। माया ने अपना आँचल फैला दिया। १०६. कथा-संग्रह Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन ___ रुक्मी ने सहज होने का प्रयास करते हुए कहा- 'भगवन् ! वह कटाक्ष मात्र आपकी परीक्षा हेतु था।' आचार्य मौन हो गए। पर शास्त्र कहते हैं- रुक्मी साध्वी का पाप माफ नहीं हुआ। माया ने उस पाप की जड़ों को इतना गहरा कर दिया कि जन्म-जन्मान्तर में उखाड़ना कठिन हो गया। ऐसा है यह मायाकषाय। (४) लोभ ___लोभ एक ऐसी मनोवृत्ति है, जिसके वशीभूत हो पापों की दलदल में पाँव धरने के लिए भी व्यक्ति तैयार हो जाता है। स्थानांगसूत्र में लोभ को आमिषावर्त कहा गया है। १० जिस प्रकार मांस के लिए गिद्ध आदि पक्षी चक्कर काटते हैं, उसी प्रकार लोभी मनुष्य इष्ट पदार्थों की प्राप्ति के लिए उद्यमशील रहता है। लेकिन उसके बाद भी प्राप्ति क्या? आचारांगसूत्र में वर्णन है-१०८ सुख की कामना करने वाला लोभी बारबार दुःख को प्राप्त करता है। योगशास्त्र में लोभ कषाय को ज्ञानादि गुणों का क्षय करने वाला, दुःख रूपी बेल की जड़ रूप तथा काम धर्म-मोक्ष पुरुषार्थ में बाधक प्रतिपादित किया प्रशमरति में लोभ को सब विनाशों का आधार, सब व्यसनों का राजमार्ग बताया है। ११० ज्ञानार्णव में लोभ को अनर्थ का मूल, पाप का बाप कहा है। ११ धर्मामृत (अनगार) में बताया है- ११२ इस कषाय से पीड़ित व्यक्ति अपने स्वामी, गुरु, परिजनों, असहायों को भी निःशंक मौत के घाट उतार देता है। १०७. आमिसावतसमाणे लोभे (ठाणं/स्थान ४/उ. ४/ सू. ६५३) १०८. सुहट्ठी लालप्पभाणे सएण दुक्खेण मूढे विप्परियासमुवेति... (आयारो/ अ. २/ उ. ६/ सू. १५१) १०९. आकर : सर्वदोषाणां (यो. शा./प्र. ४/ गा. १८) ११०. सर्व विनाशाश्रयिणः... (प्र. र./ गा. २९) १११. स्वामिगुरुबन्धुवृद्धान (ज्ञा./ सर्ग. १९/ गा. ७०) ११२. तावत्कीय. (अ.ध./ अ. ६/ गा. २७) - Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय के भेद दूसरों का ही शत्रु नहीं; अपने प्राणों का भी दुश्मन बन जाता है । इच्छापूर्ति के लिए स्नेह-सम्बन्धों को तोड़ देता है। मनुष्य तब तक ही मित्रता का पालन करता है, चारित्र बल में वृद्धि करता है, आश्रितों का सम्यक् रीति से पोषण करता है, जब तक वह इस कषाय के वशीभूत न हो। मोक्षमार्ग प्रकाशक में बताया है- ११३ लोभ के कारण जीव कितना उद्यम करता है, कितने कष्ट सहन करता है, मरणान्तक पीड़ा सहन करता है। वस्तुतः पाँचों इन्द्रियों के विषय एवं मान कषाय की पूर्ति की लालसा - लोभ है। विनिमय का एक साधन धन है । विषयभोग के साधनों की प्राप्ति धन द्वारा होती है; अतः व्यक्ति धन प्राप्ति के लिए दौड़ लगाता है। चिन्तामणि में 'लोभ' संबंधित विचारात्मक निबन्ध में उद्धृत लोभ के दो उग्र लक्षण बताये हैं- ११४ ( १ ) असन्तोष ; और ( २ ) अन्य वृत्तियों का दमन । जब लोभ बहुत बढ़ जाता है तब प्राप्त में सन्तोष नहीं होता और अधिक पाने की चाहना बनी रहती है। ऐसी स्थिति में मान-अपमान, करुणा-दया, न्याय-अन्याय तो भूल ही जाता है; किन्तु कई बार क्षुधा तृषा, निद्रा-विश्राम, सुख भोग की इच्छा भी दबा लेता है। समवायांगसूत्र में लोभ के चौदह पर्याय बताये हैं- १५ लोभ, इच्छा, मूर्च्छा, कांक्षा, गृद्धि, तृष्णा, भिध्या, अभिध्या, कामाशा, भोगाशा, जीविताशा, मरणाशा, नन्दी एवं राग । भगवतीसूत्र में इन चौदह पर्यायों के अतिरिक्त तीन अन्य पर्यायें भी दिये हैं, जो इस प्रकार हैं- ११६ आशंसन, प्रार्थन, लालपन । 'समवायांगसूत्र' में नंदी एवं राग को भिन्नभिन्न रूपों में परिगणित किया गया है एवं 'भगवतीसूत्र' में नंदी - राग एक ही पर्याय बताया गया है। भगवतीसूत्र की अभयदेवसूरि वृत्ति अनुसार इन पर्यायों की निम्न व्याख्या है १. लोभ - जिस कर्म के निमित्त से लोभ - परिणाम हो । ११३. मोक्षमार्ग प्रकाशक / पृ. ५३ ११४. चिन्तामणि/ भाग २ / पृ. ८३ ११५. लोभे इच्छा मुच्छा कंखा गेही.... ( समवाओ / समवाय ५२ / सू. १ ) ११६. अहं भंते । लोभे इच्छा मुच्छा.... ( भगवतीसूत्र / श. १२ / उ. ५ / सू. ५) ३५ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन २. इच्छा-इष्ट प्राप्ति की भावना। ३. मूर्छा-इच्छित वस्तु की अदम्य अभिलाषा। ४. कांक्षा-अप्राप्त की इच्छा। ५. गृद्धि-अपनी वस्तु में आसक्ति। ६. तृष्णा-अपने अधिकार की वस्तु को व्यय न करने की इच्छा। ७. भिध्या-एकाग्रतापूर्वक विषयों का अध्ययन या ध्यान। ८. आशंसन-स्नेहियों के प्रति शुभकामना। ९. प्रार्थन-अन्य से इष्ट अर्थ की याचना। १०. लालपन-दूसरों से बारम्बार प्रार्थना करना। ११. कामाशा-शब्द रूप आदि इन्द्रिय विषयों की आशा। १२. भोगाशा-गन्ध, रस आदि भोगों की कामना। १३. जीविताशा-जीने की इच्छा। १४. मरणाशा-निराशा में मरने की चाहना। १५. नन्दीराग-प्राप्त सम्पत्ति पर राग। कसायपाहुड में बीस पर्यायें बतायी गयी हैं-११० काम, राग, निदान, छन्द, स्तव, प्रेय, दोष, स्नेह, अनुराग, आशा, इच्छा, मूर्छा, गृद्धि, साशता, प्रार्थना, लालसा, अविरति, तृष्णा, विद्या। समवायांग एवं भगवतीसूत्र में दिए लोभ के पर्याय एवं कसायपाहुड में दिए पर्यायों में तीन-चार पर्यायों में साम्यता है- अन्य भिन्न हैं। कसायपाहुड में उल्लिखित पर्यायों की निम्न व्याख्या है १. काम-स्त्री, पुत्र आदि की अभिलाषा। २. राग-विषयासक्ति। ३. निदान-जन्मान्तर सम्बन्धी संकल्प। ४. छन्द-मनोनुकूल वेशभूषा में विचारणा। ५. स्तव-विविध विषयों की अभिलाषा रूप चिन्तन। ६. प्रेय-प्रिय वस्तु प्राप्ति हेतु उत्कट भाव। ७. दोष-ईर्ष्याग्रस्त हो परिग्रह-बहुलता की इच्छा। ८. स्नेह-प्रिय वस्तु व्यक्ति के विचार में एकाग्रता। ९. अनुराग-स्नेहाधिक्यता। ११७. कामो राग णिदाणो.... (क. चू./ अ. ९/ गा. ८९) Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय के भेद १०. आशा - अविद्यमान पदार्थ की आकांक्षा । ११. इच्छा - परिग्रह-अभिलाषा । १२. मूर्च्छा - संग्रह में गाढ़ आसक्ति । १३. गृद्धि - परिग्रह - वृद्धि हेतु अति तृष्णा । १४. साशता - प्रतिस्पर्धा । १५. प्रार्थना- धन प्राप्ति की अतीव कामना । १६. लालसा - अभीप्सित संयोग हेतु चाहना । १७. अविरति - परिग्रह त्याग के भाव का अभाव । १८. तृष्णा - विषय - पिपासा । १९. विद्या-पूर्व संस्कारवश जिसका निरन्तर अनुभव हो । २०. जिह्वा - उत्तमोत्तम भोगोपभोग सामग्री के लिए जिह्वा लपलपाना । स्थानांग एवं प्रज्ञापनासूत्र में क्रोध के समान लोभ की भी चार अवस्थाएँ एवं उनकी उत्पत्ति के चार कारण बताये हैं । वस्तुतः लोभ का मूल इच्छा है। उत्तराध्ययन में भगवान् महावीर का वचन है- 'इच्छा हु आगास- समा अणंतिया' इच्छा आकाश के समान अनन्त है । स्थानांगसूत्र में कहा है- चार स्थान कभी पूर्ण नहीं होते । ( १ ) समुद्र - गंगा-यमुना जैसी अनेक महानदियों द्वारा निरन्तर अनेकों टन जल दिए जाने पर भी वह कभी इन्कार नहीं करता । ( २ ) श्मशान - असंख्य बाल, वृद्ध, युवा, स्त्री, चक्रवर्ती वासुदेव आदि अन्तिम घड़ी वहाँ पहुँचे, फिर भी वह रिक्त ही है । ( ३ ) पेट - सुबह नाश्ता किया, मध्याह्न भोजन लिया, संध्या पुनः भोजन लिया, यह क्रम प्रतिदिन होने पर भी पेट खाली का खाली है। (४) तृष्णा- पेट का गड्ढा आधा सेर अनाज डालने पर एक बार तो भर जाता है और दो-चार घण्टे संतोष धारण हो जाता है; किन्तु तृष्णा का गह्वर कितना विराट् है- सोने और चाँदी के कैलाश पर्वत की तरह असंख्य पर्वत भी किसी लोभी को दे दिए जाएँ तो भी पर्याप्त नहीं । उत्तराध्ययनसूत्र उदाहरण आता है-' - ११८ कपिल ब्राह्मण विद्याभ्यास के लिए गुरुकुल में रहने गया। गुरु ने कहा- 'वत्स! तुम्हारे निवास एवं अध्ययन की व्यवस्था आश्रम में संभावित है; किन्तु भोजन व्यवस्था हेतु किसी सद्गृहस्थ को निर्देश देना होगा। किसी श्रेष्ठी के घर कपिल प्रतिदिन भोजन हेतु जाने लगा। गृहस्थ ने ११८. उत्तराध्ययन सूत्र -- / अ. ८ ३७ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन उदारतापूर्वक उनकी व्यवस्था कर दी। एक दासी कपिल को रोज आहार परोसती थी। उसके यौवन, लावण्य, चंचलता ने कपिल का मन आकर्षित कर लिया। कपिल की ओर दासी का भी मन खिंच गया। दोनों प्रणय-बन्धन में बँध गए। वसन्तोत्सव का दिन था। नगर के नर-नारी सज-धज कर सृष्टि-सौन्दर्य के पान हेतु उद्यान-भ्रमण किया करते थे। दासी का मन भी मचल उठा। नारी का मन वस्त्र, आभूषण से शृंगारित होने की भावना! कपिल के समक्ष इच्छा जाहिर की और एक मार्ग भी सुझा दिया। राजा प्रतिदिन प्रथम आशीर्वाद देने वाले ब्राह्मण को दो माशा स्वर्ण दिया करता है- वह आपको लाना है। __रात्रि का समय। करवट बदलते समय बीत रहा था। आँखों में निद्रा नहीं थी। अर्द्धरात्रि को ही ब्रह्ममुहूर्त मान कर कपिल चल पड़ा। नगर रक्षकों द्वारा कपिल को हिरासत में लेकर कारागार में डाल दिया गया। प्रातः जब राजसभा में नरपति समक्ष उपस्थित किया; तब कपिल ने अपनी सारी परिस्थिति से राजा को अवगत किया। नृपति मुस्कुरा दिए- 'हे विप्र! दो माशा ही नहीं, तुम्हारी इच्छानुरूप धन तुम्हें प्राप्त होगा। कहो! कितना चाहिए?' कपिल क्षण भर स्तब्ध रह गया। पश्चात् स्वस्थ होकर कहा- 'राजन! मुझे विचार के लिए समय अपेक्षित है।' राजवाटिका के मध्य विचाराधीन कपिल के मन में विचार सागर की तरंगों की तरह टकरा रहे हैं। कितना माँगना? दो माशा, नहीं! १०० स्वर्ण मुद्रा? नहीं! १००० स्वर्ण मुद्रा? नहीं! १ लाख स्वर्ण मुद्रा? नहीं, नहीं!! आधा राज्य? नहीं! क्या सम्पूर्ण राज्य? हाँ - हाँ यही ठीक है। तुरन्त विवेक ने लोभ को थप्पड़ लगाया। राजा की उदारता का अनुचित लाभ लेना चाहते हो। ठीक है- आधा राज्य। अच्छा - इतना चाहिए? नहीं - नहीं १०० स्वर्ण मुद्रा। क्या तुम धन-याचना के लिए इस नगर में आये थे, क्या तुम विषय पिपासा पूर्ति हेतु गुरुकुल में आये थे अथवा अध्ययन हेतु। ओ हो! कैसा मेरा लोभ? मन तत्त्व-चिन्तन की श्रेणी पर आरूढ़ हो गया और समस्त कषायों का क्षय किया। इसी प्रकार मम्मण सेठ का उदाहरण प्राप्त होता है-११९ जिसे अर्द्धरात्रि में उफनती नदी से लकड़ियाँ बाहर लाते देख श्रेणिक महाराजा दयार्द्र हो उठे और कहा- 'जो चाहिए माँग लो।' 'राजन! केवल एक बैल चाहिए'- वृद्ध ने ११९. कथा संग्रह Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय के भेद प्रत्युत्तर दिया। ‘जाओ! इन्हें गौशाला में ले जाओ- जो बैल लेना चाहें, दे दिया जाए।' –नृपति ने आदेश दिया। पर मम्मण सेठ को कोई बैल पसन्द नहीं आया। 'राजन मेरे बैल जैसा आपके पास एक भी नहीं'- मम्मण के शब्द सुन कर राजा चौंक गए। ‘ऐसा बैल हमारी गौशाला में नहीं है, तो हम तुम्हारा बैल देखने जरूर आयेंगे'- महाराजा श्रेणिक ने कहा। महारानी चेलना एवं मंत्री-परिवार के साथ सम्राट मम्मण सेठ के यहाँ जा पहुँचे। गृहांगण में प्रवेश किया। बैल कहीं दिखा नहीं। मम्मण अभ्यागतों को कक्ष में ले गए। परदा हटाया- भीतर का दृश्य देखते ही सबकी आँखें विस्फारित हो गई। रत्नजटित स्वर्ण निर्मित बलद जोड़ी। एक बैल का एक सींग अभी रत्नजड़ित होना शेष था। राजा ने मुँह में अंगुली दबा ली- इतना धन! और फिर इतना परिश्रम। धन्यवाद है - इस लोभ को। जितनी मजदूरी कराए उतना ही कम है। संतोष के बिना शान्ति नहीं है। नीतिशास्त्र में कहा है जो दस बीस पचास भए, शत होय हज़ार तो लाख मंगेगी, कोटि अरब खरब असंख्य, धरापति होने की चाह जगेगी। स्वर्ग पाताल को राज करूँ, तृष्णा अधिकी फिर आग लगेगी, सुन्दर इक सन्तोष बिना, शठ तेरी तो भूख कभी न भगेगी। अन्यत्र भी कहा है गौधन गजधन वाजिधन, और रतन धन खान, जब आवे सन्तोष धन, सब धन धूल समान। कषाय सोलह प्रकार का भी बताया गया है। वह निम्न प्रकारेण है-१२० १. अनन्तानुबंधी कषाय(१) क्रोध (२) मान (३) माया (४) लोभ। २. अप्रत्याख्यानी कषाय(१) क्रोध (२) मान (३) माया (४) लोभ। ३. प्रत्याख्यानावरण कषाय(१) क्रोध (२) मान (३) माया (४) लोभ। ४. संज्वलन कषाय(१) क्रोध (२) मान (३) माया (४) लोभ। कषाय के उपर्युक्त भेदों का सामान्य विश्लेषण इस प्रकार है१२०. अनन्तानुबन्ध्य प्रत्याख्यानावरण संज्वलन विकल्पाश्चैकशः क्रोध, मान-मायालोभाः... (तत्त्वार्थसूत्र/ अ. ८/ सूत्र १०) Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० अनन्तानुबन्धी कषाय अनन्तकाल से अनुबन्धित, ११ अनन्त भवों तक संस्कार रूप से संयुक्त अनन्त पदार्थों में इष्टानिष्ट धारणाजनित, अनन्त संसार का कारणरूप १२३, सम्यग्दर्शन का विघातक १४ - अनन्तानुबन्धी कषाय है । संसार में अनन्त पौद्गलिक सुखों की अतृप्त कामना अनन्तानुबन्धी कषाय है। आत्मभ्रान्ति रूप मिथ्यात्व दशा में समुपस्थित कषाय अनन्तानुबन्धी कहलाता है। अज्ञानावस्था में जीव पर - पदार्थों, संयोगों, प्राप्त निमित्तों को अपने सुख-दुःख का कारण मानकर उन पर राग-द्वेष करता है। अनुकूल निमित्तों को पाकर गर्व करता है। मनोज्ञ पदार्थों के अधिकार के लिए माया का आश्रय लेता है । प्रिय वस्तु और प्रिय व्यक्ति के संयोग की लालसा रखता है। किसी संयोग को प्रतिकूल मानकर क्रोध करता है। मिथ्या मान्यताओं, गलत धारणाओं के वशीभूत होकर कषायों के जाल में फँसा रहता है। वस्तुतः तथ्य यह है कि पर पदार्थ अथवा अन्य जीव हमें सुख-दुःख दे नहीं सकते; अपितु हम अपने ही अज्ञान से सुख-दुःख का अहसास करते हैं। 'भावदीपिका' में व्यावहारिक स्तर पर इस कषाय का स्वरूप बताया है २५ – क्रूर, हिंसक, निम्नतम, लोकाचार का उल्लंघन करने वाला, सत्यासत्य के विवेक से शून्य, देव-गुरु-धर्म पर अश्रद्धा रखने वाला व्यक्ति अनन्तानुबन्धी कषायुक्त है। क्षत्रियकुण्ड के राजकुमार, त्रिशला महारानी के दुलारे, सिद्धार्थ महाराजा के प्यारे - पुत्र वर्धमान कुमार ने यौवन की रंगीन बेला में श्रमण जीवन अंगीकार किया। महलों में पलने वाले, अनेक सेवक-सेविकाओं से सेवित वे राजपुत्र एकाकी - विचरण करने लगे। बीहड़ जंगल, कण्टकाकीर्ण झाड़ियाँ, उत्तुंग पर्वत की पहाड़ियाँ, अन्धेरी गुफाएँ कैसे-कैसे भयजनक स्थानों पर उन्होंने साधना की अलख जगाई। कितने उपसर्गों, संकटों, परीषहों को समत्व से सहन किया । प्रभु की समता की प्रशंसा इन्द्र महाराज ने देवसभा में की। सर्व देवों ने कषाय: एक तुलनात्मक अध्ययन ... १२१. अनन्तान् भवाननुबद्धं (घ. / पु. ६ / अ. १ / सू. २३ ) १२२. अनंतेसु भवेसु अणुबंध .... ( वही ) १२३. (अ) अणंतानुबंधो संसारा.... ( वही ) (ब) अनन्तसंसार कारणत्वा.... ( सर्वार्थसिद्धि / अ. ८ / सू. ९ ) १२४. पढमो दंसणघाई.... (गो.जी./ गा. २८३ ) १२५. भावदीपिका / पृ. ५१ १२२ 1 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय के भेद गुणानुमोदन किया; किन्तु एक मिथ्यात्वी अभव्य देव - संगम के मन में श्रद्धा उत्पन्न नहीं हुई। वह सोचने लगा- ‘इन्द्र महाराज व्यर्थ ही मानव की प्रशंसा करते हैं। मांस-मज्जा देहधारी यह मनुष्य एक क्षण में समता से चलित हो सकता है। मैं बता दूंगा- इस सारी देव-सभा को... महावीर को क्रोधित करना एक चुटकी का काम है।' अपना निर्णय देवराज को सुनाकर संगम धरती पर चला आया। छह महीने - कितनी क्रूरता की, दोषारोपण किए, असह्य वेदना दी; किन्तु संगम समता-पर्वत के शिखर को हिला नहीं पाया। ___ संगम की अनन्तानुबन्धी कषाय ने उससे एक महान् आत्मा को कष्ट देने का कार्य करा लिया। वह देवों द्वारा तिरस्कृत हुआ, शचीपति इन्द्र द्वारा देवविमान से बहिष्कृत हुआ और कषायरंजित मनोवृत्ति के कारण कलुषित हुआ। किन्तु फिर भी देवाधिदेव के प्रति श्रद्धा का दीप प्रज्ज्वलित नहीं हुआ। अनन्तानुबन्धी कषाय का काल श्वेताम्बर ग्रन्थों में २६ जीवन-पर्यन्त एवं दिगम्बर ग्रन्थों में संख्यात भव, असंख्यातभव, अनन्त भव पर्यन्त बताया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि श्वेताम्बर परम्परा में यह काल-मर्यादा एक भवापेक्षा तथा दिगम्बर परम्परा में अनेक भवापेक्षा, यह प्रतिपादन है। अप्रत्याख्यानी कषाय जब सम्यक्त्व रूपी सूर्य उदित होता है, तब मिथ्यात्व रूपी अन्धकार विलीन हो जाता है। मिथ्यात्व की विदाई के साथ अज्ञान एवं अनन्तानुबन्धी कषाय भी अलविदा लेता है। गलत धारणाएँ टूटती हैं, मिथ्या मान्यताएँ समाप्त होती हैं। तत्त्व का सम्यक् स्वरूप दृष्टिपथ पर संचरित होने लगता है। आत्मप्रतीति रूप इस अवस्था में विपरीत दृष्टिकोण तो सम्यक् हो जाते हैं, किन्तु पूर्व संस्कारों की प्रबलता एवं वर्तमान की आसक्ति के कारण सत्य को जानते हुए भी आचरण में स्वीकृत नहीं हो पाता। अप्रत्याख्यानी कषाय का उदय व्रत ग्रहण में बाधक बनता है। आंशिक रूप में भी त्याग-विरतिपालन संभव नहीं हो पाता है। १२८ १२६. जावज्जीवाणुगामिणो... (विशेषा | गा. २९९२) १२७. (अ) जो सव्वेसि संखेज्जासंखेज्जाणतेहिं... (क. चू. | अ. ८ / गा. ३२ / सू. २३) (ब) गो. क. / गा. ४६-४७ १२८. यदुदयाद्देशविरतिं... कर्तुं न शक्नोति (सर्वार्थसिद्धि | अ. ८ / सू. ९) Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय: एक तुलनात्मक अध्ययन प्रभु महावीर द्वारा श्रेणिक महाराजा को अपना अन्धकारमय भविष्य ज्ञात हुआ । दुर्गति की कल्पना से मन काँप उठा । श्रेणिक प्रभु वीर के चरणों का अश्रुबिन्दुओं से प्रक्षालन करने लगे- 'प्रभो! क्या इस नारकीय वेदना से रक्षण का कोई उपाय नहीं है । ' श्रेणिक की अन्तर्व्यथा आँसुओं के माध्यम से बहने लगी । श्रमण भगवान् महावीर का गंभीर स्वर गुंजित हो उठा - 'हे! श्रेणिक एक उपाय है। ' श्रेणिक की झुकी पलकें उठ गईं। आँखों में चमक पैदा हो गई। उत्सुकता से प्रश्न किया- 'प्रभो! फरमाइए । मैं क्या करूँ ?' सर्वज्ञ प्रभु ने मधुर मन्द स्वर में उत्तर दिया- 'यदि तुम नवकारसी (सूर्योदय के ४८ मिनट पश्चात् ही आहार ग्रहण ) का संकल्प स्वीकार करो, व्रत-तप रूपी नियम अंगीकार करो तो यह संभव है । ' श्रेणिक ने प्रयास किया; किन्तु अप्रत्याख्यानी कषाय का उदय उनके व्रतपालन में बाधक बना रहा और वे संकल्प पालन नहीं कर सके । प्रभु के चरणों में उपस्थित होकर अपनी असमर्थता का श्रेणिक महाराजा ने निवेदन कर दिया। अप्रत्याख्यानी कषायोदय जीव को अंशतः व्रतपालन में भी विघ्न पैदा कर देता है। ४२ १३० अप्रत्याख्यानी कषाय का उदय रूप अधिकतम काल श्वेताम्बर ग्रन्थों अनुसार१२९ एक वर्ष एवं दिगम्बर ग्रन्थों अनुसार ३ छह मास वर्णित है। इससे अधिक काल यदि वह कषाय-संस्कार बना रहा तो अनन्तानुबन्धी कहलाता है तथा वह मिथ्यात्व अवस्था मानी जाती है । इस काल मर्यादा को ध्यान में रखते हुए ही जैन परम्परा में 'सांवत्सरिक प्रतिक्रमण' की व्यवस्था है । वर्ष भर में हुए समस्त बैर - विरोध, द्वेष- रोष आदि को समाप्त करना, क्षमा आदान-प्रदान करना, पूर्व कषाय संस्कारों को क्षय करना - इस प्रतिक्रमण का उद्देश्य होता है। प्रत्याख्यानावरण कषाय ta मोह के बन्धन शिथिल होने लगते हैं, भोगासक्ति अल्प- अल्पतम हो जाती है, गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी व्रत - नियम स्वीकार करने का संकल्प जागता है, श्रावक योग्य बारह व्रतों को ग्रहण करने की मानसिकता है - तब अप्रत्याख्यानी कषाय का बल समाप्त होता है। १२९. वच्छर... ( आचारांग / शीला. / अ. २ / उ. १ / सू. १९० ) १३०. (अ) छण्हं मासाणं (क. चू. / अ. ८ / गा. ८५ / सू. २२ ) (ब) अप्रत्याख्यानावरणानां षण्मासा ( गो . क. / गा. ४६ ) Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय के भेद १३१ प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय पूर्ण रूप से विषय कषाय, भोग-उपभोग से विरत नहीं होने देता। जम्बू स्वामी दो जन्म पहले शिवकुमार के भव में मुनि सागरदत्त के दर्शन कर प्रव्रज्या हेतु उत्सुक बने । शिवकुमार ने मन में श्रमण बनने हेतु संकल्प लिया और पिता राजा पद्मरथ के समीप पहुँचे। दीक्षा हेतु स्वीकृति की प्रार्थना की। नृपति का पितृ-हृदय दहल उठा । पिता का वात्सल्य से भरा हृदय वियोग की कल्पना करके भी कम्पित हो गया। नेत्र भींग गये । क्षण भर मौन का साम्राज्य स्थापित हो गया। तत्पश्चात् काँपती आवाज में राजा पद्मरथ ने मौन भंग किया- 'शिव! तुम जानते हो तुम्हारा विरह हमारे लिए असह्य है । हम मरणपर्यन्त तुम्हें संन्यास की स्वीकृति नहीं दे सकेंगे - ऐसा हमारा मन कहता है । ' इतिहास कहता है शिवकुमार ने आठ दिन अन्न-जल का त्याग कर दिया; किन्तु राजा का निर्णय नहीं बदला। अन्त में दृढ़धर्मा श्रावक के निवेदन पर शिवकुमार ने बारह वर्ष तक बेले- बेले - पारणा आयम्बिल का तप किया किन्तु प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय उन्हें संयम जीवन, पूर्ण विरतिमय जीवन स्वीकार करने में बाधक बना रहा । इस प्रत्याख्यानावरण कषाय की अधिकतम काल मर्यादा श्वेताम्बर परम्परानुसार१३२ चार मास एवं दिगम्बर परम्परानुसार ३३ पन्द्रह दिन बताई गई है। यह कषाय चार महीने से अधिक उदय नहीं रह सकती । इस काल में साधक अपने दोष का प्रायश्चित एवं अन्य के अपराध को क्षमादान देता है। चातुर्मासिक प्रतिक्रमण का उद्देश्य यही है कि अविरति रूप अप्रत्याख्यानी कषाय का उदय न हो। - संज्वलन कषाय संज्वलन कषाय के उदय से कषायभाव की मन्दतम परिणति, हिंसादि पापों से पूर्ण विरति, पदार्थों में अल्पतम रति- अरति तथा साधना के मार्ग पर प्रगति होते हुए भी वीतरागता की अभिव्यक्ति नहीं हो पाती। यह कषाय वीतरागता में बाधक है। ४३ भगवान् महावीर के प्रथम शिष्य गौतम गणधर चौदह पूर्वों के ज्ञाता, चार ज्ञान के धारी थे । चौदह हजार श्रमण एवं छत्तीस हजार श्रमणियों के संचालक १३१. विशेषा. / गा. २९९२ १३२. चउमास. (आचा. / अ. २ / उ. १ / सू. १९० ) १३३. अद्धमासादी... (क. चू. / अ. ८ / गा. ८५ / सू. २२ ) Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन थे। ज्ञान के अथाह सागर होने पर भी वीतरागता नहीं प्राप्त कर सके थे। पन्द्रह सौ तापसों को श्रमण दीक्षा प्रदान कर गौतम गणधर भगवान् महावीर के चरणों में समुपस्थित हुए। नूतन मुनिवृन्द स्थान ग्रहण करने हेतु 'केवली पर्षदा' की ओर बढ़ चले। गौतम स्वामी ने उन्हें मधुर स्वर में कहा'अहो मुनियो! वह स्थान तुम्हारे लिए नहीं है।' महावीर प्रभु ने गौतम को सत्य वस्तु-स्थिति बताई- ‘गौतम! केवलियों की आशातना मत करो।' गौतम के नेत्र आश्चर्य से विस्फारित हो गए- 'प्रभो! अभी मैंने इन्हें दीक्षित किया और अभी ये सर्वज्ञ हो गए।' गौतम गणधर गंभीर हो गए। मन में हलचल हो गई। एक प्रश्न अधरों पर फूट पड़ा- 'प्रभो! मेरे हस्त-दीक्षित मुनि पूर्णता को उपलब्ध हो जाते हैं और मैं अभी अपूर्ण क्यों?' । ___भगवान् महावीर ने गौतम स्वामी की जिज्ञासा का स्पष्टीकरण देते हुए कहा- 'गौतम! तुम इसी क्षण कैवल्य-सूर्य को प्रकाशित कर सकते हो। मात्र मेरे प्रति राग (संज्वलन कषाय) के बादलों को चिदाकाश से बिखेर दो।' संज्वलन कषाय गौतम स्वामी जैसे ज्ञानी के लिए बाधक बन गयावीतरागता प्राप्ति हेतु। ____संज्वलन कषाय का अधिकतम काल श्वेताम्बर परम्परानुसार पन्द्रह दिन एवं दिगम्बर परम्परानुसार ३५ अन्तर्मुहूर्त बताया गया है। पाक्षिक प्रतिक्रमण का विधान इसी हेतु से है। यद्यपि साधक को रात्रि एवं दिवस सम्बन्धी दोषों की आलोचना प्रतिदिन (प्रतिक्रमण) कर लेना चाहिए; नहीं तो पाक्षिक प्रतिक्रमण तो अवश्य ही करना चाहिए। जिससे प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय न हो जाए। कषाय के सोलह भेद'३५ (काल मर्यादा अपेक्षा तरतमता) क्रोध अनन्तानुबन्धी- वर्षों न मिटने वाली पर्वत की दरार की भाँति (आजीवन) अप्रत्याख्यानी- गीली मिट्टी के सूखने के बाद बनी रेखा की तरह (दीर्घकालिक) प्रत्याख्यानावरण-बालू रेत में बनी रेखा जैसा (अल्पकालिक) संज्वलन- पानी पर खिंची लकीर के समान (अल्पतम-कालिक) १३४. (अ) पक्ख... (आचा./शीला./ अ. २/उ. १/ सू. १९०) (ब) विशेषा./गा. २९९२ १३५. जो अंतोमुहुत्तदीदमंतो... (क.चू./अ. ८/ गा. ८५/ सू. २१) १३६. प्रथम कर्मग्रन्थ। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय के भेद मान अनन्तानुबन्धी- शैल ( पत्थर) स्तम्भ के समान ( आजीवन ) अप्रत्याख्यानी- अस्थि (हड्डी) स्तम्भ की तरह ( दीर्घकालिक ) प्रत्याख्यानावरण-दारु (लकड़ी) स्तम्भ की भाँति (अल्पकालिक ) संज्वलन- तिनिशलता ( तृण ) जैसा ( अल्पतम -कालिक ) माया अनन्तानुबन्धी- बाँस की जड़ के समान वक्रता ( आजीवन) अप्रत्याख्यानी- मेंढ़े के सींग की तरह टेढ़ी ( दीर्घकालिक ) प्रत्याख्यानावरण- - गोमूत्र की भाँति वक्ररेखात्मक (अल्पकालिक ) संज्वलन- छिलते हुए बाँस की छाल जैसी सामान्य मुड़ी हुई ( अल्पतम- कालिक) लोभ अनन्तानुबन्धी- कीड़ों के रक्त से बने रंग ( कृमिराज) की तरह ( आजीवन ) अप्रत्याख्यानी- गाड़ी के पहिये में लगे कीट की भाँति (दीर्घकालिक ) प्रत्याख्यानावरण- काजल जैसा ( अल्पकालिक ) संज्वलन- हल्दी के रंग समान ( अल्पतम- कालिक) ४५ सोलह कषाय का अंशतः विवेचन अनन्तानुबन्धी क्रोध - अज्ञानावस्था में शरीर में अहंबुद्धि तथा पदार्थों में ममत्वबुद्धि होती है। शरीर, स्वजन, सम्पत्ति आदि में आसक्ति प्रगाढ़ होती है। प्रिय संयोगों की प्राप्ति में बाधक तत्त्व अप्रिय लगता है। स्वार्थ में ठेस लगने पर क्रोध पैदा होता है- यह अनन्तानुबन्धी क्रोध है । आत्म-तत्त्व की वार्ता अरुचिकर प्रतीत होती है - तीव्र अनन्तानुबन्धी क्रोध में । मन्द अनन्तानुबन्धी क्रोध में सम्यक्त्व सम्मुख भूमिका बनती है। अप्रत्याख्यानी क्रोध - सम्यग्दर्शन का सूर्य उदित होने पर आत्म-तत्त्व का अज्ञानान्धकार नष्ट होता है। शरीर में 'मैं' की भ्रान्ति समाप्त होती है। आत्मतत्त्व का बोध होता है । समस्त जगत् के जीवों के प्रति आत्मीय भाव उत्पन्न होता है। ऐसी स्थिति में किसी के प्रति अन्याय होने पर क्रोध का जन्म होता है । यह अप्रत्याख्यानी क्रोध है । सम्यग्दृष्टि को देव-गुरु-धर्म का राग होता है। अतः देव-गुरु-धर्म का अपमान करने वाले के प्रति आवेश आता है। वस्तुपाल महामन्त्री ने राजा के मामा द्वारा एक बाल मुनि को थप्पड़ मारने पर उसका हाथ कटवा दिया था। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन सरस्वती साध्वी का गर्दभिल्ल राजा द्वारा अपहरण होने पर कालिकाचार्य के द्वारा वीर सैनिक का वेश धारण किया गया था। गर्दभिल्ल राजा की हत्या कर सरस्वती को कैद-मुक्त कर कालिकाचार्य ने प्रायश्चित लिया था। प्रत्याख्यानी क्रोध-आत्म-ज्ञान पश्चात् साधक सांसारिक कार्यों को संक्षिप्त करके श्रावक जीवन के बारह व्रत स्वीकार करता है। साधना-मार्ग पर उसके चरण बढ़ते हैं। उसके व्रत पालन में कोई बाधक बनता है, तो उसे क्रोध आने लगता है। महाशतक भगवान् महावीर के श्रावक थे। पौषधशाला में ध्यानास्थित होने पर पत्नी रेवती द्वारा उन्हें विचलित करने का बार-बार प्रयास किया जाने लगा। अन्ततः क्रुद्ध हो कर वे बोल उठे- 'रेवती! तुम्हारा रूप का अभिमान टिकने वाला नहीं है। सात दिन बाद तुम देह त्याग कर नरक में उत्पन्न होने वाली हो।' यह क्रोधोदय श्रावक व्रतधारी तक होता है। संज्वलन क्रोध- शुद्ध स्वरूप प्राप्ति की साधना में रत मुनि को अपने दोष पर रोष होता है। श्रीमद् राजचन्द्र ने 'अपूर्व अवसर' में कहा है, 'क्रोध प्रत्ये तो वर्ते क्रोध स्वभावता...' क्रोध के प्रति ही क्रोध हो- वह संज्वलन क्रोध है। अरणिक मुनि ने अपनी भूल के प्रायश्चित में अनशन धारण किया। अपना दोष कण्टक की तरह अपने को ही चुभने लगा। अनन्तानुबन्धी मान-आत्म-ज्ञान के अभाव में व्यक्ति देह को 'मैं' रूप मान कर उसका अभिमान करता है। प्राप्त अनुकूल संयोगों का गर्व करता है। ___अप्रत्याख्यानी मान-सम्यग्दृष्टि का देहाभिमान, पर-पदार्थों के स्वामित्व का अहंकार समाप्त हो जाता है। वह सम्यक् अर्थ में स्वाभिमानी होता है। स्वस्वरूप प्राप्ति के लिए देव-गुरु-धर्म का राग होता है, उसका गौरव होता है। सम्राट अकबर ने अन्य कवियों के समान कवि गंग को अपनी खुशामद करते नहीं देखा। एक दिन अपनी स्तुति करवाने हेतु एक समस्या-पूर्ति पद दिया'सब मिल आस करो अकबर की।' कवि गंग ने दोहे की रचना करते हुए अन्त में कह दिया, 'जिसे प्रभु पर विश्वास नहीं, वह सब मिल आस करो अकबर की।' सम्राट के रुष्ट होने की भी चिन्ता कवि गंग ने नहीं की। प्रत्याख्यानी मान-बारह व्रतधारी श्रावक को अनन्तानुबन्धी एवं अप्रत्याख्यानी मान का उदय नहीं होता। प्रत्याख्यानी मान का उदय साधनापद्धति में विशिष्ट राग का कारण होता है। मांडवगढ़ के महामन्त्री पेथड़शाह Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय के भेद को प्रभु-पूजा के समय राजा भी जिनालय से बाहर नहीं बुला सकते थे । मन्त्री पद ही इस शर्त के साथ पेथड़शाह ने स्वीकार किया था। संज्वलन मान -संज्वलन मान के उदय से बाहुबलि मुनि को केवलज्ञान उपलब्धि के पश्चात् समवसरण में जाने का भाव बना था। ४७ अनन्तानुबन्धी माया-शरीर के प्रति 'मैं' का भाव अनन्तानुबन्धी माया है। सत्य है कुछ तथा समझ है कुछ। वेदान्त में जगत को माया कहा गया है, क्योंकि जगत सत्य प्रतीत होता है, सत्य है नहीं। वह परिवर्तनशील है । अप्रत्याख्यानी माया - सत्य स्वरूप का ज्ञान होने पर तत्त्व - बोध हो जाता है; किन्तु कभी-कभी न्याय-नीति हेतु, अन्याय को समाप्त करने के भाव से असत्य का आश्रय लिया जाता है। महाभारत युद्ध में क्षायिक सम्यक्त्वी श्रीकृष्ण ने द्रोणाचार्य को परास्त करने के लिए असत्य - भाषा का आश्रय युधिष्ठिर को दिलाया। 'अश्वत्थामा हतः' शब्द स्पष्ट उच्चारण करके अस्पष्ट रूप से 'नरो वा कुंजरो वा' बोला । द्रोणाचार्य ने अपने पुत्र की मृत्यु समझ कर शस्त्र त्याग दिया । प्रत्याख्यानी माया - स्वयं साधना-पद्धति से जुड़ने के पश्चात् अन्य व्यक्तियों को साधना से जोड़ने का भाव प्रायः रहता है। ऐसे कार्य में इच्छित फल प्राप्ति न होने पर साधक कई बार माया का आश्रय लेता है। महामन्त्री पेथड़शाह से देवपुरी के श्रावकों ने निवेदन किया, 'हे मांडवगढ़ शृंगार ! आपने अपनी नगरी Sant forest से मण्डित किया है; किन्तु एक प्रभु मन्दिर हमारी नगरी में भी बनवाइए । ' क्या बाधा है? प्रश्न होने पर स्पष्ट किया, 'हमारे नगर में अन्य धर्मावलम्बी हमारा जिनालय बनने में रुकावट देते हैं तथा पृथ्वीपति राजा उन्हीं की सलाह अनुसार निर्णय देता है ।' महामन्त्री पेथड़शाह ने देवपुर के मंत्री के साथ मैत्री-सम्बन्ध बाँधने के लिए मांडवगढ़ और देवपुर के मध्य एक अतिथिगृह, भोजनशाला, बावड़ी आदि का निर्माण करवाया। उसका निर्माता देवपुर के मंत्री हेमू को घोषित किया गया। मंत्री हेमू की यश, कीर्ति दिग्दिगन्त में व्याप्त होने लगी। वे आश्चर्य विमुग्ध हुए । खोजबीन करने पर सारा रहस्य स्पष्ट हुआ। दोनों नगर के मंत्रियों के मध्य मित्रता सम्बन्ध स्थापित हुआ। मंत्री हेमू के माध्यम से पेथड़शाह ने देवपुर में एक देव - विमान सःदृश जिनालय का निर्माण करवाया। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन संज्वलन माया- कभी-कभी साधना हेतु भी माया होती है। महाबल मुनि मित्र मुनियों से अधिक तप करने की भावना से उन्हें पारणा करने दिया एवं स्वयं अस्वस्थता का बहाना ले कर तप किया। मायापूर्वक किया गया यह तप तीर्थंकर नामकर्म के साथ-साथ स्त्रीवेद बन्ध का कारण बना। वे महाबल मुनि मल्ली तीर्थंकर हुए। अनन्तानुबन्धी लोभ-जिजीविषा स्वस्थता, संयोग प्राप्ति का लोभ अनन्तानुबन्धी लोभ है। जब देह को 'मैं' स्वरूप जीव मानता है, तब वह जीने की आकांक्षा, आरोग्य की वांछा, इष्ट पदार्थों के संयोग की कामना, प्रिय व्यक्तियों से सम्बन्ध बनाने की भावना रखता है। ४८ अप्रत्याख्यानी लोभ–सम्यग्दृष्टि की कामना जगत - कल्याण की होती है। साधक में धर्म-वात्सल्य उमड़ता है। तीर्थंकर बनने योग्य आत्मा इस अवस्था में उमड़ते वेगपूर्वक भावना करती है, 'सवि जीव करूँ शासन रसी' – जगत के समस्त जीवों का मैं कल्याण कर दूँ, उन्हें शाश्वत सुख दूँ । क्षायिक सम्यक्त्व वासुदेव श्रीकृष्ण ने अपने राज्य में घोषणा की थी, 'जो भी नगरवासी प्रभु नेमीनाथ के चरणों में संयम ग्रहण करे, उसके कुटुम्ब - पालन का उत्तरदायित्व मेरा है।' वे अपने निकटस्थ प्रत्येक व्यक्ति को प्रव्रज्या अंगीकार हेतु प्रेरणा देते थे। प्रत्याख्यानी लोभ-साधना - क्षेत्र में त्वरित गति से अग्रगामी होने की भावना, बारह व्रत ग्रहण कर प्रतिमाएँ धारण करने की इच्छा इस लोभ में होती है। संज्वलन लोभ - शीघ्रातिशीघ्र मुक्ति का आनन्द मिले, यह संज्वलन लोभ है । गज सुकुमाल ने नेमीनाथ प्रभु के चरणों में दीक्षा स्वीकार करके सर्वप्रथम यह प्रश्न किया था, 'प्रभो! मुझे जल्दी से जल्दी मुक्ति कैसे प्राप्त हो?" साधक क्रमशः समस्त कषायों का क्षय करता हुआ अकषाय / वीतराग अवस्था को उपलब्ध होता है। कषाय के दो भेद राग और द्वेष हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ की अपेक्षा कषाय चार प्रकार के हैं। अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी एवं संज्वलन के अनुसार कषाय के सोलह प्रकार हैं। इन्हें परस्पर गुणाकार करने पर कषाय के चौंसठ भेद भी होते हैं।' १३७ जो इस प्रकार हैं १३७. प्रथम कर्मग्रन्थ/ प्रभुदास बेचरदास पारेख संकलित कर्मग्रन्थ प्रदीप / पृ. १७९ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय के भेद ४९ कषाय के चौंसठ भेद १. अनन्तानुबन्धी-अनन्तानुबन्धी क्रोध ३३. अनन्तानुबन्धी-अनन्तानुबन्धी माया २. अनन्तानुबन्धी-अप्रत्याख्यानी क्रोध ३४. अनन्तानुबन्धी-अप्रत्याख्यानी माया ३. अनन्तानुबन्धी-प्रत्याख्यानी क्रोध ३५. अनन्तानुबन्धी-प्रत्याख्यानी माया ४. अनन्तानुबन्धी-संज्वलन क्रोध ३६. अनन्तानुबन्धी-संज्वलन माया ५. अप्रत्याख्यानी-अनन्तानुबन्धी क्रोध ३७. अप्रत्याख्यानी-अनन्तानुबन्धी माया ६. अप्रत्याख्यानी-अप्रत्याख्यानी क्रोध ३८. अप्रत्याख्यानी-अप्रत्याख्यानी माया ७. अप्रत्याख्यानी-प्रत्याख्यानी क्रोध ३९. अप्रत्याख्यानी-प्रत्याख्यानी माया ८. अप्रत्याख्यानी-संज्वलन क्रोध ४०. अप्रत्याख्यानी-संज्वलन माया ९. प्रत्याख्यानी-अनन्तानुबन्धी क्रोध ४१. प्रत्याख्यानी-अनन्तानुबन्धी माया १०. प्रत्याख्यानी-अप्रत्याख्यानी क्रोध ४२. प्रत्याख्यानी-अप्रत्याख्यानी माया ११. प्रत्याख्यानी-प्रत्याख्यानी क्रोध ४३. प्रत्याख्यानी-प्रत्याख्यानी माया १२. प्रत्याख्यानी-संज्वलन क्रोध । ४४. प्रत्याख्यानी-संज्वलन माया । १३. संज्वलन-अनन्तानुबन्धी क्रोध ४५. संज्वलन-अनन्तानुबन्धी माया १४. संज्वलन-अप्रत्याख्यानी क्रोध ४६. संज्वलन-अप्रत्याख्यानी माया १५. संज्वलन-प्रत्याख्यानी क्रोध ४७. संज्वलन-प्रत्याख्यानी माया १६. संज्वलन-संज्वलन क्रोध ४८. संज्वलन-संज्वलन माया १७. अनन्तानुबन्धी-अनन्तानुबन्धी मान ४९. अनन्तानुबन्धी-अनन्तानुबन्धी लोभ १८. अनन्तानुबन्धी-अप्रत्याख्यानी मान ५०. अनन्तानुबन्धी-अप्रत्याख्यानी लोभ १९. अनन्तानुबन्धी-प्रत्याख्यानी मान ५१. अनन्तानुबन्धी-प्रत्याख्यानी लोभ २०. अनन्तानुबन्धी-संज्वलन मान ५२. अनन्तानुबन्धी-संज्वलन लोभ २१. अप्रत्याख्यानी-अनन्तानुबन्धी मान ___ ५३. अप्रत्याख्यानी-अनन्तानुबन्धी लोभ २२. अप्रत्याख्यानी-अप्रत्याख्यानी मान ५४. अप्रत्याख्यानी-अप्रत्याख्यानी लोभ २३. अप्रत्याख्यानी-प्रत्याख्यानी मान ५५. अप्रत्याख्यानी-प्रत्याख्यानी लोभ २४. अप्रत्याख्यानी-संज्वलन मान ५६. अप्रत्याख्यानी-संज्वलन लोभ २५. प्रत्याख्यानी-अनन्तानुबन्धी मान ५७. प्रत्याख्यानी-अनन्तानुबन्धी लोभ २६. प्रत्याख्यानी-अप्रत्याख्यानी मान ५८. प्रत्याख्यानी-अप्रत्याख्यानी लोभ २७. प्रत्याख्यानी-प्रत्याख्यानी मान ५९. प्रत्याख्यानी-प्रत्याख्यानी लोभ २८. प्रत्याख्यानी-संज्वलन मान ६०. प्रत्याख्यानी-संज्वलन लोभ . २९. संज्वलन-अनन्तानुबन्धी मान ६१. संज्वलन-अनन्तानुबन्धी लोभ ३०. संज्वलन-अप्रत्याख्यानी मान ६२. संज्वलन-अप्रत्याख्यानी लोभ ३१. संज्वलन-प्रत्याख्यानी मान ६३. संज्वलन-प्रत्याख्यानी लोभ ३२. संज्वलन-संज्वलन मान ६४. संज्वलन-संज्वलन लोभ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन जगत में जितने जीव हैं, उतने स्वभाव हैं। किसी की अज्ञान दशा होती है, किन्तु कषाय मन्द होता है। किसी की ज्ञान - दशा होती है, किन्तु कषाय तीव्र दिखाई देता है। ऐसा क्यों है? जब अनन्तानुबन्धी कषाय संज्वलन स्तर की होती है, तब अज्ञानावस्था में भी मन्द कषाय परिणति दृष्टिगोचर होती है। जब संज्वलन आदि कषाय अनन्तानुबन्धी स्तर का हो, तब आत्मज्ञानी मुनि के भी तीव्र कषाय परिणाम महसूस होते हैं। इसी आधार पर आत्मा में गति - परमाणुओं का आस्रव होता है। गति योग्य कर्म परमाणु हर समय आत्मा में आते रहते हैं; किन्तु गति-निर्धारण आयु-बन्ध के पश्चात् होता है। 'स्थानांग' में इसी अपेक्षा गति - परमाणुओं का आगमन बताया गया है अनन्तानुबन्धी स्तर का अनन्तानुबन्धी कषाय होने पर नरक -गति परिणाम, अप्रत्याख्यानी स्तर के अनन्तानुबन्धी कषाय में तिर्यञ्च गति परिणाम, प्रत्याख्यानी स्तर की अनन्तानुबन्धी कषाय होने पर मनुष्य - गति परिणाम, संज्वलन स्तर की अनन्तानुबन्धी कषाय में देव - गति परिणाम होते हैं। प्रसन्नचन्द राजर्षि मुनिवेश में साधनारत थे। सूर्य की आतापना ग्रहण कर रहे थे। महाराजा श्रेणिक ने प्रभु महावीर से प्रश्न किया, 'प्रभो! इस समय यदि मुनि काल-धर्म प्राप्त करें तो क्या गति हो ?' प्रभु ने उत्तर दिया, 'नरक -गति' ! कुछ क्षण पश्चात् पुनः यही प्रश्न करने पर उत्तर प्राप्त हुआ, 'देव - गति' ! कुछ समय के बाद देव-दुन्दुभिनाद श्रवण कर जब पुनः प्रश्न किया, 'प्रभो! किसे केवलज्ञान हुआ है?' प्रभु कहा, 'प्रसन्नचन्द राजर्षि को । ' ध्यान-साधना में प्रसन्नचन्द राजर्षि के भाव परिणाम संज्वलन कषाय होने पर भी अनन्तानुबन्धी स्तर तक पहुँच गए थे। विवेक जागृत होने पर परिणाम - विशुद्धि होती गई एवं पूर्ण अकषाय अवस्था प्रकट हुई। संज्वलन मान की काल मर्यादा अधिकतम पन्द्रह दिन वर्णित है; किन्तु बाहुबलि मुनि वर्ष भर मान शल्य धारण किए ध्यानावस्थित रहे। संभवतः अप्रत्याख्यानी स्तर का संज्वलन मान था । अध्यवसाय आधार से कषाय के असंख्य भेद भी संभव हैं। ५० - Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय कषाय और कर्म ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय अन्तराय गोत्र जीव वेदनीय नाम ___pple phic भव-भ्रमण का कारण कर्म और कर्म का कारण कषाय है। राग-द्वेष रूपी भावों से युक्त होने के कारण जीव कर्मबन्ध करता है। कर्म-संयोग के कारण चतुर्गति में जन्म लेना पड़ता है, जन्म लेने से शरीर का संयोग होता है। शरीर में इन्द्रियों की व्यवस्था होती है। इन्द्रियों से विषयों का ग्रहण होता है। विषयभोग में जीव राग-द्वेष रूप कषाय करता है। राग-द्वेष से पुनः कर्मबन्ध होता हैयह क्रम सतत चलता है।' संसार की यही व्यवस्था है। कर्म आठ बताए गए हैं, जो निम्नोक्त हैं- १. ज्ञानावरणीय २. दर्शनावरणीय ३. वेदनीय ४. मोहनीय ५. आयुष्य ६. नाम ७. गोत्र ८. अन्तराय। इन कर्मों के बन्ध में कषाय की क्या भूमिका है? अब हम इस विषय की विवेचना करेंगे। (१) ज्ञानावरणीय कर्म और कषाय ज्ञानावरणीय कर्मबन्ध में कषाय भाव किस प्रकार कार्य करता है - यह कुछ प्रवृत्तियों के विश्लेषण से जाना जा सकता है, यथा१. पंचास्तिकाय | गा. १२८-१२९ २. (अ) ठाणं | स्थान ८ (ब) गो. क. / गा. ८ ३. तत्त्वार्थसूत्र | अ. ६ / सू.११ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन लोभ : अन्य की पुस्तकें, कॉपी, नोट्स, पेन आदि चुरा लेना। दूसरे के अधिकार की पुस्तकों के पन्ने फाड़ लेना, शीघ्रता के लोभ से अशुद्ध सूत्र बोलना, शब्दों की मात्रा न्यूनाधिक करना, अस्वाध्याय के समय सूत्र पठन-पाठन करना आदि। मान : विनयरहित पढ़ना, पुस्तक जमीन पर रखना, अपवित्र स्थान में रखना, उपेक्षापूर्वक पैर लगाना, थूक लगाना, मस्तिष्क के नीचे रखना; ज्ञानी से कुतर्क करना, सत्य सिद्धान्त स्मरण न आने पर विपरीत प्ररूपणा करना, सूत्र का अर्थ असत्य कहना, गूंगे-तोतले की हँसी करना आदि। क्रोध : ज्ञानी से ईर्ष्या करना, ज्ञानी की अवज्ञा, अनादर करना; किसी के पढ़ने में विघ्न डालना, अध्यापक पर क्रोध करना, उसकी निन्दा करना; पुस्तक फाड़ना, क्रोध में ज्ञान उपकरण जला देना आदि। माया: किसी की कविता पर अपना नाम लगा देना, अन्य के लेख के साथ अपना नाम जोड़ देना, ज्ञान किसी से ग्रहण करना और गुरु किसी अन्य को कहना आदि। ये सब ज्ञानावरणीय कर्मबन्ध के हेतु हैं। ज्ञान-पंचमी कथा में उदाहरण है - वसुदेव मुनि प्रतिदिन पाँच सौ मुनियों को वाचना देते थे। एक दिन उन्हें अस्वस्थता महसूस हुई। ज्वर से देह तपने लगी। मुनि शय्या पर लेट गए। मन विश्राम चाह रहा था; किन्तु एक के बाद एक मुनि अपनी अध्ययन सम्बन्धी जिज्ञासा लेकर उनके निकट आते रहे। तन ज्वराक्रान्त था; मन क्रोधाक्रान्त हो गया। 'अहो! इतनी अस्वस्थता में भी विश्राम नहीं। मुझसे अच्छा मेरा ज्येष्ठ मुनि भ्राता है। जिसकी मूढ़ता के कारण कोई उससे अपेक्षा नहीं करता।' क्रोधावेश में मुनि ने माया से मौन धारण कर लिया और निकटस्थ मुनियों को ज्ञान-दान देना बन्द कर दिया। उसी अवस्था में वे मृत्यु को प्राप्त हुए और ज्ञानप्रदान में प्रमाद, क्रोध एवं माया करने से अगले जन्म में राजकुमार होकर भी मूक, बधिर एवं कुष्ट रोग से पीड़ित हुए। (२) दर्शनावरणीय कर्म और कषाय क्रोध के वशीभूत हो किसी की इन्द्रियों का, अंगों का छेदन-भेदन करना, प्रमाद करना, निद्रा की इच्छा करना-ये सब दर्शनावरणीय कर्मबन्ध के हेतु हैं। किसी अपंग दीन-हीन को देखकर द्रवित हुए गौतम गणधर ने जब भगवान् ४. बारह पर्व कथा Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय और कर्म महावीर से वृतान्त निवेदन किया। तब प्रभुवीर ने केवलज्ञानरूपी सूर्य की प्रज्ञारश्मियों के आलोक में कहा - 'गौतम! तुम्हें कर्म विपाक देखना है तो महारानी मृगावती के पुत्र को देखो - जिसे गर्भगृह में रखा है !' गौतम गए और देखा मांस का लौंदा जैसा शरीर जिसमें इन्द्रियों के चिह्न मात्र थे! न कान, न आँख, न नाक और न मुँह । आहार हेतु तरल पदार्थ उसके शरीर पर डाल दिया - जिसे उसने पादप समान रोम छिद्रों से खींचा। तुरन्त मवाद का रूप लेकर वह आहार शरीर के रोमों से बाहर आ गया और पुनः भीतर खिंच गया। यह दृश्य देखकर गौतम गणधर के रोंगटे खड़े हो गए। प्रभु के चरणों में प्रश्न किया- 'प्रभो! मृगापुत्र की ऐसी दुर्दशा का कारण क्या है ? ' प्रभु ने अतीत के पृष्ठ खोलते हुए कहा- ‘राठौड़ के भव में इसने व्यसनाधीन होकर कितने व्यक्तियों के अंगच्छेद किए, कई घर जला दिए। इसकी क्रूरता के कारण यह आज मनुष्य देह पाकर भी इन्द्रियहीन बना है। १५ - ( ३ ) वेदनीय कर्म और कषाय सुखानुभव में कारण सातावेदनीय एवं दुःखानुभव में कारण आसातावेदनीय कर्म है। सातावेदनीय से शारीरिक स्वस्थता, पारिवारिक अनुकूलता, सुख-सुविधा तथा असातावेदनीय के उदय से दुःख, कष्ट, प्रतिकूलताएँ प्राप्त होती हैं। सातावेदनीय कर्म कषायमन्दता से बँधता है। लोभ कषाय की मन्दता स्वरूप सन्तोष गुण, सुपात्रदान, सेवा-सहयोग करना। किसी के अपराध पर क्रोध नहीं करना । गुणीजनों का विनय सेवा करना । करुणाभाव रखना - इत्यादि कारणों से सातावेदनीय कर्मबन्ध होता है । " आसातावेदनीय कर्म कषाय तीव्रता से बँधता है । यथा इच्छा पूर्ण न होने पर दुःख, शोक, सन्ताप करना । स्वयं को कष्ट देना एवं अन्य को सताना, वध करना, दुःखी करना। दूसरों का तिरस्कार करना। किसी को दुःख देकर प्रसन्न होना। " ५३ कालसौरिक कसाई प्रतिदिन पाँच सौ भैंस के पाड़े मारता था। उसका भविष्य त्रिलोक - त्रिकालदर्शी प्रभुवीर ने गौतम गणधर को बताते हुए कहा'यह असह्य वेदना से तड़प-तड़प कर मृत्यु को प्राप्त होगा एवं नरकगामी होगा। अन्य जीवों को पीड़ा देने से यह परिणाम मिलता है।' ५. विपाकसूत्र ६. तत्त्वार्थसूत्र / अ. ६ / सू. १२ ७. वही/सू. १३ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन (४) मोहनीय-कर्म और कषाय मोहनीय-कर्म के दो भेद हैं - दर्शन-मोहनीय एवं चारित्र-मोहनीय। (अ) दर्शन-मोहनीय-अभिमान वश परमात्मा सर्वज्ञ की पूर्णता में अविश्वास करना, शाश्वत सुख के हेतुभूत धर्म सिद्धान्तों का उपहास करना, सत्यमार्ग प्रकाशक सत्शास्त्रों का अविनय करना इत्यादि दर्शन-मोहनीय बन्ध के हेतु हैं। इस कर्म के उदय से जीव ज्ञानादि गुणों को स्वभाव न मानकर रागद्वेषादि को अपना स्वरूप मानने लगता है। (ब) चारित्र-मोहनीय-कषाय एवं नोकषाय का उदय इस कर्म के कारण होता है। कषाय मोहनीय बन्ध के हेतु निम्नलिखित हैं : स्वयं कषाय करना एवं दूसरों को कषाय का निमित्त देना। द्वेषवश तपस्वियों पर चारित्रदोष लगाना। कषाय उद्दीप्त करने वाला वेश या व्रत स्वीकार करना। नौ नोकषायमोहनीय १. हास्य मोहनीय : हँसना एक क्रिया है। इस क्रिया में भाव अनेक होते हैं। व्यक्ति कभी मानवश किसी का उपहास करता है, कभी किसी को हँसाने के लोभ में स्वयं को मजाक बनाता है। द्रौपदी को हँसी आई थी – दुर्योधन पर। जब जल को स्थल समझकर दुर्योधन फिसल गया था। सत्यधर्म का उपहास एवं कुत्सित हँसी-मजाक से हास्य मोहनीय का बन्ध होता है। २. रति मोहनीय : अनेक प्रकार की क्रीड़ाओं में राग, व्रत शीलपालन में रुचि का अभाव रति मोहनीय है। ११ महाशतक की पत्नी रेवती ने पौषध व्रत धारक पति को रीझाने के लिए कितनी क्रीड़ाएँ की किन्तु सफल नहीं हुई। राग की तीव्रता से रति मोहनीय का बन्ध होता है। ३. अरति मोहनीय : अरुचि या उपेक्षा भाव होना। कण्डरिक मुनि की रस लोलुपता इतनी अधिक हो गई थी कि संयमी जीवन से अरति हो गई। पाप में रुचि एवं संयम में अरति उत्पन्न ८. तत्त्वार्थ | अ. ६ / सू. १३ १०. सर्वार्थसिद्धि | अ. ६ / सू. १४ ९. मोक्षशास्त्र/अ. ६ / सू. १४ का हिन्दी अनुवाद ११. वही Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय और कर्म ५५ करने वाली प्रवृत्ति से अरति मोहनीय का बन्ध होता है। १२ ४. भय मोहनीय : भय उत्पन्न होना। कारागृह में कैद श्रेणिक राजा ने तलवार हाथ में लिए पुत्र को आते देखा तो भयभीत हो अँगूठी का हीरा चूसकर प्राण त्याग दिए। स्वयं भयभीत होने से अथवा अन्य को भयभीत करने से भय मोहनीय का बन्ध होता है। १३ ५. जुगुप्सा मोहनीय : घृणा पैदा होना। अशुचिमय पदार्थों अथवा कुरूपता को देखकर नाक-भौं सिकोड़ना! अभिमान वश किसी की घृणा करने से जुगुप्सा मोहनीय कर्मबन्ध होता है। एक कोढ़ी को समवसरण में आते देखकर कई व्यक्तियों को करुणा आई, किसी को कर्म स्वरूप का चिन्तन प्रारम्भ हआ, किसी को शरीर व्याधिमन्दिर है - इस सत्य का बोध हुआ, किन्तु कुछ जुगुप्सा भावग्रस्त भी हुए। ६. शोक मोहनीय : दुःखी होना शोक है। सुकोशल मुनि के दीक्षित होने के पश्चात् माता सहदेवी ने शोक संतप्त अवस्था में मृत्यु पाकर बाघन रूप में जन्म लिया। स्वयं शोक करना अथवा अन्य को दु:खी करने से शोक मोहनीय-कर्मबन्ध होता है। १५ ७. वेद मोहनीय : वेद तीन प्रकार के होते हैं - स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद। असत्य कथन एवं माया-कपट से स्त्रीवेद, कषाय मन्दता से पुरुषवेद तथा तीव्र कषाय, गुप्तांगों का विनाश करने से नपुंसकवेद का बन्ध होता है।१६ अपने मित्रों से अधिक तप करने हेतु से छल करने पर मुनि महाबल ने स्त्रीवेद बन्ध किया था। मोहनीय-कर्म की तीव्र परिणति को महामोहनीय कहा जाता है। १२. वही १३. सर्वार्थसिद्धि / अ. ६/सू. १५ १४. वही १५. सर्वार्थसिद्धि | अ. ६ / सू. १५ १६. वही Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन समवायांगसूत्र", दशाश्रुतस्कन्ध", उत्तराध्ययनसूत्र, प्रश्नव्याकरण' में महामोहनीय कर्मबंध के तीस कारण बताये गये हैंलोभ : कषाय से त्यागे हुए भोगों की पुनः अभिलाषा, जिसके कारण पाँवों पर खड़े हुए - उसी के धन की वांछा, हिंसक व्यापार करना, त्रस जीवों को मारना, जन-नेताओं की हत्या करना, मधुमक्खी झुंड को अग्नि जलाकर धुएँ की घुटन से मारना, प्रयोगों से जीवों को समाप्त करना, ग्लान आदि को औषध न देना। मान : सर्वज्ञ प्रभु की निन्दा, आचार्यादि की निन्दा, तपस्वियों को धर्मभ्रष्ट करना, मोक्षमार्ग से अन्य को विमुख करना, गुरुजन की सेवा न करना, अपने को वीतराग कहना। माया : अशुभाशय से सत्य को असत्य बताना, छल-कपट करना, अपने अकृत्य को अन्य पर आरोपित करना, तपस्वी न होते हुए अपने को तपस्वी बताना, अब्रह्मचारी होते हुए ब्रह्मचारी कहना, विद्वान् न होते हुए विद्वान् बताना। क्रोध : सदैव कलह करते रहना, उपकारियों के लिए विघ्न उपस्थित करना इत्यादि। इन तीव्र काषायिक वृत्तियों के फलस्वरूप महामोहनीय कर्मबन्ध होते हैं। (५) आयु कर्मबन्ध हेतु व कषाय स्थानांगसूत्र में कालापेक्षा आयु दो प्रकार की बताई गई है-२१ दीर्घ एवं अल्प। कषाय-मन्दता के परिणामस्वरूप अहिंसा पालन, विवेकपूर्वक कार्य-प्रवृत्ति, सत्य-भाषण, सुपात्र-दान, सेवा-परोपकार आदि कारणों से शुभ दीर्घायुबन्ध होता है। दूसरों को मानसिक पीड़ा या शारीरिक कष्ट देने से अशुभ दीर्घायुबन्ध होता है। २२ जीव हिंसा से अल्पायुष्य बंधता है। २३ १७. समवाओ | समवाय ३० / सू. १ १८. दशाश्रुतस्कन्ध दशा ९ १९. उत्तराध्ययनसूत्रवृत्तिपत्र ६१७, ६१८ २०. प्रश्नव्याकरणसूत्र २१. ठाणं | स्थान ३ / उद्देशक १ / सू. १७ से २० २२. ठाणं | स्थान ३ / उद्देशक १/ सू. १९ २३. ठाणं | स्थान ३ / उद्देशक १ / सू. १७ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय और कर्म गति अपेक्षा आयु चार प्रकार की होती है- (१) नरकायु, (२) तिर्यंचायु (३) मनुष्यायु (४) देवायु। इन चारों में कषाय की भूमिका निम्नलिखित हैं नरकायु बन्ध : तीव्रतम कषाय- स्थानांगसूत्रानुसार अति हिंसा, महापरिग्रह, पंचेन्द्रिय-वध, मांसाहार-नरकायु बन्ध के कारण हैं। २४ ये चारों प्रवृत्ति तीव्रतम कषाय के बिना संभव नहीं है। 'तत्त्वार्थसूत्र' की टीका में नरकायु बन्ध के कारण निम्न हैं-२५ (१) अति लोभ, (२) अति मान, (३) क्रूर परिणाम, (४) परस्त्री कामुक वृत्ति, (५) परधन हरण, (६) पाषाण-रेखा समान क्रोध, (७) दीर्घकालिक वैर, (८) अभक्ष्य आहार, (९) देव-गुरु-धर्म पर असत्य दोषारोपण, (१०) अतिरुदन, (११) कृष्ण-लेश्या, (१२) तीव्रतम कषाय परिणामों में मरण। मम्मण सेठ ने अति लोभ के फलस्वरूप नरक आयु का बन्ध किया। तन्दुलिया मत्स्य अति भाव-हिंसा परिणामों से सातवीं नरक में जाता है। अति कामवासना से चक्रवर्ती की स्त्रीरत्न नियमा छठी नरक का बन्ध करती है। तीव्रतम कषाय, नरक आयु का बन्ध हेतु है। तिर्यचायु बन्ध : तीव्रतर कषाय - 'स्थानांगसूत्र' में तिर्यंचायु बन्ध के कारण इस प्रकार दिये गए हैं-२६ (१) माया (निकृति) कषाय, (२) मिथ्या वचन, (३) झूठा माप-तौल, मिलावट, शोषण। 'तत्त्वार्थसूत्र' में माया-कषाय को तिर्यंचगति का कारण कहा गया है। २७ तत्त्वार्थ-टीका में निम्नलिखित कारण बताये गये हैं-२८ (१) दूसरे के उत्तम गुण को प्रकट नहीं करना, (२) स्वयं में गुण न होने पर भी उनके होने का दावा करना, (३) शब्द से, चेष्टा से मायाचरण करना, (४) कपट-कुटिल कर्म में तत्पर रहना, (५) गीली मिट्टी की रेखा सादृश क्रोध होना, (६) तीव्र कषाय रूप आर्तध्यान में मरण होना। तिर्यंच आयु बन्ध हेतु माया-कषाय विशेष है। अपने लाभ और मान को प्रकट न होने देने के भाव से माया का आश्रय लिया जाता है। कई व्यक्ति किसी प्रसंग में जाने का मन न होने पर बहाना बना देते है। बहाना बनाना माया कषाय है। असत्य का आश्रय माया में विशेष रूप से लिया जाता है। २४. ठाणं स्थान ४ / उद्देश्क ४ / सू. ६२८ २७. तत्त्वार्थसूत्र/ अ. ६ / सू. १७ । २५. मोक्षशास्त्र अ. ६ / सू. १५ की टीका २८. मोक्षशास्त्र अ. ६ / सू. १६ की टीका । २६. ठाणं/ स्था. ४ / उ. ४ / सू. ६२९ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन मनुष्यायु बन्ध हेतु : मन्द कषाय- 'स्थानांगसूत्र' में मनुष्य आयुबन्ध के निम्न कारण दिये गए हैं-२९ (१) प्रकृति भद्रता - सरलता (माया कषाय की मन्दता) (२) विनीतता - नम्रता (मान कषाय की अल्पता) (३) सहृदयता - दुःख में सहयोग (लोभ कषाय की न्यूनता) (४) पर-गुण सहिष्णुता, ईर्ष्या का अभाव ( मान व क्रोध की अल्पता) 'तत्त्वार्थसूत्र' में अल्पहिंसा, अल्पपरिग्रह, मृदुता और मान कषाय की मन्दता को मनुष्यायु - बन्ध का कारण निरूपित किया गया है। ३० तत्त्वार्थटीका में निम्न कारण बताये हैं-३१ (१) भद्रता (२) मधुरता (३) कोमलता (४) वैराग्यवृत्ति (५) दान प्रवृत्ति (६) ईर्ष्या का अभाव (६) श्रेष्ठाचरण (७) अशुभ निवृत्ति (८) प्राणी हिंसा से विरति (९) लोभ की अल्पता (१०) वाक् शक्ति का सदुपयोग (११) कापोत-पीतलेश्या रूप शुभ भाव (१२) शुभ भावों में मरण। किसी जंगल में दावानल सुलग उठा। एक सुरक्षित खुले स्थान पर सभी जानवर दौड़कर पहुँचने लगे। सुजातोरु नामक हाथी जिसने झाड़-झंखाड़ हटाकर उस भूमि को वनस्पति रहित किया था, वह भी पहुँचकर खड़ा हो गया। योग से कान में खुजली हुई। हाथी ने पाँव ऊँचा किया ही था कि खाली स्थान पर एक खरगोश आकर बैठ गया। हाथी का पाँव ऊपर का ऊपर रह गया। उस शशक के प्रति करुणा-भाव से तीन दिन पाँव नीचे नहीं रखा। अग्नि बुझी। सब चले गए। हाथी ने पाँव नीचे रखना चाहा - पर अकड़ने के कारण गिर पड़ा। दुस्सह वेदना भोगकर शान्त भाव से मृत्यु को प्राप्त हुआ और जन्मान्तर में महाराजा श्रेणिक का पुत्र मेघकुमार बना। देवायु बंध हेतु : मन्दतम कषाय- 'स्थानांगसूत्र' में देवायु बन्ध के चार कारण दिये हैं-३२ (१) सराग संयम- सम्यग्दृष्टि मुनि साधना-काल में शुभ एवं शुद्ध भावों में रमण करता है। शुद्धभाव मुक्ति एवं शुभभाव देवगति का कारण है। २९. ठाणं | स्था. ४ | उ. ४ / सू. ६३० ३०. तत्त्वार्थसूत्र/ अ. ६ / सू. १७-१८ ३१. मोक्षशास्त्र | अ. ६ / सू. १७ की टीका ३२. (अ) ठाणं स्था. ४/ उ. ४/ सू. ६३१ (ब) तत्त्वार्थसूत्र अ. ६/ सू. २० Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय और कर्म (२) संयमासंयम- सम्यग्दृष्टि गृहस्थ साधक श्रावक के बारह व्रतों को स्वीकार कर पाप से विरत होता है। (३) बालतप- आत्मशुद्धि के लक्ष्य के बिना विषय-कषाय का निग्रह करना अथवा तप-त्याग में संलग्न होना बालतप है। (४) अकाम निर्जरा- पराधीनतापूर्वक कष्ट सहन कर कर्मों को भोगकर समाप्त करना - अकाम निर्जरा है।। 'स्थानांगसूत्र' में कषायों की तीव्रता-मन्दता की अपेक्षा गति निर्धारण प्रतिपादित है-३३ __अनन्तानुबन्धी अर्थात् तीव्रतम कषाय से नरक गति, अप्रत्याख्यानावरण अर्थात् तीव्र कषाय से तिर्यंचगति, प्रत्याख्यानी अर्थात् मन्द कषाय से मनुष्यगति एवं संज्वलन कषाय अर्थात् मन्दतम कषाय से देवगति का बन्ध होता है। शुभभाव पुण्य का कारण है। जंगल में बलदेव मुनि का वस्त्र मुँह में दबा कर एक मृग खींचता हआ वहाँ ले गया, जहाँ एक लकड़हारा भोजन करने के लिए बैठा ही था। मुनि को देखते ही हर्षोल्लास से वह लकड़हारा आहार देने लगा। मुनि सहज निर्विकार चित्त से ग्रहण करने लगे और वह मृग आनन्द-विभोर होने लगा। उसी क्षण वृक्ष की डाल टूटी और तीनों पर गिरी। तीनों की मृत्यु हुई और शुभ-परिणामों के कारण पंचम देवलोक में उत्पन्न हुए। ६. नामकर्म बन्ध हेतु माया-कषाय की प्रमुखता नामकर्म से शरीर, इन्द्रिय, गति, संहनन, आदर, यश, सुस्वर आदि प्राप्त होता है। यह दो प्रकार का है- (१) अशुभ ; और (२) शुभ। मन-वचन-काय (त्रिकरण-योग) में कपट-वृत्ति रखना एवं अन्य को भी कुटिल विचार, वचन और व्यवहार के लिए प्रेरित करत अशुभ नामकर्म का बन्ध हेतु है। कौआ किसी को अच्छा नहीं लगता। उसकी दुःस्वर नामकर्म के कारण कर्कश आवाज में काँव-काँव सुन कर उसको उड़ा दिया जाता है। शुभ नामकर्म के बन्ध-हेतु इसके विपरीत है। हृदय की ऋजुता, सरलता, स्वच्छता से शुभ नामकर्म बन्धता है। इस कर्म के प्रभाव से वह आदर पाता है, सुस्वर मिलता है। कोयल भी कौए के समान काली है; किन्तु उसकी कुहु-कुहु की टहुकार हृदय को आह्लादित कर देती है। ३३. ठाणं स्था. ४/ उ. ४ ३४. तत्त्वार्थसूत्र/ अ. ६/ सू. २२ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन ७. गोत्रकर्म बन्ध हेतु : मान-कषाय की मुख्यता गोत्र के दो प्रकार हैं- नीच और उच्च। मान के वशीभूत हो दूसरों की निन्दा, स्वयं की प्रशंसा, अन्य के गुण को छिपाना, गुण न होने पर भी स्वयं को गुणी कहना - नीच गोत्रकर्म बन्ध के हेतु हैं। ३५ ।। मरीचि ने कुल-मद करके नीच गोत्रकर्म का उपार्जन किया था। इनसे विपरीत भाव अर्थात् आत्मनिन्दा, पर-प्रशंसा इत्यादि उच्च गोत्रकर्म के कारण हैं। श्रीपाल महाराजा को अजितसेन राजर्षि ने अवधिज्ञान से बतायाहे राजन! आपकी आठ महारानियों ने पूर्व भव में आपकी एवं आपकी पत्नी श्रीमती की नवपदाराधना की खुले हृदय से प्रशंसा की थी। उस गुणानुमोदना के परिणामस्वरूप श्रीमती की सखियों ने यहाँ महारानी पद पाया है। ८. अन्तराय कर्मबन्ध हेतु : कषाय भोगोपभोग में विघ्न उपस्थित होना- अन्तराय कर्म का फल है। ३६ अन्तराय-कर्म पाँच प्रकार के हैं- (१) दान, (२) लाभ, (३) भोग, (४) उपभोग और (५) वीर्य। (१) दानान्तराय (लोभ-कषाय की मुख्यता)-स्वयं दान न देना, कोई देता हो तो उसे अच्छा न मानना, किसी को दान देने में विघ्न देना - इत्यादि से दानान्तराय कर्म का बन्ध होता है। इस कर्म के उदय से दान देने की मनोवृत्ति नहीं बनती। कपिला दासी से महाराजा श्रेणिक ने दान दिलाने का बहुतेरा प्रयास किया, किन्तु इसमें वे सफल नहीं हुए। (२) लाभान्तराय (लोभ-कषाय से बन्धन)- किसी के लाभ में बाधा देना, सौदा तुड़वा देना, सम्बन्ध समाप्त करवा देना आदि से लाभान्तराय कर्म का बन्ध होता है। इस कर्म के उदय से परिश्रम करने पर भी लाभ नहीं होता। ढंढण मुनि को छः महीने तक गवेषणा करने पर भी निर्दोष आहार नहीं मिला। इसका कारण सर्वज्ञ प्रभु नेमिनाथ ने बताया- 'पूर्व भव में कृषक के रूप में उन्होंने दिन-भर बैलों की जोड़ी से अथक परिश्रम लिया; किन्तु उन्हें आहार नहीं दिया।' (३) भोगान्तराय (लोभ-कषाय की प्रमुखता)- जिसका एक बार उपयोग किया जा सके - वह भोग है। किसी के खाने में बाधा देना, खाते समय बीच में उठा देना इत्यादि से भोगान्तराय-कर्म बन्धता है। ३५. तत्त्वार्थसूत्र/ अ. ६/ सू. २५ ३६. तत्त्वार्थसूत्र अ. ६/ सू. २७ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय और कर्म मला। मम्मण सेठ ने पूर्व भव में एक मुनि को केसरिया मोदक का आहार दिया। उनके जाने के बाद पड़ोसी के शब्दों से भाव बदल गए। वह मुनि के पीछे भागा और मोदक लौटाने की माँग करने लगा। मुनि ने यह अन्तराय देख आहार मिट्टी में मिला दिया। इस कर्म के फलस्वरूप मम्मण सेठ को अपार धन तो मिला; किन्तु भोग की शक्ति नहीं मिली। (४) उपभोगान्तराय (लोभ-कषाय की प्रमुखता)- जिसका अनेक बार उपयोग किया जा सके - वह उपभोग है। किसी को उपभोग में बाधा देने से उपभोगान्तराय कर्म का बन्धन होता है। इस कर्म के उदय से सामग्री होने पर उसके उपभोग के लिए शारीरिक शक्ति अथवा मानसिक भावना नहीं प्राप्त होती। जैसे- वस्त्र बहमूल्य हैं, पर उन्हें अतिसंवेदनशीलता (एलर्जी) के कारण धारण न कर पाना, मखमल का गद्दा है- पर कमर-दर्द के कारण लकड़ी के तख्त पर सोना, टी०वी० है किन्तु आँखें देख नहीं पातीं, कार है, लेकिन घूमने योग्य स्वास्थ्य नहीं है। __पवनञ्जय को अंजना जैसी सुन्दरी सुकुमारी राजपुत्री पत्नी के रूप में मिली, किन्तु बाईस वर्ष तक उपभोग करने का मन ही नहीं हुआ। (५) वीर्यान्तराय (आसक्ति से शक्तिगोपन- देह अथवा धन की आसक्ति से अपनी शक्ति का सदुपयोग न करना, उसे छिपाना - वीर्यान्तराय कर्म-बन्ध के कारण हैं। मुनि स्थलिभद्र के भ्राता श्रीयक मुनि का वीर्यान्तराय कर्म इतना प्रबल था कि वे एक दिन का उपवास करने में भी समर्थ नहीं थे। सेवा में अपनी शक्ति का उपयोग करके बाहुबलीजी ने इतना सामर्थ्य पाया था कि एक वर्ष तक निराहार अकम्प स्थिति में मेरुवत् ध्यान में स्थिर खड़े रहे। कषाय की तीव्रता-मन्दता से कर्म स्थिति की न्यूनाधिकता बँधने वाले प्रत्येक कर्म की काल-मर्यादा होती है- वह कितने समय तक फल देगा? इसका निर्धारण कषाय की तीव्रता-मन्दता के आधार से होता है। कषाय-तीव्रता में प्रत्येक कर्म की दीर्घ लम्बी स्थिति बँधती है। जितनी कषाय की मन्दता होती है - कर्म की स्थिति उतनी अल्प बँधती है। मात्र देव-मनुष्यतिर्यञ्चायु की कषाय-मन्दता से स्थिति अधिक लम्बी बँधती है। अतः कर्म की स्थिति का आधार कषाय परिणाम है। ३७. गो. क./ गा. १३४ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन कषाय और कर्मफल का अनुभाग (रसबंध) । प्रत्येक कर्म में कटु या मधुर फल देने की शक्ति होती है - इसका आधार भी कषाय है। पंचम कर्म-ग्रन्थ में उदाहरण के माध्यम से इसे समझाया गया है। एक ही प्रकार का घास यदि ऊँटनी खाये तो अत्यन्त गाढ़ा और चिकना दूध देती है। ऊँटनी के दूध से भैंस का दूध, भैंस के दूध से गाय का दूध और गाय के दूध से बकरी का दूध कम गाढ़ा और कम चिकना होता है। जैसे भिन्नभिन्न पशुओं के पेट में पहुँच कर घास भिन्न-भिन्न रस रूप परिणत हो गया, उसी प्रकार एक ही प्रकार के कर्म-परमाणु भिन्न-भिन्न जीवों के कषाय के आधार पर भिन्न-भिन्न फल देने की शक्ति प्राप्त करते हैं।। पंचम कर्म-ग्रन्थ में बताया है-३९ पर्वत रेखा सम अनन्तानुबन्धी कषाय से अत्यन्त तीव्र हलाहल समान कटु अनुभागबन्ध - बँधता है। पृथ्वीरेखा सम अप्रत्याख्यानी कषाय से तीव्रतम विष के जैसा कटु रस बन्ध होता है। बालुकारेखा सम प्रत्याख्यानी कषाय से बँधने वाला अनुभाग बन्ध कांजीर समान तीव्र कटु होता है। जलरेखा के समान संज्वलन कषाय से बँधने वाला रसबन्ध - नीम के समान तीव्र कटु होता है। ये अनुभाग-बन्ध अनन्तानुबन्धी सह चारों तीव्र कषायों के सद्भाव में बँधते हैं। मन्द-कषाय की परिणति में चार प्रकार के अनुभाग बन्ध इस प्रकार होते हैं-४० मन्द (गुड़ समान), मन्दतर (खाण्ड समान), मन्दतम (शर्करा जैसी), अत्यन्त मन्द (अमृतवत्)। ये समस्त भेद मुख्यतया बताए गए हैं। वैसे सूक्ष्म रूप में कषाय के असंख्य भेद हैं, तदनुसार असंख्य रस-बन्ध भी हैं। कषाय व नोकषायें मोहनीय सम्बन्धित प्रकृति-बन्ध कषाय-मोहनीय कर्मप्रकृति समय के परिपक्व होने पर क्रोध, मान, माया, और लोभ आदि भावों के उदय का कारण बनती है। नोकषाय मोहनीय कर्मप्रकृति काल परिपाक होने पर हास्य, रति आदि नोकषाय रूप भावों के उदय का कारण बनती है। ____ इन कर्म-प्रकृतियों का स्वरूप अनेक अपेक्षाओं से पंचम कर्म-ग्रन्थ में प्रतिपादित है।" ३८. पंचम कर्म-ग्रन्थ/ गा. ६३-६४ की व्याख्या३९. (अ) गो. क./ गा. १८४ (ब) पंचम कर्म-ग्रन्थ/ गा. ६५ ४०. (अ) गो. क./गा. १८४ (ब) पंचम कर्म-ग्रन्थ गा. ६५ ४१. पंचम कर्म-ग्रन्थ / गा. २ से १९ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय और कर्म (क) ध्रुवबन्धिनी- अपने कारण की विद्यमानता में जो कर्म-प्रकृतियाँ अवश्य बँधती हैं, वे १८ हैं। ___ सोलह कषाय एवं भय, जुगुप्सा- इन कर्म-प्रकृतियों का उदय समय भी सतत् बन्धन चलता है। (ख) अध्रुवबन्धिनी- बन्धकारण होने पर जो कर्म-प्रकृतियाँ कभी बँधती भी हैं और कभी नहीं भी बँधती हैं अर्थात् किन्हीं दो या तीन कर्म-प्रकृतियों में से एक का बन्ध होता है। हास्य अथवा शोक, रति या अरति, स्त्रीवेद-पुरुषवेद-नपुंसकवेद में से एक प्रकृति का एक समय बन्ध। (ग) ध्रुवोदया- जो कर्म-प्रकृतियाँ कर्म-क्षय की अन्तिम अवस्था तक उदय में रहती हैं। कोई भी कर्म-प्रकृति सदा उदय में नहीं रहती। (घ) अधुवोदया- अपने उदयकाल-पर्यन्त जो कर्म-प्रकृतियाँ कभी उदय में होती है, कभी नहीं। __ कषाय अथवा नोकषाय मोहनीय की समस्त प्रकृतियाँ निरन्तर उदय में नहीं रहती। एक समय एक का उदय होता है। (ङ) ध्रुवसत्ता- जिनकी सत्ता विच्छेद काल तक बनी रहती हैं। अपने उदयकाल पर्यन्त सभी की सत्ता बनी रहती है। (च) अध्रुवसत्ता- जिनकी सत्ता विच्छेद काल से पूर्व कभी रहती हैं, कभी नहीं। अध्रुवसत्ता वाली कोई कर्म-प्रकृति नहीं है। (छ) सर्वघातिनी- जो कर्म-प्रकृतियाँ आत्म-गुणों का पूर्ण रूप से घात करती हैं। वे निम्न हैं अनन्तानुबन्धी चतुष्क, अप्रत्याख्यानी चतुष्क, प्रत्याख्यानावरण चतुष्क। (ज) देशघातिनी- आंशिक रूप से आत्म-गुणों को आवृत करने वाली कर्म-प्रकृतियाँ- संज्वलन कषायचतुष्क, नौ नोकषाय । (झ) पुण्य-पाप- शुभाशुभ फल देने वाली कर्म-प्रकृतियाँ। तत्त्वार्थसूत्रानुसार ४२- हास्य, रति, पुरुषवेद पुण्यकर्म-प्रकृतियाँ तथा अन्य सभी पाप कर्म-प्रकृतियाँ हैं। गोम्मटसार के अनुसार- सभी कर्म-प्रकृतियाँ पाप प्रकृतियाँ हैं। (अ) परावर्तमाना- सजातीय कर्म-प्रकृति के उदय का निरोध करके जो कर्म-प्रकृतियाँ उदय होती हैं। सोलह कषाय, हास्य-रति, अरति-शोक, तीन वेद। (त) अपरावर्तमाना- किसी कर्म-प्रकृति के उदय को न रोक कर जो उदय होती हैं वे हैं- भय, जुगुप्सा। ४२. तत्त्वार्थसूत्र अ. ८/ सू. २६ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन - कषाय - नोकषाय मोहनीय कर्म-प्रकृतियों के बन्ध-स्थान एक समय में जितने कर्मों के बन्ध होते हैं, उतने समूह को बन्धस्थान कहते हैं। किस गुण स्थान में कितनी कर्म-प्रकृतियाँ युगपत् बन्ध को प्राप्त होती हैं, निम्नलिखित हैं- ४३ बन्ध गुण कर्म-प्रकृतियाँ कुल स्थान स्थान संख्या १ १ सोलह कषाय, हास्य-रति (अथवा अरति शोक), एकवेद, भय, जुगुप्सा २ २ सोलह कषाय, हास्य-रति (अथवा अरति शोक) पुरुषवेद (या स्त्रीवेद), भय, जुगुप्सा ३ अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानावरण, संज्वलन (१२ कषाय), हास्य-रति (अथवा शोक अरति) पुरुषवेद (अथवा स्त्रीवेद), भय, जुगुप्सा १७ - " १७ ५ ५ प्रत्याख्यानावरण, संज्वलन (८ कषाय), हास्य-रति (अथवा शोक अरति)पुरुषवेद (अथवा स्त्रीवेद), भय, जुगुप्सा संज्वलन कषाय, हास्य-रति (या शोक अरति) पुरुषवेद (या स्त्रीवेद), भय, जुगुप्सा ७ संज्वलन कषाय, हास्य-रति, पुरुषवेद (या स्त्रीवेद) भय, जुगुप्सा ८८ ९ ९ (भाग-१) संज्वलन कषाय, एक वेद १० ९ (भाग-२) संज्वलन कषाय ११ ९ (भाग-३) संज्वलन मान, माया, लोभ १२ ९ (भाग-४) संज्वलन माया, लोभ १३ ९ (भाग-५) संज्वलन लोभ प्रदेश-बन्ध जिस प्रकार आग में तपाये लोहे के गोले को पानी में डाल देने पर वह अपने निकटवर्ती जल को ग्रहण करता है, किन्तु दूरस्थ जल को ग्रहण नहीं करता; वैसे ही जीव जिन आकाश-प्रदेशों में स्थित होता है - उन्हीं आकाशप्रदेशों में रहने वाले कर्म-परमाणुओं को ग्रहण करता है। जीव के द्वारा ग्रहण किये जाने वाले कर्म-परमाणुओं की कषाय एवं नोकषाय मोहनीय में विभाजन की प्रक्रिया को तालिका के माध्यम से स्पष्ट कर रहे हैं। ४३. पंचम कर्म ग्रन्थ गा. २४ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय और कर्म कषाय एवं नोकषाय मोहनीय कर्म-प्रकृतियों का प्रदेश-बन्ध कर्म-परमाणुओं का विभाजन " सर्वघाती देशघाती अनन्तानुबन्धी अप्रत्याख्यानी प्रत्याख्यानावरण कषायचतुष्क कषायचतुष्क कषायचतुष्क कषाय मोहनीय नोकषाय मोहनीय - - - संज्वलन क्रोध संज्वलन मान संज्वलन माया संज्वलन,लोभ । । । हास्य रति भय जुगुप्सा स्त्रीवेद/पुरुषवेद शोक अरति नपुंसक वेद गोम्मटसार के अनुसार कर्म-परमाणुओं का कषाय एवं नोकषाय मोहनीय कर्म-प्रकृतियों में विभाजन- १५ __ सर्वाधिक कर्म-परमाणु अनन्तानुबन्धी लोभ उससे अल्प माया क्रोध मान अप्रत्याख्यानी लोभ माया क्रोध मान प्रत्याख्यानावरण लोभ माया क्रोध मान संज्वलन लोभ संज्वलन लोभ के समान संज्वलन माया, क्रोध, मान, हास्य/शोक, रति अरति, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद/पुरुषवेद/नपुंसकवेद में कर्म-परमाणुओं का बँटवारा होता है। ४४. पंचम कर्म ग्रन्थ/ गा. ८१ ४५. गो. क./ गा. २०२ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ कषाय एवं नोकषाय मोहनीय का अनुभाग - बन्ध४६ किस कर्म - प्रकृति का फल कितना कठोर हो सकता है, इसे बताने के लिए 'गोम्मटसार' में चार उपमाएँ दी गयी हैं : उपमाएँ शैल (पर्वत) [ कठोरतम ] अस्थि (हड्डी) [ कठोरतम ] दारू की लकड़ी [कठोर ] अनन्त बहुभाग कुछ भाग लता (मृदु ) १-४ ५-८ ९-१२ १३ १४ १५ १६ harathara अनन्तानुबन्धी-चतुष्क अप्रत्याख्यानी चतुष्क प्रत्याख्यानावरण चतुष्क संज्वलन क्रोध संज्वलन मान संज्वलन माया संज्वलन लोभ १७-१८ हास्य, रति १९-२२ अरति, शोक, भय, जुगुप्सा २३ स्त्रीवेद २४ २५ पुरुषवेद नपुंसकवेद कषाय एवं नोकषाय मोहनीय कर्म-प्रकृतियों का स्थिति-बन्ध ( काल - मर्यादा) कषाय: एक तुलनात्मक अध्ययन कर्म - प्रकृतियाँ अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क अप्रत्याख्यानी कषायचतुष्क प्रत्याख्यानावरण कषायचतुष्क ४६. गो. क. / गा. १८० ४७. ( अ ) पंचम कर्म ग्रन्थ / गा. २९ से ३२ "" संज्वलन कषायचतुष्क, नो कषाय - नौ संज्वलन कषायचतुष्क, नो कषाय- नौ अधिकतम स्थिति ४० कोडाकोडी सागरोपम ४० कोडाकोडी सागरोपम ४० कोडाकोडी सागरोपम ४० कोडाकोडी सागरोपम ४० कोडाकोडी सागरोपम ... ४० कोडाकोडी सागरोपम ४० कोडाकोडी सागरोपम १० कोडाकोडी सागरोपम २० कोडाकोडी सागरोपम १५ कोडाकोडी सागरोपम १० कोडाकोडी सागरोपम २० कोडाकोडी सागरोपम (ब) क. चू. / अ. ३ / गा. २२ / सू. १६ से २२ ( स ) तत्त्वार्थसूत्र / अ. ८ / सू. २१ 11 ૪૭ अल्पतम-स्थिति दो समय दो समय दो समय अन्तर्मुहूर्त कम दो महीना अन्तर्मुहूर्त कम एक महीना अन्तर्मुहूर्त कम आधा महीना एक समय संख्यात वर्ष प्रमाण संख्यात वर्ष प्रमाण एक समय अन्तर्मुहूर्त कम आठ वर्ष एक समय Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय कषाय और गुणस्थान सिद्धशिला चौदह गुणस्थान - सीढ़ी-दर-सीढ़ी चढ़ते हुए व्यक्ति इमारत की एक मंजिल से दूसरी मंजिल पर पहुँच जाता है; मार्ग में मील के पत्थरों को पीछे छोड़ता हुआ यात्री अपने गन्तव्य पर पहुँच जाता है, वैसे ही आत्म-विकास के चौदह सोपानों पर चढ़ते हुए आध्यात्मिक यात्री मोक्ष-मंजिल पर पहुँच जाता है। आगम साहित्य में इन्हें जीव-स्थान' एवं परवर्ती साहित्य में गुणस्थान' संज्ञा दी गई है। ये चौदह हैं (१) मिथ्यादृष्टि (२) सास्वादन (३) सम्यगमिथ्यादृष्टि (४) अविरत सम्यग्दृष्टि (५) देशविरत सम्यग्दृष्टि (६) प्रमत्तसंयत (७) अप्रमत्तसंयत (८) अपूर्वकरण (निवृत्ति बादर) (९) अनिवृत्ति बादर (१०) सूक्ष्म सम्पराय (११) उपशान्त कषाय छद्मस्थ वीतराग (१२) क्षीणकषाय छद्मस्थ वीतराग (१३) सयोगी केवली (१४) अयोगी केवली गुणस्थान। (१) मिथ्यादृष्टि गुणस्थान (अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय)अनादिकाल से मिथ्यात्व अर्थात् विपरीत श्रद्धा के वशीभूत होकर जीव की १. जीवट्ठाणा पण्णता (समवाओ/ समवाय १४/ सू. ५) २. गो. जी. /गा. ८ ३. द्वितीय कर्म-ग्रन्थ /गा. २ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन शरीर में 'मैं (अहं) बुद्धि', परिवार में 'मम बुद्धि', इष्ट संयोगों में 'सुखबुद्धि', शाता सम्मान में 'उपादेय-बुद्धि' बनी रहती है। मिथ्यादृष्टि को कर्तव्य-अकर्तव्य, श्रेय-अशेय, पुण्य-पाप, तत्त्व-अतत्त्व, धर्मअधर्म के यथार्थ स्वरूप का निश्चय नहीं होता है। वह नव-तत्त्व के स्वरूप को सम्यक् प्रकार से नहीं जानता है। यथा __ जीव को अजीव मानना- जीव अनामी है, पर शरीर के आधार पर नामी मानता है। चेतन अरूपी है, पर देह के कारण अपने को रूपी जानता है। मूलतः आत्मा वीतराग स्वभावी है, किन्तु राग-द्वेष को अपना स्वभाव समझता है। आत्मा अजर-अमर है, लेकिन शरीर की उत्पत्ति और विनाश के आधार पर स्वयं के जन्म-मरण की धारणा बनाता है। अजीव (पुद्गल) के वर्ण, गंध, रस, स्पर्श लक्षणों से अपना अस्तित्व मानता है, यह कि मैं काला हूँ, मैं गोरा हूँ, मैं भारी हूँ, मैं हल्का हूँ, मैं लम्बा हूँ, मैं बौना हूँ, इत्यादि। पुण्य-पाप के स्वरूप के प्रति मिथ्याभाव- शुभ भावों से पुण्य एवं अशुभ भावों से पाप-बन्ध होता है। यद्यपि अशुभ की अपेक्षा शुभ-भाव श्रेयस्कर है ; तथापि शुद्धता की अपेक्षा पुण्य एवं पाप दोनों हेय हैं। तीव्र अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय में तो जीव पाप को भी उपादेय मान लेता है; जैसे- क्रोध करने से सब अनुशासित रहते हैं, झूठ बोलने से लोकप्रिय बना जा सकता है। मिलावट से, कम तौलने से धनवान् बनते हैं, आदि गलत धारणाएँ रहती हैं। मन्द कषाययुक्त मिथ्यात्वी पाप को हेय तथा पुण्य को सम्पूर्णतया उपादेय समझता है। आत्म-ज्ञानी पाप को हेय, पुण्य को मोक्ष की अपेक्षा हेय और पाप की अपेक्षा उपादेय मानता है। आस्रव-संवर का अन्यथा रूप- शुभ-भाव शुभास्रव एवं शुद्ध-भाव का कारण है। मिथ्यात्व दशा में शुभ-भाव में जीव संवर की कल्पना कर लेता है। सामायिक, स्वाध्याय काल में यदि मात्र जप, शास्त्र-वाचन आदि प्रवृत्ति है तो पुण्यास्रव एवं आत्म-रमणता की स्थिति हो तो संवर का निमित्त बनती है। बन्ध-निर्जरा का अन्यथा रूप- तत्त्वार्थसूत्र में 'तपसा निर्जरा च' सूत्र उल्लिखित है। तप से निर्जरा होती है; पर कब? जब बाल-तप नहीं; अपितु सम्यक् तप हो। तृतीय अध्याय में देवायुबन्ध में बाल-तप को कारण बताया गया ४. ५. ६. रयणसार गा. ४० तत्त्वार्थसूत्र / अ. ६ /सू. ३ मोक्षमार्ग प्रकाशक/ अधि. ७/ पृ. २५५-२५६ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय और कर्म है। बाह्य-तप यदि अशुभ- भाव संयुक्त होगा तो पाप-बन्ध, शुभ भाव सहित होगा तो पुण्य-बन्ध तथा शुद्ध आत्मभाव रूप होगा तो निर्जरा का निमित्त बनेगा । " मोक्ष तत्त्व का अन्यथा रूप - तीव्र कषायोदय से युक्त मिथ्यात्वी मोक्ष का अस्तित्व ही नहीं स्वीकार करता । मोक्ष की चर्चा करने वाले का उपहास करता है । मन्द- कषायी जीव मोक्ष सुख और स्वर्ग-सुख में भेद नहीं कर पाता। वह यह नहीं समझ पाता कि स्वर्ग में विषय-जनित सुख एवं मोक्ष में सहज स्वतन्त्र आत्मिक सुख है । मिथ्यादृष्टि तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप का ज्ञाता नहीं होता । तीव्र कषाय की स्थिति में तत्त्व-ज्ञान सम्पादन की रुचि नहीं होती । मन्द- कषाय की अवस्था में इन्द्रिय-विषयों के प्रति वैराग्य, कषाय का उपशम भाव, आत्मानुभव की तीव्र अभिलाषा, सत्समागम और तत्त्वज्ञान की प्राप्ति हो तो जीव सम्यग्दर्शन योग्य पात्र बनता है। सम्यग्दर्शन से पूर्व तीन प्रकार के करण होते हैं ८ यथाप्रवृत्तिकरण (मन्द कषाय की स्थिति ) - पहाड़ी नदी के प्रवाह में लुढ़कता पाषाण- खण्ड गोल और चिकना हो जाता है; ' वैसे ही कष्टों के थपेड़े खाती हुई आत्मा कर्म-निर्जरा करके कषाय- मन्दता और आत्म-विशुद्धि को प्राप्त करती है। कर्म-परमाणुओं की स्थिति अन्तः कोटाकोटी सागरोपम रह जाती है–' इस अवस्था को यथाप्रवृत्तिकरण कहते हैं । दिगम्बर परम्परा में इसे अद्यःकरण कहा गया है। अद्यःकरण से पूर्व जीव चार लब्धि प्राप्त करता है, जो निम्न हैं- " श्रवण ( १ ) क्षयोपशम ( चिन्तन की शक्ति ), ( २ ) देशना ( सम्यक् उपदेश का मनन ), (३) विशुद्धि ( कषाय-मन्दता) : ( ४ ) प्रायोग्य ( अन्तः कोटाकोटी सागरोपम स्थिति), (५) करण- ( ( अ ) अद्य:करण ( ब ) अपूर्वकरण ( स ) अनिवृत्तिकरण । अपूर्वकरण ( अनन्तानुबन्धी कषाय-ग्रन्थि का छेदन) - विशेषावश्यकभाष्य में एक उदाहरण दिया गया है - " किसी भयंकर अटवी (जंगल) में तीन मोक्षमार्ग प्रकाशक / अधि. ७ / पृ. २३३ ८. विशेषा. / गा. १२०७ ९. विशेषा. / गा. ११९४ १०. गो. जी. / गा. ४८ ११. विशेषा / गा. १२११ ७. १२१४ ६९ . Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन पथिकों को अपनी ओर आते हुए चोर दिखाई दिये। भयभीत हो कर एक पथिक उल्टे पाँव चल पड़ा, दूसरे पथिक ने सामना किया, पर परास्त हो गया। तीसरे पथिक ने चोरों को पराजित कर दिया एवं अपने गन्तव्य पर सकुशल पहुँच गया। __ इसी प्रकार भयंकर अटवी-रूप इस संसार में कई जीव यथाप्रवृत्तिकरण तक पहुँच जाते हैं; लेकिन अनन्तकालीन आसक्ति रूप राग-द्वेष की तीव्रता से अपूर्वकरण नहीं कर पाते हैं। कुछ साधक राग-द्वेष को जीतने का प्रयास करते हैं, किन्तु अन्ततः हार जाते हैं। कुछ साधक तीव्र भावोल्लास से उस अनन्तकालीन राग-द्वेष की निबिड-ग्रन्थि को तोड़ डालते हैं-१२ ऐसी अवस्था अपूर्व भाव-विशुद्धि से प्राप्त होती है। अतः इसे अपूर्वकरण कहते हैं। अनिवृत्तिकरण- ये करण सम्यक्त्व-सम्मुख जीव को होता है। इस अवस्था को प्राप्त साधक सम्यक्त्व-लाभ के बिना निवृत्त नहीं होता। इसके अन्तिम समय में मिथ्यात्व रूपी अन्धकार विलीन होता है एवं सम्यक्त्व रूपी सूर्य का उदय होता है। (२) सास्वादन (अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय)- यह गुणस्थान क्रम की अपेक्षा से द्वितीय स्थान पर है; किन्तु इस गुणस्थान का स्पर्श चतुर्थ गुणस्थान से पतित आत्मा करती है। १३ उपशम सम्यक्त्व प्राप्ति के क्षणों में अनन्तानुबन्धी कषाय उपशमित रहता है। अन्तर्मुहूर्त में अल्पतम एक समय और अधिकतम छह आवली शेष रहने पर अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया एवं लोभ में से किसी एक कषाय का उदय होने पर सम्यक्त्व नष्ट हो जाता है और जीव मिथ्यात्वसम्मुख हो पड़ता है। इस काल में सास्वादन गुणस्थान की प्राप्ति होती है। (३) मिश्र (अनन्तानुबन्धी कषाय का अभाव)- सम्यक्त्व एवं मिथ्यात्व की मिश्रित स्थिति है, मिश्र गुणस्थान। दही और गुड़ के मिश्रित स्वाद जैसी यह स्थिति है। जैसे छोटा-सा टिमटिमाता दीया जलाते हैं। एक कोने में रोशनी भी हो जाती है, कमरा अंधेरा भी बना रहता है। इस अवस्था में धर्म-बोध की कुछ झलक होती है। प्रथम गुणस्थानवी जीव मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी कषाय का जब निरोध करता है तथा मिश्र मोहनीय का अनुभवन करता है, तब वह १२. विशेषा. / गा. ११९५ १३. गो. क./गा. १९ की टीका १४. द्वितीय कर्म-ग्रन्थ पृ. २१५ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय और कर्म गुणस्थानक होता है। चतुर्थ गुणस्थानकवर्ती जीव भी कभी-कभी तीसरे गुणस्थानक का स्पर्श कर पुनः चतुर्थ गुणस्थान को प्राप्त कर लेता है। (४) अविरत सम्यग्दृष्टि (अप्रत्याख्यानादि कषाय का उदय)सम्यग्दर्शन एक अनुपम उपलब्धि है। ज्यों घने अंधकार में बिजली कौंधने पर आसपास का सम्पूर्ण दृश्य दिखाई दे जाता है, त्योंहि आत्मानुभव का प्रकाश होने पर देह और आत्मा की भिन्नता का स्पष्ट बोध हो जाता है; देह में आत्मभ्रान्ति समाप्त हो जाती है। इस भूमिका में बोध हो जाने पर भी भोगों अथवा हिंसा आदि पापों के प्रति विरक्त भाव जागृत नहीं हो पाता। बोध हो जाता है, एक दृष्टि मिल जाती है। ठीक-ठीक समझ में आ जाता है, क्या करने योग्य है, क्या न करने योग्य है। दिखता है कि सत्य क्या है? लेकिन जो समझा है, वह आचरण नहीं बन पाता। स्पष्ट प्रतीति होती है कि सत्य बोलें। सत्य ही शुभ है। लेकिन असत्य का त्याग कर दें, इतना साहस नहीं जुट पाता। सत्य जानना अलग है और सत्यमय हो जाना अलग है। सही रास्ते का ज्ञान होना और उस पर चल पड़ना - दोनों अलग-अलग अवस्थाएँ हैं। सम्यग्दृष्टि समझता है कषाय उपादेय नहीं है; किन्तु कषाय विनष्ट नहीं होता। सम्यग्दर्शन तीन प्रकार का कहा गया है-१५ (अ) औपशमिक- अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क एवं दर्शनमोह का उपशम। (ब) क्षायोपशमिक- अनन्तानुबन्धी कषाय, मिथ्यात्व एवं मिश्र मोहनीय का उपशम तथा सम्यक्त्व मोहनीय का उदय। (स) क्षायिक- अनन्तानुबन्धी कषाय एवं दर्शन-मोह का क्षय। (५) देशविरति सम्यग्दृष्टि (प्रत्याख्यान कषायोदय)- देशविरत! इस गुणस्थान से संयम का क्षेत्र प्रारम्भ होता है। अब सत्य का आंशिक आचरण होने लगता है। देशविरत वह है, जिसने अपने जीवन में सीमा बनानी शुरू कर दी। अपने जीवन को परिधि देनी प्रारम्भ की। दिशा तय हुई, देश तय हुआ, सीमा बाँधी, संयम में उतरे। अपने जीवन को संयत करने पर साधना में गहराई आने लगती है। आज आत्मिक कर्तव्य में रस होता है, अकर्तव्य में धीरे-धीरे विरसता आती है। ऊर्जा का ऊर्ध्वारोहण होने लगता है। अप्रत्याख्यानी कषाय १५. सर्वार्थसिद्धि/ अ. १ /सू. ७ की टीका Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन का क्षयोपशम हो कर भोगोपभोग से आंशिक रूप में विरत हो जाता है।६ प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय सर्वविरति में बाधक रहता है। (६) प्रमत्तसंयत (संज्वलन कषाय का उदय)- प्रमत्तविरत। संयम के साथ-साथ मंद रागादि के रूप में प्रमाद रहता है। संयम है, अनुशासन है, लेकिन जन्म-जन्मान्तर के कषाय संस्कारों की मन्द छाया है। कषाय उदित होता है; किन्तु शीघ्र समाप्त हो जाता है। भ्रम, स्मृति-भ्रंश, शुभ-रागादि प्रमाद से साधक ग्रस्त रहता है। इस अवस्था में साधक बाह्य शुभ-प्रवृत्तियों में व्यस्त होता है। हिंसादि पापों का सम्पूर्णतया त्याग हो जाता है। प्रत्याख्यानावरण कषाय का क्षयोपशम एवं संज्वलन कषाय का उदय होने पर प्रमत्तसंयत गुणस्थान होता है। १७ (७) अप्रमत्तसंयत (मन्द संज्वलन कषाय)- इस गुणस्थान में किसी प्रकार का भी प्रमाद प्रगट नहीं होता। किसी तरह की अभिव्यक्ति नहीं होती। अब कोई स्थिति नहीं होती प्रकट राग की। भीतर अचेतन मन में कषाय-तरंगे उठती हैं और वहीं विलीन हो जाती हैं। चेतन मन द्रव्य गुण-पर्याय के चिन्तन में तल्लीन होता है। स्वरूपाचरण में आनन्दानुभव की ऊर्मियों उठती रहती हैं। इस गुणस्थान का समय अन्तर्मुहर्त से अधिक न होने के कारण साधक कभीप्रमत्त कभी अप्रमत्तावस्था का झूला झूलता है। अप्रमत्तता की स्थिति बढ़ने पर साधक श्रेणी प्रारम्भ करता है। संज्वलन कषायोदय रहता है। (८) अपूर्वकरण (मन्दतर संज्वलन कषाय)- साधना की इस भूमिका में प्रवेश होने पर जीवों के परिणाम प्रति समय अपूर्व-अपूर्व होते हैं। सातवें गुणस्थान में भूमिका निर्माण और आठवें से श्रेणी आरोहण प्रारम्भ होता है। प्रतिपल अपूर्व-अपूर्व अनुभव होते हैं, जैसे कभी न हए थे। चौदह गुणस्थानों की आधी यात्रा पूर्ण हो चुकी, मुक्ति की ओर, भवसागर के किनारे की तरफ यात्रा प्रारम्भ हो गई। अपूर्व करण निम्न हैं १. अपूर्व स्थितिघात, (२) अपूर्व रसघात (३) अपूर्व गुणश्रेणी (४) अपूर्व गुणसंक्रमण (५) अपूर्व स्थितिबंध। संज्वलन कषाय का मन्दतर उदय होता है। अपूर्वकरण में समाधि की स्थिति होती है। अनुभव के स्रोत खुलते चले जाते हैं। भीतर कषाय-संस्कार उपशमित अथवा क्षय होते चले जाते हैं। १६. विशेषा./ गा. १२३१ १७. विशेषा/गा. १२३४ १८. विशेषा. / गा. १२४७ - १२४८ १९. जैनधर्म ना कर्म सिद्धांत नुं विज्ञान/ जयशेखर सूरि | पृ. २८ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय और कर्म 1 ( ९ ) अनिवृत्ति बादर ( मन्दतम संज्वलन कषाय ) इस गुणस्थान में सभी साधकों की समान परिणाम दशा होती है। आठवें तक भेद बने रहते हैं, नौंवे से अभेद शुरू होता है। समान समयवर्ती सभी साधकों के परिणाम समान हो जाते हैं और प्रतिसमय उत्तरोत्तर अनन्तगुनी विशुद्धता को प्राप्त होते हैं। संज्वलन कषाय के मन्दतम उदय में वीर्योल्लास प्रखर होने से स्वरूप - रमणता की स्थिति बनी रहती है। कषाय-नोकषाय मोहनीय कर्म-स्थितियों का उपशम अथवा क्षय का क्रम जारी रहता है। (१०) सूक्ष्म - सम्पराय ( सूक्ष्म लोभ का उदय ) - सूक्ष्म - सम्पराय में अभिव्यक्ति रूप में कषाय उदय न होने पर भी अचेतन मन में लोभ की सूक्ष्म छाया शेष रहती है । " सूक्ष्म है, दिखाई नहीं दे रहा, अदृश्य तरंग है । जैसे- फर्श पर पानी गिरकर सूख जाता है किन्तु एक सूखी रेखा रह जाती है। ( ११ ) उपशान्त - मोह ( कषाय का पूर्ण उपशम ) - इस गुणस्थान में कषायों का उपशमन हो जाने से वह कुछ काल के लिए वीतराग समान हो जाता है। मोह शान्त हो जाता है। जैसे- धूल, कूड़ा-करकट नदी की तह में बैठ जाते हैं और ऊपर पानी एकदम स्वच्छ और साफ दिखाई देता है। लेकिन जरा-सा पानी को हिलाया कि नीचे बैठा कचरा ऊपर आ जाता है। वैसे ही कषाय का पूर्ण उपशम होने के पश्चात् भी अन्तर्मुहूर्त में दमित वासनाएँ संयोग पाकर पुनः प्रज्ज्वलित हो जाती हैं। फलतः इस गुणस्थान से अवरोह प्रारम्भ हो जाता है। ७३ (१२) क्षीण-मोह ( कषाय का सम्पूर्ण क्षय ) - कषायों का समूल नाश ! अब ऐसा नहीं कि झरने के नीचे कचरा बैठा है, कचरा झरने से समाप्त कर दिया गया। जल बिल्कुल शुद्ध हो गया । कषाय की समस्त प्रकृतियों का क्षय हो गया। साधक वीतराग अवस्था को उपलब्ध होता है। मोहनीय के अनन्तर अन्य तीन घाती कर्म- ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय एवं अन्तराय का क्षय होता है। (१३) सयोगी केवली ( अकषाय अवस्था ) - केवलज्ञानी का जब तक देह से संबंध है, वह सयोगी है। भगवद्शक्ति, शुद्ध अवस्था प्राप्त है, किन्तु काया के साथ संयोग है। (१४) अयोगी केवली ( अकषाय अवस्था) - मन, वचन, काय की समस्त चेष्टाएँ समाप्त / शान्त हो कर शैलेशी स्थिति को प्राप्त करने की अवस्था अयोगी केवली है। देह से सम्बन्ध छूटते ही साधक सिद्धावस्था प्राप्त करता है। २०. विशेषा. / गा. १३.०२ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन उपरम एवं सपक श्रेणी में कषायों का उपशम व आप (९) उपशम एवं क्षपक श्रेणी में कषायों का उपशम व क्षय गुण ___ उपशम श्रेणी गुण क्षपक श्रेणी२ स्थान स्थान (८) सर्वप्रथम अनन्तानुबन्धी चतुष्क (८) अन. चतुष्क, तत्पश्चात् दर्शन उसके पश्चात् दर्शनमोहनीयत्रिक मोहनीयत्रिक, उसके बाद का उपशम अप्रत्या., प्रत्याख्या - आठ पुरुषवेदी - पहले नपुंसकवेद, उसके (९) कषाय बाद स्त्रीवेद का उपशम करता है। नपुंसकवेद एवं स्त्रीवेद का एक स्त्रीवेदी - पहले नपुंसकवेद, फिर साथ क्षय। पुरुषवेद का हास्य, रति, अरति, भय, शोक, नपुंसकवेदी - पहले स्त्रीवेद, फिर जुगुप्सा का क्षय। पुरुषवेद का उपशम करता है। भाग-२ हास्य, रति, अरति, भय, शोक, पुरुषवेद जुगुप्सा भाग-३ पुरुषवेदी - पुरुषवेद का, स्त्रीवेदी - संज्वलन क्रोध स्त्रीवेद का, नपुंसकवेदी -नपुंसकवेद संज्वलन मान का उपशम करता है। भाग-४ अप्रत्या., प्रत्या. क्रोध संज्वलन लोभ का अन्तर्मुहूर्त में भाग-५ संज्वलन क्रोध अनुक्रम से क्षय होता है। भाग-६ अप्रत्या., प्रत्या. मान भाग-७ संज्वलन मान भाग-८ अप्रत्या., प्रत्या. माया भाग-९ संज्वलन माया भाग-१० अप्रत्या. प्रत्या. लोभ भाग-११ संज्वलन लोभ के असंख्यात् खंड करके एक-एक खंड का उपशम गुण.१० संज्वलन लोभ का सूक्ष्मांश का (१०) संज्वलन लाभांश क्षय उपशम गुण.११ संपूर्ण कषाय-प्रकृतियाँ उपशान्त (१२) पूर्णतः कषाय क्षय (अ) विशेषा./ गा. १२८४ (ब) षष्टम कर्म-ग्रन्थ/गा. ७५-७७ (अ) विशेषा. / गा. १३१४ (व) षष्टम कर्म-ग्रन्थ / गा. ७८ संज्वलन माया | ॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम-अध्याय कषाय और लेश्या ASN 3 E KAHANE NE MARCH K चित्त में उठने वाली विचार-तरंगों को लेश्या' कहा गया है। जैसे हवा का झोंका आने पर सागर में लहरों पर लहरें उठनी प्रारम्भ हो जाती हैं। वैसे ही आत्मा में भाव-कर्म के उदय होने पर विषय, विकार, विचारों के बवण्डर उठने लगते हैं। यही लेश्याएँ हैं। जिनके द्वारा आत्मा कर्म-लिप्त होती हैं, उन्हें स्थानांग-वृत्ति में लेश्या कहा है।' लेश्या के स्वरूप निर्धारण से सम्बन्धित तीन मत हैं (१) लेश्या योग-परिणाम है; २ (२) लेश्या कर्म-परिणाम है; ३ (३) लेश्या कषाय-परिणाम है।' 'स्थानांग' एवं 'प्रज्ञापना' में जीव के दस परिणाम निरूपित हैं-५ (१.) १. (अ) लिश्यते प्राणी कर्मणा यया सा लेश्या (स्थानांग वृत्ति, पत्र २९) (व) लिंपई अप्पीकीरई (गो. जी. / अधि. १५ / गा. ४८९) २. 'योग परिणामो लेश्या' (स्थानांग वृत्ति, पत्र २९) 'कर्म निष्यन्दो लेश्या' (उत्तरा. की वृहद् वृत्ति /अ. ३४ की टीका) ४. ते च परमार्थतः कषाय-स्वरूपा एवं (पण्णवणा/ पद १७ / मलयगिरि टीका) ५. (अ) दसविधे जीवपरिणामे (ठाणं स्थान १०/सू. १८) (ब) पन्नवणा/पद १३/सू. १ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन गति, (२) इन्द्रिय, (३) कषाय, (४) लेश्या, (५) योग, (६) उपयोग, (७) ज्ञान, (८) दर्शन, (९) चारित्र; तथा (१०) वेद। जीव के इन दस परिणामों में लेश्या, कषाय और योग सबको स्वतन्त्र रूप से ग्रहण किया गया है। परवर्ती दार्शनिकों ने कषाय से अनुरंजित योग-प्रवृत्ति को लेश्या कहा है। लेश्या में आत्म-प्रदेशों की चंचलता का कारण योग-प्रवृत्ति एवं मलिनता का हेतु कषाय है। मूल है चेतन द्रव्य! उस पर पहला वलय है कषाय-तन्त्र का तथा दूसरा है- योग-तन्त्र का! जब कषाय की तरंगें योग-समन्वित हो कर सघन होती हुई भाव का रूप लेती हैं, तब वे लेश्या कहलाती हैं। भावों की मलिनता एवं शुभ्रता के आधार पर लेश्या के अनेक भेद हो सकते हैं। 'भावदीपिका' में कहा गया है"- लोक के आकाश-प्रदेशों के तुल्य कषाय-भाव के उदय स्थान रूप अध्यवसाय हैं। इन्हीं के समान लेश्या के भी असंख्यात् लोकाकाश प्रमाण भेद हैं; किन्तु संक्षेप में लेश्या के छह भेद बताये गये हैं (१) कृष्ण (२) नील (३) कापोत (४) तेजस् (पीत) (५) पद्म; और (६) शुक्ल- ये सभी लेश्याएँ द्रव्य एवं भाव दो प्रकार की होती हैं। द्रव्यलेश्या- आत्मा द्वारा ग्रहण किए गए जो पुद्गल-परमाणु लेश्या रूप परिणमन करते हैं, उन्हें द्रव्यलेश्या कहते हैं। ये वर्ण, गंध, रस, स्पर्श सहित होते हैं। जो निम्नलिखित हैंलेश्या वर्ण रस स्पर्श कृष्ण काजल सम काला मृत कुत्ते जैसी दुर्गन्ध अति कटु अति कर्कश नील वैडूर्य मणि सम नीला मरी गाय समान दुर्गन्ध अति तीखा खुरदरा कापोत कबूतर की ग्रीवा जैसा सड़ी लाश जैसी दुर्गन्ध कसैला कम खुरदरा तेजस् नवोदित सूर्य सम लाल गुलाब पुष्प जैसी सुगंध खट्टा-मीठा कोमल पद्म कमल पुष्प जैसा कमल पुष्प जैसी सुगंध मीठा मृदु शुक्ल शंख के समान श्वेत केवडा जैसी सुगंध अति मधुर अति मृदु । भावलेश्या- संसार में जितने प्राणी हैं, सबके अपने-अपने संस्कार हैं। संस्कारों के अनुसार विचार और विचारों के अनुसार अभिव्यक्ति होती है। - गंध ६. कषायोदयरंजिता योगप्रवृत्तिर्लेश्या ( रा.वा. / अ. २/ सू. ६ की वृत्ति) ७. (अ) भावदीपिका | पृ. ७५ (ब) लोगाणमसंखेज्जा (गो. जी. / गा. ४९९) ८. समवाओ समवाय ६ / सू. १ उत्तराध्ययनसूत्र | अ. ३४ / गा. ४-७ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय और कर्म ७७ कषाय की जितनी तीव्रता होगी, संस्कार (विचार) उतने ही मलिन होंगे। कषाय की जितनी मन्दता होगी, विचार उतने ही सात्त्विक और शुभ्र होंगे। कषाय अनुरंजित इन लेश्या परिणामों की भिन्नता को 'आवश्यकसूत्र' की हारिभद्रीय टीका गोम्मटसार आदि में दृष्टान्त के माध्यम से समझाया गया हैजो इस प्रकार है। किसी वनखण्ड में भ्रमण करते समय छह मित्रों ने फलों से लदा जामुन का एक वृक्ष देखा। सबके मन में फल खाने की इच्छा पैदा हुई। एक मित्र ने कहा-'मित्रो! चलो ! ! इस वृक्ष को गिरा लें, फिर आराम से जामुन खायेंगे।' दूसरे ने कहा-'पूरा वृक्ष गिराने से क्या लाभ? बड़ी-बड़ी शाखाएँ तोड़ लेते हैं।' तीसरे ने विचार दिए-'बड़ी शाखाएँ तोड़ने का क्या अर्थ है? छोटी शाखाओं में ही फल बहुत हैं, इन्हें ही तोड़ लेते हैं।' चौथा बोला- 'नहीं नहीं!! शाखाएँ तोड़ना अनुचित है। फल के गुच्छे तोड़ना ही पर्याप्त होगा।' पाँचवें ने मधुर स्वर में परामर्श दिया-'अरे भाइयो! फलों के गुच्छे तोड़ने की क्या आवश्यकता है? इसमें तो कच्चे-पक्के सभी होंगे। हमें तो पके मीठे फल खाने हैं, फिर कच्चे फलों को क्यों नष्ट करें? ऐसा करो - पेड़ को झकझोर दो, पके-पके फल गिर जाएँगे!' छठा मित्र करुणार्द्र होकर कहने लगा- ‘क्यों पेड़ को झकझोरते हो? वृक्ष को क्षति क्यों पहुँचाते हो? जमीन पर कितने ही पके-पकाए फल गिरे पड़े हैं। इन्हें उठाओ और खाओ।' उपर्युक्त उदाहरण के माध्यम से स्पष्ट होता है- विचारों में कितनी भिन्नता होती है। इस भिन्नता के आधार से छह भाव-लेश्याओं का निरूपण किया गया है। छहः लेश्याओं में से कृष्ण, नील और कापोत- ये तीनों अधर्म या अशुभ लेश्याएँ हैं। इनके कारण जीव विभिन्न दुर्गतियों में उत्पन्न होता है। पीत (तेजो), पद्म और शुक्ल ; ये तीनों धर्म या शुभ लेश्याएँ हैं। इनके कारण जीव विविध सुगतियों में उत्पन्न होता है। पहली लेश्या है- कृष्ण! कृष्ण अर्थात् अंधकार, काला, अमावस की रात जैसा। क्रमश: अंधेरा कम होता जाता है। कृष्ण के बाद नील। अंधेरा अब भी है, लेकिन नीलिमा जैसा है। फिर कापोतकबूतर जैसा है। आकाश के रंग जैसा है। तेजो का रंग नवोदित सूर्य-सा है। जैसे भोर होते ही लालिमा चारों ओर बिखर जाती है, अंधेरा छंट जाता है। अतः इसे धर्म-लेश्या कहा है। पद्म का रंग कमल-पुष्प जैसा अर्थात् हल्का गुलाबी-सा है। अभी रंग है, राग है, वीतरागता नहीं है। श्वेत का रंग पूर्णिमा की चाँदनी, शंख के समान शुभ्र है। अन्धकार से प्रकाश की ओर इन लेश्याओं का क्रम है। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन योगशास्त्र में पतंजलि ने मनुष्यों के सात चक्रों का वर्णन किया है। अशुभ/अधर्म तीन लेश्याएँ और पतंजलि के तीन निम्न चक्र एक ही अर्थ रखते हैं। जिसे पतंजलि मूलाधार चक्र कहते हैं- उस मूलाधार में जीने वाला व्यक्ति अंधकार में जीता है, कषायों और वासनाओं की तीव्रता में जिसकी भाव परिणति होती है। पहले तीन चक्र सांसारिक हैं। अधिकतर लोग पहले तीन चक्रों में ही जीते और मर जाते हैं। चौथा, पाँचवाँ और छठा चक्र धर्म में प्रवेश है। चौथा चक्र है हृदय, पाँचवाँ कंठ, छठवाँ आज्ञा ललाट। हृदय में दया, करुणा के अंकुरण के साथ ही धर्म की शुरूआत होती है। शुभ-भावना के साथ-साथ वाणी का समन्वय पाँचवें चक्र में होता है। छठवें चक्र में चेतना के प्रवेश के साथ-साथ भावना, वाणी और विवेक बुद्धि का संगम, इनकी त्रिविध एकता घटित होती है। जीवन की ऊर्जा आज्ञाचक्र पर आकर ठहरते ही सारा अन्तर्लोक एक प्रभा से मण्डित हो जाता है। एक प्रकाश फैल जाता है। जिसे पतंजलि सहस्रार - सहस्रदल कमल- सातवाँ चक्र कहते हैं-वह छह लेश्याओं के पार की स्थिति है। अर्थात् उस समय शुक्ल लेश्या भी प्रायः अव्यक्त हो जाती है, निर्विकल्प अवस्थावत् स्थिति है। जैसे शरीर के सात चक्रों में निम्न तीन चक्र विकारों से सम्बन्धित हैं; वैसे ही लेश्याओं में प्रथम तीन लेश्याएँ अशुभ कही गयी हैं। किस तरह के भाव विचार किस लेश्या में रहते हैं तथा वह कषाय की तीव्रता अथवा मन्दता से संयुक्त है यह विषय उत्तराध्ययनसूत्र आदि ग्रन्थों में प्रतिपादित है। (१) कृष्णलेश्या (तीव्रतम कषाय)- भारतीय संस्कृति में यम (मृत्यु) को काले रंग में चित्रित किया गया है। काला रंग कलुषता का परिचायक है। वैज्ञानिकों का कथन है कि व्यक्ति के आसपास यदि काला आभा-मण्डल है, तो समझें कि वह हिंसा, क्रोध, वासना आदि भयंकर भावों की भूमि पर स्थित है। ___ कृष्णलेश्या वाला क्रूर, अविचारी, निर्लज्ज, नृशंस, विषयलोलुप, हिंसक, स्वभाव की प्रचण्डता वाला होता है। जामुन का फल खाने के लिए पूरे वृक्ष को जड़ से काटने का विचार आ गया। क्षणभंगुर थोड़े से सुख के लिए असंख्य जीवों की हत्या करने का भाव आ गया। छोटे से सुख के लिए दूसरे को विनष्ट करने का मन बना लिया। राह से एक व्यक्ति गुजर रहा है, एक कुत्ता दिखाई पड़ा, तुरन्त उठाकर एक पत्थर मार दिया। जिस राह से निकल रहा है, वृक्ष लहरा रहे हैं, वह व्यक्ति पत्तों को ही तोड़ता, मसलता, कुचलकर फेंकता चला गया। हिंसकता जैसे स्वभाव का अंग बन गई- यह कृष्णलेश्या है। कई माताएँ १०. उत्तरा. / अ. ३४ / गा. २१ . Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय और कर्म बच्चों को क्रोधावेश में कहती हैं- तेरी टाँग टूट गई क्या? तेरी जीभ कट गई क्या? तेरी आँखें फूट गईं क्या? जान से मार डालूँगी! अग्नि में झोंक दूंगी! हाथ-पाँव तोड़ दूंगी। हत्याएँ और आत्महत्याएँ- इसी कृष्णलेश्या का प्रतिफल है। इस लेश्या वाला स्वयं को खतरे में डालकर भी दूसरे को नुकसान पहुँचा सके, तो प्रसन्न होता है। पंचतन्त्र की कथा है-“किसी आदमी की भक्ति से प्रसन्न होकर शिवजी ने वरदान माँगने के लिए कहा, पर इस शर्त के साथ कि पड़ौसी को उससे दुगुना मिलेगा। उस आदमी की भौहें सोच की मुद्रा में मुड़ गई। कुछ क्षण पश्चात् कहने लगा- ठीक है! मेरी एक आँख फूट जाए और मेरे घर के सामने एक कुआँ खुद जाए।" यह है कृष्णलेश्या। गोम्मटसार में तीव्र क्रोधी, वैर-ग्रन्थि बाँधने वाला कलह-प्रिय, निर्दयी, स्वच्छन्दी, अभिमानी, मायावी, कर्तव्य-विमुख को कृष्णलेश्या परिणामी कहा (२) नीललेश्या (तीव्रतर कषाय)- जो व्यक्ति अपने को सुरक्षित रखते हुए अन्य को हानि पहुँचाने की चेष्टा करता है, स्वार्थ-सिद्धि में सजग रहता है। ईर्ष्यालु, कदाग्रही, प्रमादी, रस-लोलुपी और निर्लज्ज होता है- वह नीललेश्या परिणामी है। गोम्मटसार के अनुसार-१३ अति निद्रा लेने वाला, धन-संग्रह का लोभी, ठग विद्या में चतुर व्यक्ति नीललेश्या युक्त है। जिस व्यक्ति में लोलुपता हो, कुछ-न-कुछ माँग बनी रहती हो, हर क्षण याचक बन कर खड़ा हो, मन भिखारी की तरह विषयों की भीख माँगता रहता हो, माँगने में लज्जा भी न हो, प्राप्ति की लालसा हो पर पुरुषार्थहीनता, आलस्य हो- ऐसा व्यक्ति मात्र दूसरों से ईर्ष्या ही तो कर सकता है। ईर्ष्यालु आदमी दूसरे व्यक्तियों के सुख-साधनों को देख-देख कर जलता रहता है। नीललेश्या वाला कदाग्रही होता है अर्थात् समझाने से भी न मानना, दिखाई भी पड़ने लगे तो झुठलाना, सत्य समझ आ रहा हो फिर भी अपने विचारों को पकड़े रहना। वह प्रमादी, आलसी, अति निद्रा लेने वाला होता है। एक धर्मशाला में ११. गो. जी./ अधि. १५/ गा. ५०९ १२. उत्तरा./ अ. ३४/ गा. २३ १३. गो. जी./ अधि. १५/ गा. ५११ . Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन सोते समय एक वृद्ध किसी युवा सहयोगी से कहने लगा- देखो! बरसात आ रही है क्या? युवक ने कमरे के अन्दर आये कुत्ते के शरीर पर हाथ फिरा कर कहा- नहीं। बरसात नहीं आ रही क्योंकि कुत्ता गीला नहीं है। पुनः वृद्ध ने कहा- जरा चिमनी बन्द कर दो। युवक का उत्तर था- आप चादर को मुँह पर खींच लो। वृद्ध व्यक्ति ने फिर कह दिया- दरवाजा बन्द कर दो। वह झल्ला उठा-दो काम मैंने कर लिये। अब तीसरा काम तुम कर लो। यह है, नीललेश्या की परिणति। (३) कापोतलेश्या (तीव्र कषाय)- कृष्ण एवं नील से कुछ शुभ्र किन्तु अन्य लेश्याओं से मलिन चंचल परिणामों को कापोतलेश्या कहा है। उत्तराध्ययन-सूत्र के अनुसार - कापोतलेश्या वाला अत्यधिक हँसने वाला, दुष्ट वचन बोलने वाला, चोर, मत्सर स्वभाव वाला होता है। शीघ्र रुष्ट होने वाला, आत्म-प्रशंसा और पर-निन्दा में तत्पर, अति शोकाकुल अथवा अति भयभीत होने वाला भी कापोतलेश्या युक्त होता है। शीघ्र रुष्ट होने वाला बात-बात में चिड़चिड़ाने वाला अकारण ही झुंझलाता रहता है। एक आदमी से पड़ौसी ने कहा- 'भाई साहब! आम का टोकरा आया है।' रूक्ष स्वर में वह व्यक्ति बोला- 'मुझे क्या?' पड़ौसी ने पुनः कहा- 'आपके खेत से आया है।' चिढ़ गया वह व्यक्ति-'तो तुझे क्या?' बात करते ही काटने को दौड़े - की स्थिति में कापोतलेश्या वाला जीता रहता है। छोटी-छोटी बातों में चिढ़ जाता है, रुष्ट हो जाता है। चाय मिलने में पाँच मिनिट की देर हो गई कि रोष आ गया। __आत्म-प्रशंसा और पर-निन्दा का व्यसनी होता है- कापोतलेश्या वाला व्यक्ति! अपनी प्रशंसा के फल बिखेरते रहना, अहंकारपूर्ण वचन वर्षा करते रहना तथा अन्य की आलोचना, दोष-दर्शन, दुर्गुणों को बोलना - कापोतलेश्या वाले का स्वभाव होता है। अकारण ही भयभीत रहता है। कभी व्याधि का डर, कभी वृद्धत्व की कल्पना, कभी मृत्यु की निकटता का भय। वह पापभीरु नहीं; किन्तु दुःखभीरु होता है। धर्मी व्यक्ति दुःखभीरु नहीं; पापभीरु होता है। वह पाप करने से घबराता है, व्याधि, वेदना या मृत्यु से नहीं। क्योंकि जो होना है, होगा। उससे भय का कोई अर्थ नहीं। जैसे मौत होनी है, होगी। उससे भय क्या? निश्चित है। देह जराजीर्ण होनी है, होगी। बुढ़ापा आना है, आयेगा ही। धर्म में प्रवेश के लिए अभय पहला चरण है। अभय का अर्थ हआ, जो नहीं होने वाला है, वह नहीं होगा; उसका तो भय करना क्या? जो होने वाला है, वह होगा; उसका भय करना क्या? १४. उत्तरा. अ. ३४/ गा. २५-२६ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय और कर्म यूनानी सन्त सुकरात के लिए ज़हर घोंटा जा रहा था। एक शिष्य ने पूछा-'आपको भय नहीं लग रहा।' सुकरात ने कहा, 'ज़हर का प्याला पीना हैपी लूँगा। यदि मैं शरीर हूँ, तो ज़हर पीते ही वह विनष्ट हो जायेगा फिर भय की क्या बात है? और जैसा कि ग्रन्थों में कहा जाता है- तुम आत्मा हो। आत्मा अमर है। ज़हर का प्याला पी कर शरीर ही नष्ट होगा, आत्मा रहेगी; तो फिर भय क्या? दोनों संभावनाओं में भय को स्थान नहीं है। कापोतलेश्या वाला भयभीत, शोकाकुल रहने वाला होता है। शोकाकुल शोक-संतप्त होना - साड़ी में चिनगारी लग गयी, फाउन्टनपेन की निब टूट गई, दूध गिर गया - बस हाल बेहाल हो गये। प्रमाद से हानि होने पर सजग रहने की प्रेरणा लेना अलग बात है और सामान्य-सी हानि में दुःखी होते रहना अलग बात है। शुभलेश्या में प्रविष्ट साधक धनहानि, मानहानि या प्राणहानि के प्रसंगों में भी सहज रह जाता है। जो होना था, हो गया। यह समय आना था, आ गया। यह घटना घटित होनी थी, हो गयी। ऐसी सहज स्थिति नहीं, अपितु शोक-संतप्त स्थिति कापोत लेश्या में रहती है। ऐसी घटना क्यों घटित हो गई' ऐसा विचार करके वह आकुल-व्याकुल बना रहता है। (४) तेजोलेश्या (मन्द कषाय)- तेजोलेश्या को पीतलेश्या भी कहा गया है। 'उत्तराध्ययन' में तेजोलेश्या एवं 'गोम्मटसार' में पीतलेश्या शब्द प्रयुक्त हुआ है। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार कार्य-अकार्य का ज्ञान, श्रेय-अश्रेय का विवेक, नम्रता, निष्कपटता, संयम तेजोलेश्या के लक्षण हैं। १५ गोम्मटसार में महत्त्वाकांक्षा रहित प्राप्त परिस्थिति में प्रसन्न रहने की स्थिति को पीतलेश्या कहा गया है।१६ कार्य-अकार्य का ज्ञान - क्या करने योग्य है, क्या करने योग्य नहीं है। क्या बोलने योग्य है, क्या बोलने योग्य नहीं है। क्या देखने योग्य है, क्या देखने योग्य नहीं है। क्या सुनने योग्य है, क्या सुनने योग्य नहीं है। क्या पठन योग्य है, क्या पठन योग्य नहीं है। वह अपनी ऊर्जा को व्यर्थ नहीं गँवाता। प्रत्येक कार्य में विवेक-चक्षु का उपयोग करता है। ___महाराजा श्रेणिक अपने ज्येष्ठ पुत्र अभयकुमार को अन्तःपुर-दहन की आज्ञा दे कर चले गये। अभयकुमार विचार में खो गया। क्या यह योग्य है? तो क्या पिता की आज्ञा का उल्लंघन करना योग्य है? दोनों कार्य ही उचित नहीं। अतः अन्तःपुर से महारानी आदि को सुरक्षित स्थान में भेज कर आस-पास १५. उत्तरा./ अ. ३४/ गा. २७-२८ १६. गो. जी./ अधि. १५/ गा. ५१४ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय: एक तुलनात्मक अध्ययन झोपड़ों में अग्नि लगा दी गई। ज्वालाएँ उठने लगीं, लपटें जैसे आकाश छूने लगी । महाराजा श्रेणिक भ्रम निवारण होने पर अपने अविवेक का पश्चाताप करते हुए पुनः लौटे। दहकती ज्वालाएँ देख कर मन में क्रोध ज्वाला दहक उठी; किन्तु जब महारानियों को सकुशल देखा तो अभय के विवेक से पानी-पानी हो गये । ८२ तेजोलेश्या युक्त व्यक्ति शक्तिसम्पन्न होने पर भी अहंकारी नहीं, अपितु विनम्र होता है, व्यवहार में मायावी नहीं बल्कि सरल, निष्कपट होता है, सुविधा-साधन प्राप्त होने पर भी संयमी है अर्थात् मन्द कषायी होता है। ( ५ ) पद्मलेश्या ( मन्दत कषाय ) - 'उत्तराध्ययन' के अनुसार मन्दतर कषाय, प्रशान्त-चित्त, जितेन्द्रिय अवस्था पद्मलेश्या के लक्षण हैं। १७ 'गोम्मटसार' में त्याग, कष्ट - सहिष्णुता, भद्र-परिणाम, देव-गुरु-पूजा में प्रीतियुक्त चित्त पद्मलेश्या के लक्षण बताये हैं । " देव- गुरु-पूजा जिन्होंने शुद्ध स्वरूप प्राप्त कर लिया है, जो आत्मप्रतिष्ठित हो चुके हैं, जो वीतराग, वीतद्वेष हैं - उन्हें देव तथा जो शुद्ध स्वरूप प्राप्ति के मार्ग के पथिक हैं, पंच महाव्रतधारी हैं, उन्हें गुरु कहा गया है। देवगुरु-पूजा अर्थात् शुद्ध स्वरूप की उपासना । तेजोलेश्या परिणामी को सत्य का ज्ञान होता है और पद्मलेश्या परिणामी सत्य को जीना प्रारम्भ कर देता है। वह मार्ग का ज्ञाता ही नहीं अपितु पथिक भी बन जाता है। सत्य में समाने की अभीप्सा प्रबल बन जाती है, अतः जिन्होंने सत् स्वरूप प्रकट कर लिया, उनके आलम्बन को स्वीकार करता है। श्रीमद् देवचन्द्रजी महाराज ने कहा है- " " "जिनवर पूजा रे ते निज पूजना रे, प्रगटे अन्वय शक्ति परमानन्द विलासी अनुभवे रे, देवचन्द्र पद व्यक्ति ! ' देव-गुरु का उपासक अन्त में स्वयं उपास्य बन जाता है। पद्मलेश्या परिणामी देव-गुरु-पूजा में प्रीतियुक्त चित्त होता है, संसार से प्रीति अल्प हो जाती है। महामंत्री पेथडशाह जब प्रभु-पूजा के लिए देवालय में प्रविष्ट होते थे; उसके पश्चात् पूजा के मध्य में बाहर बुलाने में स्वयं राजा भी समर्थ नहीं होते थे। महामंत्री की सख्त हिदायत थी - जब वे पूजा - गृह में हों, तब उन्हें राजाज्ञा भी न सुनायी जाये । १७. उत्तरा / अ. ३४ / गा. २९-३० १८. गो. जी. / अधि. १५ / गा. ५१५ १९. श्रीमद् देवचन्द्र चौवीसी Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय और कर्म शुद्धता के अनुरागी पद्मलेश्या परिणामी की चित्तवृत्ति प्रशान्त होती है, आसक्ति अत्यल्प होने से त्याग-वृत्ति रहती है। इन्द्रिय-विषयों से विमुखता होती है, अतः मन्दतर कषाय की स्थिति रहती है। (६) शुक्ललेश्या (मन्दतम कषाय अथवा अकषाय)- धर्म-ध्यान, शुक्लध्यान में प्रवेश लेने वाला शुक्ललेश्या युक्त होता है। २० 'गोम्मटसार' के अनुसार पक्षपात रहित, इष्टानिष्ट संयोगों में राग-द्वेष रहित साधक शुक्ललेश्या परिणामी है। २१ पक्षपात रहित अर्थात् सत्य जैसा हो, वैसा स्वीकार करना। शुक्ललेश्या वाला पूर्व पक्षपातों, विचारों अथवा धारणाओं के अनुसार सत्य का स्वरूप प्रतिपादित नहीं करता। इष्टानिष्ट, अनुकूल-प्रतिकूल सभी संयोगों में राग-द्वेष नहीं करता। निन्दा-स्तुति, मान-अपमान, पूजा-गाली, शत्रु-मित्र, रज-कंचन सभी स्थितियों में समत्व भाव में रहता है। हस्तिनापुर नगर के बाहर राजपथ के किनारे ध्यान-मग्न एक ऋषि को देखकर पाँडवों के कदम रुक गये। यह ऋषि कौन है? ओ हो! ये तो दमदन्त राजर्षि हैं। जिन्होंने हमें युद्ध में परास्त किया था, आज वे काम-क्रोधादि शत्रुओं को पराजित कर रहे हैं। धन्य है, इनकी साधना! धन्य है, इनका तप और त्याग! !' पांडवों ने नत-मस्तक हो कर वन्दन किया, स्तुति की एवं अपने गन्तव्य की ओर बढ़ चले। कुछ ही क्षणों पश्चात् कौरवों का आगमन हुआ। वे भी रुक गये। 'ये ऋषि कौन हैं? अच्छा! ये दमदन्त राजा! युद्धक्षेत्र में हम पर कैसी बाण-वर्षा की थी। ये तो हमारे घोर-शत्रु हैं। आज अच्छा अवसर आया है - प्रतिशोध का!' सभी कौरवों ने पत्थर, कंकड़, मिट्टी उछालना प्रारम्भ किया। कुछ ही देर में तो पत्थरों का मानो चबूतरा बन गया। कौरवों के जाने के बाद जब पांडव पुनः उस राह से गुजरे तो वहाँ की स्थिति देखकर सारी घटना समझ गये। पत्थरों को हटाया, मुनि की देह पुन: निरावृत हो गई। पांडवों ने वन्दन किया और महल की दिशा में प्रस्थान कर गये। दमदन्त राजर्षि पूर्ववत् उपशान्त थे- न पांडवों के प्रति राग, न कौरवों के प्रति द्वेष। यह शुक्ललेश्या की चरम परिणति है। यद्यपि लेश्या के असंख्यात् भेद संभावित हैं; किन्तु स्थूल-दृष्टि से लेश्या के छ: भेद बताये गये हैं। 'भाव-दीपिका' में अनन्तानुबन्धी आदि चार कषायों की अपेक्षा लेश्या के बहत्तर भेद बताये गये हैं२०. उत्तरा. अ. ३४/ गा. ३१-३२ २१. गो.जी./ अधि. १५/ गा. ५१७ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ १. अनन्तानुबन्धी क्रोधयुक्त कृष्णलेश्या २. अनन्तानुबन्धी क्रोधयुक्त नीललेश्या ३. अनन्तानुबन्धी क्रोधयुक्त कापोतलेश्या ४. अनन्तानुबन्धी क्रोधयुक्त तेजोलेश्या ५. अनन्तानुबन्धी क्रोधयुक्त पद्मलेश्या ६. अनन्तानुबन्धी क्रोधयुक्त शुक्ललेश्या ७. अनन्तानुबन्धी मानयुक्त कृष्णलेश्या ८. अनन्तानुबन्धी मानयुक्त नीललेश्या ९. अनन्तानुबन्धी मानयुक्त कापोतलेश्या १०. अनन्तानुबन्धी मानयुक्त तेजोलेश्या ११. अनन्तानुबन्धी मानयुक्त पद्मलेश्या १२. अनन्तानुबन्धी मानयुक्त शुक्ललेश्या १३. अनन्तानुबन्धी मायायुक्त कृष्णलेश्या १४. अनन्तानुबन्धी मायायुक्त नीललेश्या १५. अनन्तानुबन्धी मायायुक्त कापोतलेश्या १६. अनन्तानुबन्धी मायायुक्त तेजोलेश्या १७. अनन्तानुबन्धी मायायुक्त पद्मलेश्या १८. अनन्तानुबन्धी मायायुक्त शुक्ललेश्या १९. अनन्तानुबन्धी लोभयुक्त कृष्णलेश्या अनन्तानुबन्धी लोभयुक्त नीललेश्या २१. अनन्तानुबन्धी लोभयुक्त कापोतलेश्या २२. अनन्तानुबन्धी लोभयुक्त तेजोलेश्या २३. अनन्तानुबन्धी लोभयुक्त पद्मलेश्या २४. अनन्तानुबन्धी लोभयुक्त शुक्ललेश्या २५. अप्रत्याख्यानी क्रोधयुक्त कृष्णलेश्या २६. अप्रत्याख्यानी क्रोधयुक्त नीललेश्या २७. अप्रत्याख्यानी क्रोधयुक्त कापोतलेश्या २८. अप्रत्याख्यानी क्रोधयुक्त तेजोलेश्या २९. अप्रत्याख्यानी क्रोधयुक्त पद्मलेश्या ३०. अप्रत्याख्यानी क्रोधयुक्त शुक्ललेश्या ३१. अप्रत्याख्यानी मानयुक्त कृष्णलेश्या ३२. अप्रत्याख्यानी मानयुक्त नीललेश्या ३३. अप्रत्याख्यानी मानयुक्त कापोतलेश्या ३४. अप्रत्याख्यानी मानयुक्त तेजोलेश्या ३५. अप्रत्याख्यानी मानयुक्त पद्मलेश्या ३६. अप्रत्याख्यानी मानयुक्त शुक्ललेश्या २०. कषाय: एक तुलनात्मक अध्ययन कषाय अपेक्षा लेश्या के बहत्तर - भेद ३७. अप्रत्याख्यानी मायायुक्त कृष्णलेश्या ३८. अप्रत्याख्यानी मायायुक्त नीललेश्या ३९. अप्रत्याख्यानी मायायुक्त कापोतलेश्या ४०. अप्रत्याख्यानी मायायुक्त तेजोलेश्या ४१. अप्रत्याख्यानी मायायुक्त पद्मलेश्या ४२. अप्रत्याख्यानी मायायुक्त शुक्ललेश्या ४३. अप्रत्याख्यानी लोभयुक्त कृष्णलेश्या ४४. अप्रत्याख्यानी लोभयुक्त नीललेश्या ४५. अप्रत्याख्यानी लोभयुक्त कापोतलेश्या ४६. अप्रत्याख्यानी लोभयुक्त तेजोलेश्या ४७. अप्रत्याख्यानी लोभयुक्त पद्मलेश्या ४८. अप्रत्याख्यानी लोभयुक्त शुक्ललेश्या ४९. प्रत्याख्यानावरण क्रोधयुक्त तेजोलेश्या ५०. प्रत्याख्यानावरण क्रोधयुक्त पद्मलेश्या ५१. प्रत्याख्यानावरण क्रोधयुक्त शुक्ललेश्या ५२. प्रत्याख्यानावरण मानयुक्त तेजोलेश्या ५३. प्रत्याख्यानावरण मानयुक्त पद्मलेश्या ५४. प्रत्याख्यानावरण मानयुक्त शुक्ललेश्या ५५. प्रत्याख्यानावरण मायायुक्त तेजोलेश्या ५६. प्रत्याख्यानावरण मायायुक्त पद्मलेश्या ५७. प्रत्याख्यानावरण मायायुक्त शुक्ललेश्या ५८. प्रत्याख्यानावरण लोभयुक्त तेजोलेश्या ५९. प्रत्याख्यानावरण लोभयुक्त पद्मलेश्या ६०. प्रत्याख्यानावरण लोभयुक्त शुक्ललेश्या ६१. संज्वलन क्रोधयुक्त तेजोलेश्या ६२. संज्वलन क्रोधयुक्त पद्मलेश्या ६३. संज्वलन क्रोधयुक्त शुक्ललेश्या ६४. संज्वलन मानयुक्त तेजोलेश्या ६५. संज्वलन मानयुक्त पद्मलेश्या ६६. संज्वलन मानयुक्त शुक्ललेश्या ६७. संज्वलन मायायुक्त तेजोलेश्या ६८. संज्वलन मायायुक्त पद्मलेश्या ६९. संज्वलन मायायुक्त शुक्ललेश्या ७०. संज्वलन लोभयुक्त तेजोलेश्या ७१. संज्वलन लोभयुक्त पद्मलेश्या ७२. संज्वलन लोभयुक्त शुक्ललेश्या Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय और कर्म अब हम इन बहत्तर भेदों का संक्षिप्त वर्णन करेंगे। २२ अनन्तानुबन्धी कषाय की कृष्णलेश्या-इस लेश्या में व्यक्ति की चित्तवृत्ति सर्वाधिक कलुषित होती है। वह प्रचण्ड क्रोधी, कलहप्रिय, वैर-ग्रन्थि बाँधने वाला, अत्यधिक ईर्ष्यालु, दूसरों के उत्कर्ष में असहिष्णु होता है। वह दुस्साहसी, निःशंक, स्वैराचारी, मायावी होता है। उसमें इन्द्रिय विषयों की लोलुपता, व्यसनों में आसक्ति, अभक्ष्य आहार-ग्रहण करने की विशेष भावना होती है। वह अत्यधिक अभिमानी - दूसरों का मान भंग करने वाला तथा स्वयं का मान पुष्ट करने वाला होता है। पर-स्त्री सेवन, पूर्वापर विचार रहित अवस्था, पापरत उसका जीवन होता है। अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ से युक्त कृष्णलेश्या में निकृष्टतम विचार-दशा रहती है। ___ अनन्तानुबन्धी कषाय की नीललेश्या- इस लेश्या से युक्त व्यक्ति आलसी, निद्रालु तथा मायावी होता है। इन्द्रिय-विषयों में तीव्र आसक्ति, कुटुम्ब आदि में प्रगाढ़ मोह, धन-संग्रह की अभीप्सा, विकथा-प्रियता इस भावावस्था में विशेष रहती है। ___ अनन्तानुबन्धी कषाय की कापोतलेश्या- इस लेश्या वाला व्यक्ति परनिन्दक, आत्म-प्रशंसक, शोक में डूबने वाला, ईर्ष्यालु, मोह-संतुष्टि के लिए अति व्यय करने वाला होता है। अनन्तानुबन्धी कषाय की तेजोलेश्या- इस विचार-दशा में पापभीरुता, नारकीय कष्टों से भय, स्वर्गादि सुखों की आशंका, कार्याकार्य विचारणा, दयाभावना, द्वेष-ईर्ष्यादि दुर्भावों से निवृत्ति होती है। अनन्तानुबन्धी कषाय की पद्मलेश्या- इस लेश्या में भोगासक्ति रहित, गंभीर, धैर्यशाली, उदार, परोपकार-परायण स्वभाव से युक्त होता है। अनन्तानुबन्धी कषाय की शुक्ललेश्या- शुक्ल भावदशा से युक्त ऐसा व्यक्ति हर्ष-विषाद, जीवन-मृत्यु, शत्रु-मित्र, राजा-रंक, सुख-दुःख में भेद नहीं रखता है। हर परिस्थिति में वह सहज रहता है। अनन्तानुबन्धी कषाय से युक्त व्यक्ति भी स्वर्ग-सुखों की लालसा से तपस्वी बन सकता है, मुनिवेश धारण कर कठोर साधना कर सकता है, भयंकर उपसर्गों में क्षमा का परिचय दे सकता है। अप्रत्याख्यानी कषाययुक्त सम्यग्दृष्टि से वह २२. भावदीपिका | पृ. ८५ से ९१ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय: एक तुलनात्मक अध्ययन अधिक क्षमावान, निष्परिग्रही हो सकता है। अनन्तानुबन्धी कषाय के साथ मिथ्यात्व दशा होने से विपरीत धारणाएँ, वस्तु के यथार्थ स्वरूप के प्रति अज्ञान होता है। दीर्घकालीन कषाय-ग्रन्थियाँ बँधती हैं; किन्तु शुक्ललेश्या के कारण हिंसादि पापों से विरति एवं शुभ भावों में प्रवृत्ति होती है। इस त्याग, तप, क्षमा के बल पर अभव्य जीव नव-ग्रैवेयक देवलोक तक का आयु-बन्ध कर सकता है। अप्रत्याख्यान कषाय की कृष्णलेश्या - इस लेश्या से युक्त व्यक्ति तीव्र क्रोध कर लेता है, किन्तु वैर-ग्रन्थि नहीं बाँधता है। वह असत्य भाषण, चोरी, परिग्रहसंचय इत्यादि भी करता है; लेकिन अन्याय नहीं करता। उसकी स्व- स्त्री में आसक्ति होती है; पर पर - स्त्रियों के प्रति विकार भाव नहीं करता। वह विषयकषायों का सेवन करता है; किन्तु उन्हें उचित नहीं मानता। श्रेय अश्रेय, कर्तव्य - अकर्तव्य का उसे बोध होता है; पर कभी-कभी विषय कषाय उस पर विजय प्राप्त कर लेते हैं। ८६ अप्रत्याख्यान कषाय की नीललेश्या - नीललेश्या कृष्णलेश्या से किंचित् उज्ज्वल है। अप्रत्याख्यान कषाय की कृष्णलेश्या वाला पूर्वापर के विचार - सहित कार्य करता है; किन्तु उसमें कुछ आलस्य रहता है। अप्रत्याख्यान कषाय की कापोतलेश्या - अप्रत्याख्यान कषाय की कापोतलेश्या वाला अकारण क्रोध नहीं करता है; किन्तु यदि कोई उसके कार्य में बाधा डाल दे, तो क्रोधाभिभूत हो जाता है। वह किसी दोषी व्यक्ति की निन्दा एवं महादोषी का पराभव भी करता है। उसे इष्ट का वियोग होने पर शोक, पराभव के प्रसंग में भय होता है। उसमें पाप प्रवृत्ति की भावना अल्प होती है एवं न्याय रूप आजीविका के लिए वह असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प, पशुपालन आदि के विषय में प्रवृत्ति करता है। वह न्यायपूर्ण आजीविका करता है। अप्रत्याख्यान कषाय की तेजोलेश्या - इस लेश्या वाले व्यक्ति में क्रोधादि कषायों की मन्दता होती है। वह राज्य, आजीविका, विवाह आदि कार्यों में उदासीन होता है। उसका पूजा-प्रभावना, तीर्थ-यात्रा, तप-संयम आदि में उल्लास-भाव होता है । संसार त्याग की, श्रावक एवं साधुधर्म ग्रहण करने की विशेष भावना उसमें होती है। हिंसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्मचर्य एवं परिग्रह की वृत्ति उसमें अल्प होती है। वह धन-व्यय करने में उदार होता है। अप्रत्याख्यान कषाय की पद्मलेश्या - इस लेश्या से युक्त व्यक्ति के क्रोधादि कषाय अत्यल्प हो जाते हैं। वह विषय, कषाय एवं आजीविका से सम्बन्धित Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय और कर्म ८७ कार्यों को त्याग देता है। उसमें श्रावक-धर्म, साधु-धर्म ग्रहण करने की इच्छा निरन्तर बनी रहती है। वह मुनियों, गुरुओं तथा चतुर्विध संघ की सेवा में सदैव तत्पर रहता है। अप्रत्याख्यान कषाय की शुक्ललेश्या-विषय-वासना का अभाव, स्नेहीजनों के प्रति अल्पतम राग-भाव, सात भयरहित, प्राप्त सामग्री में समत्व भाव युक्त दशा इस लेश्या में होती है। प्रत्याख्यान कषाय की तेजोलेश्या- प्रत्याख्यान कषाय में कृष्ण, नील, कापोतलेश्याओं का अभाव होता है। प्रत्याख्यान कषाय की तेजोलेश्या वाला गहस्थ साधक संसार, शरीर एवं भोग से विरक्त रहता है। उसमें हिंसा एवं परिग्रह अति अल्प होता है। वह श्रावक-धर्म को स्वीकार करता है। उसमें साधुधर्म ग्रहण करने की इच्छा बनी रहती है। वह उद्यमी, संकल्पी एवं विरोधी हिंसा से निवृत्त होता है तथा आरम्भी हिंसा अर्थात् भोजन आदि क्रियाओं में भी हिंसा अत्यल्प करता है। उसकी लौकिक कार्यों में अरुचि और धर्म कार्य में विशेष प्रीति होती है। प्रत्याख्यान कषाय की पद्मलेश्या- जो विशेष रूप से त्याग-वृत्ति में रहता है - वह प्रत्याख्यान कषाय की पद्मलेश्या से युक्त होता है। प्रत्याख्यान कषाय की शुक्ललेश्या- इस लेश्या में त्यागी जीवन स्वीकार करने के साथ-साथ जिसमें समत्व की उच्च-भूमिका होती है। संज्वलन कषाय की तेजोलेश्या- इस लेश्या से युक्त मुनि श्रमण होते हैं। वे संयम में रत, स्वाध्याय-ध्यान में लीन तथा परीषहों को सहन करते हैं। ___ संज्वलन कषाय की पद्मलेश्या- मन्दतम कषाय अवस्था इस लेश्या में होती है। संज्वलन कषाय की शुक्ललेश्या- जिस लेश्या में राग-द्वेष कषाय लगभग नहीं होता है, वह संज्वलन कषाय की शुक्ललेश्या है। इस प्रकार ‘भाव-दीपिका' में कषाय की अपेक्षा से लेश्या के बहत्तर भेद प्रतिपादित करते हुए उनका स्वरूप स्पष्ट किया है। 'उत्तराध्ययन' में लेश्या-परिणामों की संख्या २४३ बताई गई है२३ एवं अधिक-से-अधिक लेश्या के स्थान बताते हुए कहा गया है- असंख्य अवसर्पिणी २३. उत्तराध्ययन/ अ. ३४/ गा. २० Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन और उत्सर्पिणी काल के जितने समय हो सकते हैं, उतने ही स्थान लेश्याओं के हो सकते हैं। २४ असंख्यात् लोकाकाश प्रदेशों के समान स्थान लेश्याओं के हैं। भावों के आधार से एक जीव लेश्या के अनेक स्थानों का स्पर्श कर सकता है। मिथ्यादृष्टि जीव छहों लेश्याओं में रह सकता है, वीतरागी (सयोगी केवली) के मात्र शुक्ललेश्या होती है। अयोगी अवस्था में जीव लेश्या रहित होता है। लेश्या के आधार पर गति-निर्धारण उत्तराध्ययन में कृष्ण, नील व कापोतलेश्या को दुर्गति का कारण, नरकतिर्यञ्च गति का हेतु बताया गया है तथा तेजो, पद्म व शुक्ललेश्या को मनुष्य तथा देवगति बन्ध का कारण बताया है। २५ यह उल्लेख भी प्राप्त होता है कि कृष्णलेश्या से नरकगति, नीललेश्या से स्थावर, कापोतलेश्या से पशु-पक्षी रूप तिर्यञ्चगति, तेजोलेश्या से मनुष्यगति, पद्मलेश्या से देवगति तथा शुक्ललेश्या से देवगति या सिद्धगति प्राप्त होती है। यह भी अपेक्षा से कथन है। भावों के आधार से एक जीव लेश्या के अनेक स्थानों का स्पर्श कर सकता है। मिथ्यादृष्टि जीव छहों लेश्याओं में रह सकता है, वीतरागी (सयोगी केवली) के मात्र शुक्ललेश्या होती है। अयोगी अवस्था में जीव लेश्या रहित होता है। २४. उत्तराध्ययन/ अ. ३४/ गा. २० २५. उत्तराध्ययन/ अ. ३४/ गा. ४१ से ४३ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठम् अध्याय कषाय और तत्त्व Gam 'तस्य भावस्तत्त्वम', 'तत्त्वौ भावे इति त्व प्रत्ययः', तत् शब्द सर्वनाम है और सर्वनाम शब्द सामान्य अर्थ का वाचक होता है। जो पदार्थ जिस रूप से अवस्थित है, उसका उस-रूप होना तत्त्व है। तत्त्वसार में तत्त्व का अर्थ अस्तित्वयुक्त पदार्थ बताया गया है। प्रत्येक पदार्थ में पृथक्-पृथक् धर्म रहता है। जिस धर्म के अनुसार पदार्थ का निश्चय किया जाता है, उस धर्म को तत्त्व कहते हैं। तत्त्वनिरूपण जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्ररूपित है। तत्त्व के कहीं नौ एवं कहीं सात भेद बताये गये हैं। कहा है, "जीवाजीवा य बंधो य, पुण्णं पावासवो तहा। संवरो निज्जरा मोक्खो, संतेए तहिया नव।।" तत्त्व नौ होते हैं- जीव, अजीव, बन्ध, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा १. सर्वार्थसिद्धि/अ. १/सू. २ (ब) दर्शाभृत/गा. २० २. तत्त्वसार/गा. १ पृ. ४ ५. नवतत्त्व/गा. १ ३. सम्यग्दर्शन अ. ३/पृ. २२७ ६. उत्तराध्ययन/अ. २८/गा. १४ ४. (अ) योगशास्त्र/प्र. १/श्लोक १७ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन और मोक्ष। कई ग्रन्थों में सात तत्त्वों का उल्लेख है; यथा - 'जीवाजीवास्रबन्धसंवरनिर्जरा मोक्षास्तत्त्वम्।' जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष पुण्य-पाप का आस्रव में अन्तर्भाव हो जाता है। शुभ कर्मों का आगमन पुण्यास्रव और अशुभकर्मों का आगमन पापास्रव है, तथा शुभकर्मों का बन्ध पुण्यबन्ध और अशुभकर्मों का बन्ध पापबन्ध कहलाता है। मुख्यतया जीव और अजीव, इन दो तत्त्वों में समस्त तत्त्वों का समावेश हो जाता है। आस्रव, बन्ध एवं पाप कषाय-परिणामों के स्वरूप एवं संवर, निर्जरा तथा मोक्ष कषाय-क्षय के फलस्वरूप निर्मित अवस्थाएँ हैं। ये आत्मा की अशुद्धि-शुद्धि, ह्रास-विकास की सूचक हैं। अत: इन तत्त्वों को हेय, ज्ञेय, उपादेय- रूप में तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया है।' ज्ञेय - जीव, अजीव, हेय - आस्रव, बन्ध, पाप, उपादेय - संवर, निर्जरा, मोक्ष। पुण्य तत्त्व मोक्ष की अपेक्षा हेय एवं पाप की अपेक्षा उपादेय तत्त्व है। जीव जब धन आदि अचेतन पदार्थों में सुख-शान्ति खोजता है, रागादि विकल्प करता है, तब अजीव/कर्म के साथ संयोग होता है। कर्म का आगमन आस्रव एवं कर्म का बन्धन बन्ध तत्त्व के अन्तर्गत कहलाता है। कषायमन्दता पुण्य एवं कषाय तीव्रता पाप रूप अवस्था है। जब जीव स्व-पर भेदविज्ञान करके विकल्प उत्पन्न करने वाले कर्मों/संस्कारों को आने से रोकता है एवं पूर्वबद्ध संस्कारों को काटता चला जाता है, तब संवर एवं निर्जरा तथा मोह-क्षय की अवस्था में मोक्षतत्त्व होता है। इस तरह तत्त्वों के दो खण्ड हैं - एक कषायउत्पादक और दूसरा कषाय निवारक। अब हम इस अध्याय में तत्त्वों में कषाय-स्वरूप पर विचारणा करेंगेजीव : स्वभाव और विभावदशा बृहद्-द्रव्यसंग्रह में जीव का लक्षण बताते हए कहा है-१० ___“जीवो उवओगमयो, अमुत्ति कत्ता सदेह परिमाणो, भोत्ता संसारत्यो, सिद्धो सो विस्सोड्ढगई।" जो जीता है, उपयोगमय है, अमूर्त्तिक है, कर्ता है, स्वदेह परिमाण है, भोक्ता है, संसार में स्थित है, सिद्ध है और स्वभावतः ऊर्ध्वगमन करता है, वह जीव है। ७. तत्त्वार्थ सूत्र/अ. १/सू. ४ ९. वही ८. तत्त्वज्ञान प्रवेशिका/गा. १/टी. पृ. ५ १०. बृहद् द्रव्यसंग्रह Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय और कर्म __ आचारांग, भगवती२, दशवैकालिक'३, तत्त्वार्थ आदि ग्रन्थों में आत्मा/ जीव का लक्षण ज्ञान बताया गया है। शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से वह जीव न लम्बा है, न छोटा है, न गोल है, न त्रिकोण है, न चौकोर है और न ही मण्डलाकार है। वह न कृष्ण है, न नील है, न लाल है, न पीत है और न ही शुक्ल है। वह न सुगन्धयुक्त है और न दुर्गन्धयुक्त है। वह न तिक्त है, न कटु है, न कषाय है, न आम्ल है और न मधुर है। वह न कर्कश है, न मृदु है, न गुरु है और न ही लघु है। वह न शीतल है, न उष्ण है, न स्निग्ध है और न ही रूक्ष है। वह न शरीरवान है, न ही जन्मधर्मा है और न ही संगयुक्त है। वह न स्त्री है, न पुरुष है और न नपुंसक है। वह न शब्द है, न रूप है, न गन्ध है, न रस है और न स्पर्श ही है।५ वह जीव न छेदा जाता, न भेदा जाता, न जलाया जाता और न मारा जाता है। १६ वह अनादि, अनिधन, अविनाशी, अक्षय, ध्रुव और नित्य है। तत्त्वसार में शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि से स्वजीव तत्त्व के विषय में देवसेन कहते हैं-१८ 'जिसके न क्रोध है, न मान है, न माया है, न लोभ है, न शल्य है, न कोई लेश्या है और न जन्म, जरा और मरण भी है, वही निरंजन मैं हूँ।' शुद्ध द्रव्यदृष्टि से जीव में क्रोध, मान, माया, लोभ इत्यादि विकारों का अभाव है। पर्याय दृष्टि से संसारी जीव राग-द्वेषादि भावों से युक्त है। आचारांग-सूत्र में कहा गया है- 'व्यक्ति में जो अहंकार है, जैसे- 'मैंने किया', 'मैं करता हूँ' 'मैं करूँगा' यह जीव का कर्तृत्वभाव है। माया कषाययुक्त जीव की स्थिति बताते हुए कहा है-२० 'मायावी और प्रमादी जीव बार-बार गर्भ में अवतरित होता है और जन्म-मरण करता है।' जैनागमों में विभिन्न पक्षों की अपेक्षा से आत्मा को आठ प्रकार का कहा गया है-२१ १. द्रव्यात्मा-मूल स्वरूप की अपेक्षा। २. कषायात्मा-क्रोध, मान, माया आदि कषायों से युक्त जीव की अवस्था विशेष। ११. आचारांग/१/५/५ १७. भगवतीसूत्र ९/६/३/८७ १२. भगवती/१२/१० १८. तत्त्वसार/गा. १९ १३. दशवैकालिक/९/३/११ १९. आचारांग/१/१/११ १४. तत्त्वार्थ २०. आचारांग/१/३/१ १५. आचारांग १/५/६ २१. भगवतीसूत्र/१२/१०/४६७ १६. आचारांग १/३/३ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन ३. योगात्मा-सशरीरी जीव की मन, वचन, काय की चंचल अवस्था विशेष। ४. उपयोगात्मा-ज्ञान एवं दर्शन गुण के आधार पर जीव का कथन विशेष। ५. ज्ञानात्मा-ज्ञान जानने की शक्ति। ६. दर्शनात्मा-सामान्य बोध ज्ञान की शक्ति। ७. चारित्रात्मा-जीव की क्रियात्मक शक्ति। ८. वीर्यात्मा-जीव की दानादि शक्ति। उपर्युक्त आठ प्रकारों में द्रव्यात्मा, उपयोगात्मा, ज्ञानात्मा, दर्शनात्मा, चारित्रात्मा और वीर्यात्मा- गुण आधारित भेद हैं। जीव के लक्षण हैं.२ 'णाणं च दसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा। वीरियं उवओगो य, एयं जीअस्स लक्खणं' -ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य एवं उपयोग जीव के लक्षण हैं। चंचलता के आधार पर योगात्मा एवं राग-द्वेषादि मनोविकारों के आधार पर कषायात्मा सम्बोधन दिया गया है। गतियों के आधार पर जीव के चार भेद किए गए हैं-२३ (१) देव, (२) मनुष्य, (३) तिर्यंच (पशु-पक्षी आदि); (४) नारक। जीव अनादि, शाश्वत एवं नित्य है; जैसा कि द्रव्य का स्वभाव है; गति, जाति, लिंगादि अपेक्षा जीव अनित्य, अशाश्वत एवं आदि है। भगवतीसूत्र में भगवान् महावीर ने गौतम स्वामी के प्रश्न का उत्तर देते हुए जीव को शाश्वत और अशाश्वत दोनों कहा "भगवन्! जीव शाश्वत है अथवा अशाश्वत?" "गौतम! जीव शाश्वत/ नित्य भी है तथा अशाश्वत अनित्य भी।" "भगवन्! जीव को नित्य एवं अनित्य कैसे कहा गया?" "गौतम! द्रव्य की अपेक्षा नित्य है, भाव की अपेक्षा अनित्य है।'' जमाली के साथ हुए प्रश्नोत्तर में भगवान् महावीर कहते हैं-५ हे जमाली! जीव शाश्वत है, तीनों कालों में ऐसा कोई समय नहीं है, जब यह जीव नहीं था, नहीं है अथवा नहीं होगा। इसी अपेक्षा से यह जीवात्मा नित्य, शाश्वत है। हे जमाली! जीव अशाश्वत है, क्योंकि नारक मर कर तिर्यंच, तिर्यंच मर कर मनुष्य होता है, मनुष्य मर कर देव होता है। इस परिवर्तन की अपेक्षा से यह जीवात्मा अनित्य है। २२. नवतत्त्वप्रकरण/गा. ५ २३. समवायांग/स. ४ २४. भगवती/७/२/२७३ २५. वही/९/६/३८७ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय और कर्म कभी एकेन्द्रिय, कभी द्वीन्द्रिय, कभी त्रीन्द्रिय, कभी चतुरिन्द्रिय एवं कभी पंचेन्द्रिय के शरीर में जीव का समय चार संज्ञाओं की पुष्टि में व्यतीत होता है। उत्तराध्ययन में कहा है-२६ मोहनीय और असातावेदनीय कर्म के उदय से जब चेतनाशक्ति विकारयुक्त होती है, तब संज्ञाएँ जागृत होती हैं। संज्ञाएँ चार हैं- १. आहार संज्ञा, २. भय संज्ञा, ३. मैथुन संज्ञा; ४. परिग्रह संज्ञा। समवायांग में संज्ञाएँ दस बताई गई हैं-२० १. आहार २. भय ३. मैथुन ४. परिग्रह ५. क्रोध ६. मान ७. माया ८. लोभ ९. ओध १०. लोक। चार संज्ञा आहारादि से लोभ कषाय की मुख्यता है। समवायांग से क्रोधादि कषायों को भी संज्ञा रूप प्रतिपादित किया गया है। जैसा-जैसा बाह्य निमित्त मिलता है, वैसीवैसी संज्ञाएँ प्राय: जागृत होती हैं। ज्ञानदशा में निराहार संकल्प, निर्भयता, ब्रह्मचर्य एवं निष्परिग्रहता में निरत होकर साधक संज्ञाओं को तोड़ देता है। यद्यपि ज्ञान आत्मा का गुण है; किन्तु अज्ञानावस्था में मात्र ज्ञानधारा नहीं अपितु रागधारा/कर्मधारा का संयोग होता है। रागद्वेषादि रहित मात्र जानना ज्ञानधारा है एवं कषायभाव सहित जानना कर्मधारा है।९ जब केवल जानने की क्रिया होती है, तब जीव ज्ञाता कहलाता है तथा जब ज्ञान के साथ कषाय जुड़ जाता है, तब जीव स्वयं को कर्ता मानता है। ज्ञान से जानना होता है, जैसे यह बगीचा है, इसमें भाँति-भाँति के वृक्ष हैं, नाना-प्रकार के पुष्प विकसित हो रहे हैं; किन्तु यह बगीचा मेरा है, ये वृक्षारोपण मेरे द्वारा किए गए हैं, इस ज्ञान के साथ कर्तृत्वभाव जुड़ा है, यह कर्मधारा है। कर्मधारा के कारण कर्म-परमाणु आकर्षित होकर आत्मा के साथ एक-क्षेत्रावगाही के रूप में बंध जाते हैं। ३० कर्मबंध के कारण संसार-संबंध होता है। जब जीव कर्मधारा से विरत हो ज्ञान-धारा में स्थित होता है, तब अकषाय गुण प्रकट होकर जीव शुद्ध, बुद्ध, मुक्त अवस्था को प्राप्त करता है। विभाव दशा से स्वभाव दशा को उपलब्ध होता है। ___ अजीव : कषाय का फल-कर्म ज्ञान गुणयुक्त जीवतत्त्व है एवं ज्ञानादि गुणों से रहित अजीव तत्त्व है। जिसमें चेतना नहीं है, वह अजीव है। ३१ २६. (अ) उत्तराध्ययन अ. ३१/गा. ६ २९. शान्तिपथ प्रदर्शन/अ. १०/पृ. ६६ (व) स्थानांग स्थान ४ ३०. तत्त्वार्थसूत्र/अ. ८/सू. ३ ।। २७. समवायांग/समवाय १० ३१. उत्तराध्ययन/अ. ३६/गा. १ २८. स्थानांग/स्थानक वृत्ति Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन अजीव के मुख्यतः पाँच भेद हैं-३२ धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल और पुद्गल। अजीव का दो भागों में वर्गीकरण किया जाता है- रूपी और अरूपी।३ पुद्गल रूपी द्रव्य है एवं अन्य सभी अजीव अरूपी द्रव्य हैं। शरीर, इन्द्रियाँ, मन, कर्म आदि सब रूपी पुद्गल हैं। जीव के रागादि भाव से कार्मणवर्गणा के पुद्गल आकर्षित होते हैं। जीवप्रदेश के क्षेत्र में रहे हए कर्म-स्कन्ध योग एवं कषाय की तरतमता के अनुसार सभी दिशाओं से आत्म-प्रदेशों में बँधते हैं। ३४ आत्मा और कर्म में संबंध कराने वाला कषाय भाव आत्मा का मूल स्वभाव नहीं है। जब आत्मा बहिर्मुखी होती है, इन्द्रियों के माध्यम से जड़ पदार्थों में चेतना व्याप्त होती है, वह विभाव दशा कहलाती है। रागादि चेतन का गुण नहीं होने के कारण जीव तत्त्व नहीं है। ये भाव जीव में होते हैं, किन्तु जीव के (स्वभावगुण) नहीं होते। इन भावों का आधार मोह है, मोह जड़ पदार्थों में होता है, अतः इन्हें भी जड़ कहा जाए तो किसी अपेक्षा से उचित है। ५ व्यक्ति के प्रति मोह है तो व्यक्ति को आत्मा नहीं अपितु शरीर के कारण मोह होता है। शारीरिक संबंधों में रागादि भाव होते हैं। शरीर भी जड़ अचेतन तत्त्व है। बाहर में इन्द्रिययुक्त शरीर है तो भीतर जगत में बुद्धि तथा उसकी विविध धारणाएँ, स्मृतियाँ, अहंकार तथा उसकी अनेक वासनाएँ, कामनाएँ, इच्छाएँ व कषायें, मन तथा इनके विविध संकल्प-विकल्प हैं। वैभाविक अवस्था में इन सबका अस्तित्व है, किन्तु जीव की स्वाभाविक अवस्था में मात्र ज्ञानादि गुणों का अस्तित्व दिखाई देता है। जैसे पानी में शक्कर डालकर अग्नि पर चढ़ाने से चाशनी बनती है। उस चाशनी में उष्णता एवं मधुरता दोनों गुण दिखाई देते हैं। कुछ समय पश्चात् चाशनी में मात्र मधुरता रह जाती है, उष्णता नष्ट हो जाती है, क्योंकि उष्णता अग्नि-संयोग का परिणाम थी। इसी प्रकार कषाय भाव चेतन का स्वभाव न होने के कारण शुद्ध जीव-तत्त्व में नहीं दिखाई देते; जीव और अजीव की संयोगावस्था में इन भावों का अस्तित्त्व रहता है। अतः ये भाव न ही जीवतत्त्व के अन्तर्गत हैं, न अजीवतत्त्व के। आस्रव : कषाय का आगमन आ समन्तात् लवति कर्म अनेनेति आस्रवः - जिसके द्वारा चारों ओर से कर्म आते हैं, उसे आस्रव कहते हैं। आत्मप्रदेशों में कषायोदय से आने वाली ३२. वही/अ. ३६/गा. १ से ४७ ३४. तत्त्वार्थसूत्र/अ. ८/सू . २५ ३३. वही/अ. ३६.गा. ४ ३५. शान्तिपथ प्रदर्शन/अ. ८/पृ. ५३ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय और कर्म कार्मण-वर्गणाओं के परमाणुओं का आकर्षित होना, आस्रव है।६ यद्यपि आस्रव में योग भी एक कारण है, किन्तु योग से होने वाला कर्मबन्ध एक समयवर्ती होता है, वह सूखी दीवार पर फेंके गए लकड़ी के गोले के समान है, जो दीवार का स्पर्श करके तुरन्त धरती पर गिर पड़ता है। इसे ईर्यापथिक कर्म कहते हैं। कषायोदय से होने वाला कर्मबन्ध चिकनाई से सने वस्त्र पर चिपकने वाली धूल के समान होता है। इसे साम्परायिक कर्म कहते हैं। यह कर्म कषाय की तीव्रता या मन्दता के अनुसार अधिक या अल्पस्थिति वाला होता है और यथासम्भव शुभाशुभ विपाक का कारण भी। साम्परायिक आस्रव के निम्नलिखित भेद बताए गए हैं-३८ (१) पाँच अव्रत (२) चार कषाय (३) पाँच इन्द्रियाँ (४) पच्चीस क्रियाएँ। अव्रत ३९ (१) प्राणातिपात अर्थात् हिंसा (२) मृषावाद अर्थात् असत्य (३) अदत्तादान अर्थात् चोरी (४) मैथुन अर्थात् अब्रह्मसेवन (५) परिग्रह अर्थात् संग्रह में मूर्छा। इन पाँचों अव्रतों के कार्य में कारण रूप क्रोध, मान, माया एवं लोभ आदि भाव ही हैं। द्वेष के वशीभूत हो हिंसा, लोभ एवं मान कषाय की प्रबलता से असत्य, चोरी, अब्रह्म सेवन एवं संग्रह में जीव की प्रवृत्ति होती है। कषाय। जब क्रोध, मान, माया और लोभ प्रवृत्ति/क्रिया में दिखाई देता है तब अन्तरंग में इन कषायों का सद्भाव होता है। यदि बाहर में क्रोधाभिव्यक्ति हो एवं भीतर में क्रोध की अधिकता न होकर हितभावना हो, तो कर्मास्रव अल्प होगा। इन्द्रियाँ स्पर्शेन्द्रिय, रसेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय एवं श्रोत्रेन्द्रिय- इन्द्रियाँ पाँच हैं।” स्पर्श, रस, गन्ध, रूप एवं शब्द इनके मुख्य बाह्य विषय हैं। आत्मा या चेतना इन्द्रियों के माध्यम से इन्हें ग्रहण करती है, स्पर्शानुभूति करती है, चखती है, सूंघती है, देखती है और सुनती है। विषय ग्रहण करना इन्द्रिय का स्वभाव है एवं गृहीत विषयों के प्रति मूर्छा करना चेतना का कार्य है। ३६. योगसार/आस्रवाधिकार श्लो. १, २ (स) नवतत्त्व दीपिका/गा. २१ ३७. (अ) तत्त्वार्थसूत्र अ. ६/सू. ५ ३९. उत्तराध्यापन/अ. ३१/गा. ७ (ब) आचारांग/१/९/१ ४०. वही। ३८. (अ) तत्त्वार्थसूत्र/अ. ६/सू. ६ ४१. तत्त्वार्थ अ. २/सू. १५ (ब) प्रश्नव्याकरण/आस्रव द्वार ४२. वही/अ. २/सू. २१ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन इन्द्रियों तथा मन के द्वारा जब विषयाभिलाषा में प्राणी निरत हो जाता है, तब वे विषय उसके लिए बन्धन का कारण बन जाते हैं। ४३ आचारांग के अनुसार कर्मबन्धन की मूलभूत प्रेरक विषयासक्ति ही है। उत्तराध्ययन में भी कामासक्ति को दुःखमूलक बताया गया है।" कहा गया है कि जिस प्रकार कछुआ खतरे के समय अपने अंग-प्रत्यंगों को समेट लेता है, उसी प्रकार साधक को भी विषयाभिमुख होती अपनी इन्द्रियों को आध्यात्मिक ज्ञान के द्वारा समेट लेना चाहिए।५ । मनोज्ञ-अमनोज्ञ विषयों में आसक्त होने वाला विनाश एवं पतन को प्राप्त होता है। एक-एक इन्द्रिय का विषय भी प्राणी को प्राण विनाशक संकट में डाल देता है, तो जहाँ पाँचों इन्द्रियों के सेवन में वृत्तियाँ तन्मय हों, ऐसे प्राणी की क्या दशा होती होगी? शास्त्रों में ऐसे उदाहरण मिलते हैं कि किस इन्द्रियविषयासक्ति से कौन-सा जीव विशेषतया दुःख प्राप्त करता है।" (१) स्पर्शेन्द्रिय- हस्तिनी के स्पर्श का लोभ जब प्रबल बनता है तब मदोन्मत्त, बलवान, वन में स्वेच्छया विहार करने वाला गजराज बंधनों में बंध जाता है, खिच्चरी नामक पक्षिणी मैथुन सुख के लोभ में फँसकर जब गर्भवती हो जाती है, तब वह प्रसव के लिए उद्यत होती है; किन्तु प्रसव कर नहीं पाती और तीव्र वेदना से मृत्यु को प्राप्त होती है। (२) रसेन्द्रिय- आटे की गोली में लुब्ध बनी मछली आटा देखती है, काँटा नहीं; वह काँटा गले में फँसकर प्राणहरण कर देता है। मरे हुए हाथी के शरीर पर बैठा हुआ; किन्तु नदी के वेग में पड़ा हुआ कौआ समुद्र में जा पहुँचता है। (३) घ्राणेन्द्रिय- कमल की सुगन्ध में फँसा भ्रमर संध्या होने पर कमल की पंखुड़ियों में कैद हो जाता है एवं प्रात: सरोवर पर आने वाले हाथियों के पाँव तले कुचला जाता है। रोटी की गंध के पीछे भागने वाला चूहा चूहेदानी में पकड़ा जाता है और जंगल में फिंकवा दिया जाता है। (४) चक्षुरिन्द्रिय- दीपक के प्रकाश को देख चंचलचित्त होकर पतंगा दीपशिखा का आलिंगन कर मृत्यु का वरण करता है। ४३. आचारांग/१/१/५ ४४. उत्तराध्ययन अ. ३२/गा. १९ ४५. (अ) दशवैकालिक/८/८० (ब) सूत्रकृतांग/१/८/१६ ४६. ज्ञानार्णव/प्र. १८/श्लो. १५१ ४७. सभाष्य तत्त्वार्थाधिगम अ. ६/सू. ६ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय और कर्म (५) श्रोत्रेन्द्रिय- सपेरे की बीन बजने से मुग्ध बना सर्प पुनः जहर चूसने चला आता है, संगीत लहरियों से मंत्रमुग्ध हुआ हरिण भागना भूल जाता है और पकड़ा जाता है। ये बंधन, वेदना, मृत्यु बाह्य अवस्थाओं से सम्बन्धित हैं; किन्तु आत्म-जगत् में इस लोभ कषाय से वशीभूत हुआ जीव अनन्त कर्म परमाणुओं का आस्रव करता है। ___इन्द्रिय विषयों से सम्बन्धित ये कुछ उदाहरण शास्त्रों में विषयाभिलाषा से होने वाली हानियाँ समझाने के लिए दिए गए हैं। वैले सम्पूर्ण जगत में समस्त अज्ञानी जीव इन विषय-वासनाओं के चक्र में ही घूम रहे हैं। इन विषयों का मूल कारण भीतर में पड़ी आसक्तियाँ हैं। लोभ कषाय से जीव अधिकाधिक विषय सेवन करना चाहते हैं, पाँचों इन्द्रियों के विषयों का भोग करना चाहते हैं। ग्रीष्मकाल हो, प्यास से गला सूख रहा हो उस समय यदि कोई शीतल जल दे दे तो स्पर्शेन्द्रिय सन्तुष्ट हो जाती है। यदि उस शीतल जल में शक्कर घुली हो, तो रसेन्द्रिय, यदि सुगन्धित द्रव्य इत्र डाला हो तो घ्राणेन्द्रिय; यदि लाल, हरा रंग डाला गया हो तो चक्षुरिन्द्रिय एवं यदि वहाँ संगीत का आयोजन हो तो श्रोत्रेन्द्रिय भी तृप्ति का अहसास करने लगती है। लोभ एवं मान को पुष्टि मिलती है; किन्तु पदार्थ-उपयोग के क्षणों में जितनी-जितनी चित्त की आह्लादपूर्ण स्थिति है, आसक्ति का संबंध होने से उतना-उतना कर्म का आस्रव है। अतः इन्द्रियाँ साम्परायिक आस्रव के भेद के अन्तर्गत ली गई हैं। क्रियाएँ- कषायजन्य कौन-कौन-सी क्रियाएँ जीवन व्यवहार में विशेषतया दृष्टिगत होती हैं, उनके आधार पर क्रियाएँ पच्चीस बताई गई हैं (१) सम्यक्त्व क्रिया- शुभरागपूर्वक देव-गुरु-धर्म के प्रति व्यवहार। (२) मिथ्यात्व क्रिया- सरागी देव की स्तुति-उपासना आदिरूप। (३) प्रयोग क्रिया- गमनागमन में कषाययुक्त प्रवृत्ति। (४) समादान क्रिया- बाह्य त्याग किन्तु भोगवृत्ति की ओर झुकाव। (५) ईर्यापथ क्रिया- गमनागमन क्रिया। (६) कायिकी क्रिया- द्वेषभाव से युक्त क्रिया। (७) आधिकरणिकी क्रिया- हिंसाकारी साधनों को ग्रहण करना। (८) प्रादोषिकी क्रिया- क्रोध के आवेश से होने वाली क्रिया। (९) पारितापनिकी क्रिया- प्राणियों को सताना। ४८. (अ) नवतत्त्व प्रकरण (ब) तत्त्वार्थ अ. ६/सू. ६ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन (१०) प्राणातिपातिकी क्रिया- प्राणहरण करना । ( ११ ) दर्शन क्रिया - रागभाव से देखना । (१२) स्पर्शन क्रिया - स्पर्श से रागानुभव करना । (१३) प्रात्ययिकी क्रिया- नवीन शस्त्रों का निर्माण । (१४) समन्तानुपातन क्रिया - प्रमादवश उपयोगी स्थान पर मल-मूत्र त्याग । (१५) अनाभोग क्रिया - स्थान प्रमार्जना किये बिना उपयोग करना । ( १६ ) स्वहस्त क्रिया- अन्य की क्रिया स्वयं करना । ( १७ ) निसर्ग क्रिया - पापप्रवृत्ति की अनुमति देना । (१८) विदार क्रिया - अन्य के पाप को प्रकट करना। (१९) आज्ञाव्यापादिकी क्रिया - व्रत ग्रहण में अशक्ति होने पर विपरीत प्ररूपणा । (२०) अनवकांक्ष क्रिया- धूर्तता एवं आलस्य से शास्त्र - विधि का अनादर करना । (२१) आरम्भ क्रिया - हिंसाजनक प्रवृत्ति में स्वयं रत रहना एवं अन्य को उस प्रवृत्ति में संलग्न देख प्रसन्नता। (२२) पारिग्रहिकी क्रिया - संग्रह के संरक्षण हेतु क्रिया । (२३) माया क्रिया - अन्य को ठगना । (२४) मिथ्यादर्शन क्रिया- विपरीत बुद्धि का अनुमोदन करना । (२५) अप्रत्याख्यान क्रिया- पाप व्यापार से निवृत्त न होना । जीवन-व्यवहार में क्रियाएँ अनेक प्रकार की होती हैं, उन क्रियाओं के आधार से व्यक्ति शुभाशुभ का अनुमान करता है। मूलतः क्रिया में जुड़े भाव से कर्म आस्रव का सम्बन्ध है । एक जैसी क्रिया में दो व्यक्तियों के भाव भिन्न-भिन्न हो सकते हैं; अतः कर्म आस्रव भी भिन्न-भिन्न होता है। आस्रव का विशेष सम्बन्ध भाव जगत से होता है। कषाय भाव में तीव्रता हो अथवा मन्दता हो, जानबूझकर गलत कार्य किया हो अथवा अनजाने में हो गया हो, उत्साह एवं प्रबलता से किया हो अथवा अल्पशक्ति से किया हो, अधिकरण विशिष्ट हो अथवा सामान्य हो - इन सबके आधार से कर्म-परमाणुओं का आगमन होता है। जीव-अधिकरण के १०८ भेद बताए गए हैं। " संसारी जीव शुभ या अशुभ प्रवृत्ति करते समय इन १०८ अवस्थाओं में से किसी-न-किसी अवस्था में अवश्य ४९ ४९. तत्त्वार्थ/अ. ६ / सू. ९ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय और कर्म रहता है। इन अवस्थाओं में कषाय के चार प्रकार, योग के तीन प्रकार, कृत कारित एवं अनुमत रूप तीन प्रकार एवं संरम्भ, समारम्भ तथा आरम्भ रूप तीन प्रकार होते हैं। संरम्भ अर्थात् हिंसात्मक कार्य का संकल्प, समारम्भ अर्थात् उस कार्य हेतु साधन जुटाना, आरम्भ अर्थात् वह कार्य करना। कृत अर्थात् करना, कारित अर्थात् करवाना, अनुमत अर्थात् अनुमति देना। इन १०८ अवस्थाओं के नाम निम्नांकित हैं (१) क्रोध कृत काय संरम्भ (२) क्रोध कृत काय समारम्भ (३) क्रोध कृत काय आरम्भ (४) क्रोध कृत वचन संरम्भ (५) क्रोध कृत वचन समारम्भ (६) क्रोध कृत वचन आरम्भ (७) क्रोध कृत मन संरम्भ (८) क्रोध कृत मन समारम्भ (९) क्रोध कृत मन आरम्भ (१०) क्रोध कारित काय संरम्भ (११) क्रोध कारित काय समारम्भ (१२) क्रोध कारित काय आरम्भ (१३) क्रोध कारित वचन संरम्भ (१४) क्रोध कारित वचन समारम्भ (१५) क्रोध कारित वचन आरम्भ (१६) क्रोध कारित मन संरम्भ (१७) क्रोध कारित मन सभारम्भ (१८) क्रोध कारित मन आरम्भ (१९) क्रोध अनुमत काय संरम्भ (२०) क्रोध अनुमत काय समारम्भ (२१) क्रोध अनुमत काय आरम्भ (२२) क्रोध अनुमत वचन संरम्भ (२३) क्रोध अनुमत वचन समारम्भ (२४) क्रोध अनुमत वचन आरम्भ (२५) क्रोध अनुमत मन संरम्भ (२६) क्रोध अनुमत मन समारम्भ (२७) क्रोध अनुमत मन आरम्भ जिस प्रकार क्रोध कषाय की यह सत्ताइस अवस्थाएँ हैं, उसी प्रकार मान, माया एवं लोभ कषाय की सत्ताइस-सत्ताइस अवस्थाएँ हैं। जीव के भावाधिकरण की यह कुल एक सौ आठ अवस्थाएँ हैं। इनकी विशेष विवेचना की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि नाम के अनुसार प्रवृत्ति का बोध हो जाता है। उदाहरणार्थक्रोध कृत काय संरम्भ। क्रोधपूर्वक अपने द्वारा (कृत) किसी को मारने का (काय) संकल्प (संरम्भ) करना । इन समस्त अवस्थाओं में मूल भाव कषाय है। मन से उठने वाले कषायजनित विकल्प ही इस शरीर तथा जिह्वा को प्रेरित करके कोई न कोई शारीरिक या वाचिक क्रिया करने को बाध्य करते हैं। ये विकल्प चित्त में व्याकुलता पैदा करते हैं। इन कषायजन्य इच्छाओं, विकल्पों एवं विचारों का अन्तर्जगत में उठना ही भावास्रव है। इनके परिणामस्वरूप आने वाला कर्म समुदाय द्रव्यास्रव है। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन बन्ध : कषाय का बन्धन जन्म दुःख है, मृत्यु दुःख है, रोग दुःख है, वृद्धावस्था दुःख है; इस संसार में जीव ऐसे अनन्त दुःखों का वेदन करता है। दुःख का कारण क्या है? क्या देह, स्वजन, परिजन, धन, धरती दुःख के निमित्त हैं? नहीं, दुःख का कारण स्वयं की काषायिक वृत्तियाँ हैं। जन्म, जरा, मृत्यु आदि अवस्थाओं से गुजरना बाह्य बन्धन है; आन्तरिक बन्धन स्वयं जीव के कषाय-संस्कार हैं। एक भाव को पुनः पुनः जीने पर वह संस्कार रूप बन जाता है। जैसे चोरी करने वाले के चोरी के संस्कार पुष्ट हो जाते हैं, सिगरेट पीने वाले के सिगरेट पीने की आदत मजबत हो जाती है, चाय पीने वाले का चाय पीने का अभ्यास सध जाता है, वैसे ही कषाय भावों के पुनः-पुनः आस्रव से वह कषाय-संस्कार निर्मित हो जाता है? मिथ्यात्व, कषाय आदि के कारण आने वाले कर्म-परमाणुओं का आत्मा से बन्धना- द्रव्य बन्ध है एवं कषाय संस्कार पुष्ट होना - भावबंध है।५० भाव जगत में शुभाशुभ संस्कार की अपेक्षा से दो भेद हैं- (१) अशुभ बन्ध; और (२) शुभ-बन्ध। इन्हें पापबन्ध एवं पुण्यबन्ध भी कहा गया है। ५१ पाप-बन्ध में तीव्र कषाय परिणति से होने वाली प्रवृत्ति कारणभूत है। शास्त्रों में पाप-बन्ध के अठारह स्थानक कारण बताए गए हैं-५२ (१) प्राणातिपात (२) मृषावाद (३) अदत्तादान (४) मैथुन (५) परिग्रह (६) क्रोध (७) मान (८) माया (९) लोभ (१०) राग (११) द्वेष (१२) कलह (१३) अभ्याख्यान (१४) पैशुन्य (१५) रति-अरति (१६) परपरिवाद (१७) मायामृषावाद; और (१८) मिथ्यात्व शल्य। (१) प्राणातिपात- प्राण + अति + पात = प्राणातिपात। प्राण गिराना अर्थात् प्राण विनष्ट करना। कहा है, प्रमत्तयोगात् प्राण व्यपरोपणं हिंसाः। ३ प्रमादयोग से प्राण समाप्त करना हिंसा है। इस सूत्र में मुख्य शब्द है, प्रमाद योग। प्रमाद के बिना हो जाने वाली हिंसा भी हिंसा नहीं है एवं प्रमत्तावस्था में बाह्य रूप से हिंसा न होने पर भी हिंसा का दोष लगता है। प्रमाद की मूलाधार राग-द्वेष वृत्ति है। अतः मूल में राग-द्वेषादि भावों को भावहिंसा कहा ५०. (अ) योगसार/बन्धाधिकार/गा. १ (ब) तत्त्वसार/गा. ५२ ।। ५१. योगसार बन्धाधिकार/गा. २ ५२. (अ) जैन कर्मसिद्धान्त का तुलनात्मक अध्ययन/पृ. ३५-३६ (ब) स्थानांगसूत्र स्थान १८ (स) उत्तराध्ययन/अ. २८/गा. १५ की टीका ५३. तत्त्वार्थ अ. ७/सू. ८ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय और कर्म १०१ गया है एवं किसी के प्राण हनन करना द्रव्यहिंसा है।५४ आचार्य अमृतचन्दजी ने भाव-भूमिका के आधार पर हिंसा-अहिंसा को परिभाषित करते हुए कहा है,५५ 'रागादि कषाय भावों का होना हिंसा एवं उनका अभाव ही अहिंसा है।' हिंसाअहिंसा का सम्बन्ध व्यक्ति के अन्तःकरण से है। बाह्य परिस्थिति पर हिंसाअहिंसा का निर्णय इतना निर्भर नहीं है, जितना आन्तरिक भाव-जगत पर। कालकौसरिक कसाई को महाराजा श्रेणिक ने हिंसा विरत करने के लिए सूखे कुँए में उतरवा दिया; किन्तु वह वहाँ गीली मिट्टी के भैंसे बना-बनाकर पाँच-सौ पाड़े मारने का संकल्प करता रहा। श्रेणिक ने प्रभुवीर से प्रश्न किया'प्रभो! कालसौकरिक ने आज हिंसा नहीं की।' महावीर ने उत्तर दिया'राजन्! वह भावों के आधार से हिंसा कर चुका है।' तन्दुलिया मत्स्य मगरमच्छ की आँख-फलक पर बैठा हुआ मछलियाँ खाने के विचार-मात्र से सातवीं नरक का आयु-बन्ध करता है। भगवतीसूत्र में गौतम स्वामी द्वारा भगवान् महावीर से प्रश्न किया गया है--५६ 'प्रभो! किसी श्रावक ने त्रस प्राणी की हिंसा नहीं करने की प्रतिज्ञा ली हो, किन्तु पृथ्वीकाय आदि स्थावर जीवों की हिंसा से वह विरत न हो। यदि उस श्रावक से धरती खोदते समय किसी त्रस जीव की हिंसा हो जाए तो क्या उसकी प्रतिज्ञा खण्डित हई?' प्रभु महावीर ने उत्तर दिया- 'नहीं, उसकी प्रतिज्ञा खण्डित नहीं हुई।' क्रिया गौण एवं भाव मुख्य हैं। अतः प्राणातिपात में राग-द्वेष रूप प्रमाद विशेष कारण है। (२) मृषावाद- मृषा + वाद = मृषावाद। मृषा अर्थात् असत्य, विपरीत, अप्रिय, वाद अर्थात् कथन। अलियवचन पाठ भी मिलता है। वाणी स्व-पर हितकारी हो, तो सत्य कही जाती है।५८ हिंसा में निमित्त बने, ऐसा सत्य भी सत्य नहीं कहा गया। अन्य के कषायोत्पत्ति में निमित्त बनने वाला वचन भी सत्य होने पर सत्य की श्रेणी में नहीं आता। क्रोधित होकर अपनी पत्नी रेवती को उसका अंधकारमय भविष्य बताने पर महाशतक श्रावक को भगवान् ५४. अभिधानराजेन्द्रकोश/खण्ड ७/पृ. १२२८ ५५. पुरुषार्थसिद्धयुपाय/गा. ४४ ५६. ओघनियुक्ति/७४८-४९ ५७. भगवतीसूत्र/श. ७/उ. १ ५८. आचारांग/२१५ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन महावीर ने प्रायश्चित करने के लिए कहा। सहसत्कार वचन में आंशिक असत्य भी मृषावाद की कोटि में आता है। आनन्द श्रावक से क्षमा-याचना करने की प्रेरणा प्रभु महावीर ने गौतम गणधर को दी । ५९ जब आनन्द श्रावक ने अपने अवधिज्ञान के क्षेत्र की सीमा के विषय में बताया, तब गौतम ने कहा था- 'नहीं, आनन्द श्रावक; एक श्रावक का अवधिज्ञान इतना विस्तीर्ण नहीं हो सकता । ' १०२ भाषा सत्य हो, हितकारी हो, प्रिय हो, मधुर हो । किसी के प्राणों पर संकट आता हो, तो उस समय साधक को सत्य वचन भी उच्चारित नहीं करना चाहिए | मेतार्य मुनि ने क्रौंच पक्षी को स्वर्णयव कण चुगते देख लिया था; किन्तु सुनार के पूछने पर वे मौन रहे । " सुनार ने कुद्ध होकर मेतार्य मुनि को गीले चमड़े से बाँधकर धूप में खड़ा कर दिया - नसें, हड्डियाँ आदि चमड़े के सूखने के साथ चरमराने लगी। अपने प्राण विसर्जित कर दिए पर क्रौंच पक्षी के प्राणों पर करूणाकर मुनि ने मुँह नहीं खोला। जहाँ करुणा नहीं कषाय होता है, वहाँ जानबूझकर अन्य को हैरान-परेशान कर दिया जाता है । भृषावाद का आलम्बन लेकर अपने कषाय को अज्ञानी पुष्ट करता है। (३) अदत्तादान - अ + दत्त + आदान बिना दिया हुआ लेना । वस्तु के स्वामी की आज्ञा के बिना वस्तु ग्रहण करना अदत्तादान है । " जब आसक्ति तीव्र हो, लोभ / आकांक्षा प्रबल हो, तब चोरी जैसा कुकृत्य होता है। पैर में काँटा चुभ जाने पर या हाथ की अंगुली कट जाने पर जैसे प्रतिसमय वेदना होती है; वैसे ही चोरी करने पर भय, व्याकुलता, अशान्ति का वेदन होता है। चौर्यकर्म के परिणामस्वरूप जीव त्रिकाल में दुःख प्राप्त करता है। चोरी से पूर्व योजना बनाने में आसक्ति, तृष्णा का महादुःख, चोरी करते समय भय, कम्पन, बेचेनी, घबराहट एवं चोरी के पश्चात् इहलोक में फाँसी, कैद, अंगोपांग छेदन तथा परलोक में नीच कुल, पशु-पक्षी जीवन, नारकीय जीवन आदि में दुःख प्राप्त करता है। यह तीव्र काषायिक वृत्ति का ही परिणाम है। (४) मैथुन - मैथुन अर्थात् मिथुन प्रवृत्ति । 'मिथुन' शब्द सामान्यतः स्त्रीपुरुष के जोड़े का वाचक है। अब्रह्मसेवन / विषयसेवन, वेदमोहनीय कषायोदय से उत्पन्न प्रवृत्ति है । जन्म-जन्मान्तरों के स्पर्शेन्द्रिय के संस्कार जब उभरते हैं, श्री कल्पसूत्र / महावीर चरित्र ६०. योगशास्त्र / अ. १ / टीका ६१. तत्त्वार्थ / अ. ७ / सू. १० ५९. Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय और कर्म तब जीव काम-वासना के भावों से प्रभावित हो जाता है। मात्र स्पर्शेन्द्रिय ही नहीं अपितु पंचेन्द्रियों के विषय में जब तीब्र कामराग/भोगेच्छा होती है,६२ तब उसे भोगविलास कहा जाता है। किन्तु मैथुन एक क्रिया-विशेष है। इस आसक्ति को पाप स्थानक/ पापबन्ध का कारण बताया गया है। - (५) परिग्रह- ग्रह धातु ग्रहण अर्थ में प्रयुक्त होती है। परिसमन्तात अर्थात् चारों तरफ से संग्रह करना - परिग्रह है। कहा गया है, मूर्छा परिग्रह है।६३ संचय में गाढ़ आसक्ति - परिग्रह है। परिग्रह दो प्रकार का बताया गया है-६४ (१) बाह्य; और (२) आभ्यन्तर। क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य आदि नौ प्रकार का बाह्य परिग्रह है एवं मिथ्यात्व क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तीन वेद चौदह प्रकार का आभ्यन्तर परिग्रह है। इस प्रकार कषायों को परिग्रह संज्ञा दी गई है। दशवैकालिक के अनुसार आसक्ति ही वास्तविक परिग्रह है। ६५ वास्तव में तृष्णा के कारण संग्रह एवं संग्रह में आसक्ति होती है। आसक्ति परिग्रह का मूल है एवं परिग्रह पाप का मूल है। आचारांग में कहा है-६६ 'अर्थलोभी व्यक्ति परिग्रह की पूर्ति हेतु दूसरों का वध करता है, उन्हें कष्ट देता है तथा अनेक प्रकार से यातनाएँ पहुँचाता है।' अतः परिग्रह पाप है। (६-९) क्रोध, मान, माया और लोभ-क्रोधादि कषाय-चतुष्क का स्वरूप विवेचन द्वितीय अध्याय में हो चुका है। यहाँ पाप-बन्ध के अठारह कारणों में इस चतुष्क का उल्लेख हुआ है। यद्यपि हिंसा, असत्य आदि समस्त पाप-स्थानकों के मूल में ये चारों कषाय निहित हैं; किन्तु यहाँ पर इन्हें स्वतन्त्र रूप से काषायिक प्रवृत्ति के रूप में लिया गया है। क्रोध-वृत्ति जब प्रकट होती है, तब क्रोध-प्रवृत्ति दिखाई देती है। शास्त्रों में चण्डकौशिक मुनि का दृष्टान्त आता है, जिन्होंने मेंढकी के पाँव से मर जाने पर अपना प्रमाद स्वीकार नहीं किया एवं शिष्य के पुनः-पुनः स्मरण दिलाने पर क्रुद्ध होकर उसे मारने दौड़े और मृत्यु को प्राप्त हुए। ६२. धर्म के दस लक्षण/अ. ११/पृ. १५२ ६३. तत्त्वार्थ अ. ७/सू. १२ ६४. (अ) मूलाचार/प्रथमभाग/अधि. ५/श्लो. २११ . (ब) आचारसार अधि. ५/श्लो. ६१ ६५. दशवैकालिक अ. ६/गा. २१ ६६. आचारांग/१/३/२ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन दूसरे जन्म में क्रोधी तापस के रूप में आश्रम में घूमते थे। निषेधाज्ञा तोड़ने वाले पर फरसे का प्रहार कर प्राणसंहार कर देते थे। तीसरे जन्म में दृष्टिविष सर्प हुए। जिनके दृष्टिनिपात से जीव प्राणविमुक्त हो जाते थे। इस प्रकार क्रोध-संस्कार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव - सभी रूपों में गुणाकार होता चला गया। तालिका - माध्यम से कहा जा सकता है___ द्रव्य काल क्षेत्र भाव चण्डकौशिक के भव में शिष्य पर रात्रि में उपाश्रय में हाथ से मारने को दौड़े थे। तापस के भव में कुछ व्यक्तियों पर दिवस में आश्रम में फरसे से मारने दौड़ते थे। सर्प के भव में प्रत्येक व्यक्ति पर रात्रि-दिवस में जंगल में दृष्टि से विष बरसाते थे। ___क्रोध के समान मान, माया एवं लोभ कषाय की प्रवृत्ति भी दिखाई देती है। लंकापति रावण द्वारा बहुतेरा प्रयास करने के पश्चात् भी जब महासती सीता शील-पथ से विचलित नहीं हुईं, तब विभीषण आदि रावण को समझाने लगे- 'हे ज्येष्ठवर्य! हमारा पक्ष अन्याय, अनीतिपूर्ण है। आप सीताजी को वापस लौटाकर युद्ध विभीषिका से बचें।' यह बात श्रवणकर रावण फुफकार उठा'हे विभीषण! अब ये शब्द तुम्हारे मुख पर नहीं आने चाहिए। मैं अपमान या पराजय के भय से सीता को कभी नहीं लौटाऊँगा। दुनिया कहेगी, रावण भयभीत हो गया।'६७ इतिहास साक्षी है कि रावण ने उस मान के वशीभूत हो लंकानाश कर दिया। इसी प्रकार माया की प्रवृत्ति दिखाई देती है। मन में कुछ, वचन में कुछ एवं काय-प्रवृत्ति कुछ भिन्न ही होती है। राजा प्रदेशी को जहर देने पर भी जब मृत्यु नहीं आई तो रानी सूर्यकान्ता ने रोने का नाटक करते हुए राजा पर अपने बाल बिखेर दिए और गला दबा दिया।६८ लोभ कषाय की प्रबलता सर्वत्र दिखाई देती है। अतः लोभ को पाप का बाप कहा गया है। गणिका के हाथ का भोजन नहीं करने के व्रतधारी पण्डितजी के समक्ष जब स्वर्णमुद्राओं का ढेर लगा तो मन विचार करने लगा'यहाँ कौन है देखने वाला? एक बार भोजन कर लेने पर इतना धन मिल जायेगा। जिन्दगी में आनन्द ही आनन्द छा जायेगा।' ऐसे अनेकों उदाहरण जगत में, अपने जीवन में घटित होते रहते हैं। अत: चारों कषायों को पापबन्ध का कारण बताया गया है। ६६. (अ) श्री कल्पसूत्र/महावीर चरित्र ६७. जैन रामायण ६८. रायपसेणीसूत्र Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय और कर्म ( १०-११ ) राग और द्वेष - जब किसी पदार्थ या प्राणी के प्रति लगाव या आकर्षण पैदा होता है, तो उसे राग कहते हैं तथा जब घृणा या विकर्षण पैदा होता है, तो उसे द्वेष कहते हैं । संसार भ्रमण का मूल कारण है राग । जीव राग में सुख मानता है, वस्तुतः जहाँ राग है, वहाँ दुःख है । राग के कारण अज्ञानी जीव किसी व्यक्ति, किसी पदार्थ को अपना मानता है। देह - राग से देह - चिन्ता करता है, परिवार-राग से उनके पालन-पोषण के लिए जिन्दगी भर लगा रहता है, पदार्थ - राग से संग्रह करता है। राग के तीन भेद हैं- ( १ ) स्नेहराग- कोई विशिष्ट गुण न होने पर भी जिसकी तरफ मन खिंचता है । ० (२) कामराग - जिसके साथ संसारसुख भोगने की इच्छा हो । ( ३ ) दृष्टिराग- अपनी पकड़ी हुई मान्यता का ६९ ७० आग्रह | १०५ स्नेहराग दो प्रकार का होता है- ( १ ) प्रशस्त; और ( २ ) अप्रशस्त । जो राग भव-भोग की स्पृहा से पैदा नहीं होता, निराशंस भावयुक्त होता है, वह प्रशस्त स्नेहराग है। शिष्य का गुरु के प्रति स्नेहराग होता है; किन्तु केन्द्र में आत्महित का भाव होता है। निःस्वार्थ प्रेम से पापबन्ध नहीं अपितु लोकोत्तर पुण्यबन्ध होता है। परमसुखी अर्थात् परमात्मा की सेवा तथा परम दुःखी की सेवा में भी राग तत्त्व है, प्रेम भाव है, पर वह परम्परा से आत्म-विशुद्धि का कारण है। परम प्रभु महावीर से गौतम का स्नेहराग प्रसिद्ध दृष्टान्त है । " महावीर ने गौतम से कहा था- 'हे गौतम! तुम मेरे प्रति अनुराग का त्याग कर दो । विशाल महासमुद्र को पार कर अब किनारे पर क्यों खड़े हो ? जिस प्रकार शरत्कालीन कुमुद पानी से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार तुम भी अपने स्नेह को विच्छिन्न करो।' गौतम स्वामी को भोगासक्ति नहीं, अपितु प्रभु के प्रति प्रशस्त राग था । अप्रशस्त स्नेहराग- परिवार पालन-पोषण भी व्यक्ति का दायित्व होता है; किन्तु वह आत्महित में साधक नहीं है। कामराग एवं दृष्टिराग में लोभ एवं मान की अधिकता है । इच्छा भी राग का एक रूप है । भोगेच्छा का संस्कार जन्म-जन्मान्तर चलता है । राग जब द्वेष रूप में रूपान्तरित होता है, तो वह भी जन्म-जन्मान्तर चलता है । द्वेष का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है, राग को महत्त्व न मिलने से वह द्वेष रूप परिवर्तित हो जाता है। ऐसे कितने उदाहरण हैं, जिनमें जन्म-जन्मान्तर तक राग-द्वेष के संस्कारों के अनुसार जीवन परम्परा चलती ६९. (अ) प्रशमरति (ब) प्रतिक्रमणसूत्र ७१. उत्तराध्ययन/अ. १०/गा. २८ उत्तराध्ययन/अ. २३ / गा. ४३ ७०. Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन दम्पति रही। स्नेहराग में अरिष्टनेमि एवं राजीमती का उदाहरण प्राप्त होता है। नौ भव तक दोनों में सम्बन्ध बना रहा। कामराग में रूपसेन एवं सुनन्दा का दृष्टान्त है। पाँच भवों तक रूपसेन में सुनन्दा के प्रति काम-भोग की वांछा बनी रही। द्वेष भाव से सम्बन्धित गुणसेन-अग्निशर्मा का उदाहरण समरादित्य चारित्र में प्राप्त होता है। राजा गुणसेन के प्रति पनपा द्वेष भाव अग्निशर्मा में नौ भव तक चलता रहा। कभी पुत्र के रूप में, कभी माता, कभी पत्नी एवं कभी छोटे भाई के रूप में अग्निशर्मा गुणसेन के प्राणों का ग्राहक बना रहा। ___ यह अप्रशस्त राग एवं द्वेष- दोनों पाप स्थानक हैं। राग नितान्त एकान्त खराब नहीं है, किन्तु द्वेष नितान्त पाप रूप है। स्नेहराग का अरिष्टनेमि एवं राजीमती का नौ भव का सम्बन्ध निम्न तालिकानुसार है१. धन कुमार धनवती २. सौधर्म देवलोक में देव देवी दम्पति चित्रगति विद्याधर रत्नवती दम्पति ४. माहेन्द्र देवलोक में देव देव मित्र ५. अपराजित राजा प्रियमती रानी दम्पति ६. आरण देवलोक में देव देव ७. शंख राजा यशोमती रानी दम्पति ८. देव-वैजयन्त विमान देव मित्र ९. अरिष्टनेमि राजीमती वाग्दत्ता तीव्र द्वेष-भाव का उदाहरण अग्निशर्मा का प्राप्त होता है। यह द्वेष सम्बन्ध नौ भवों तक चलता रहा जो निम्नांकित हैं१. गुणसेन राजा को अग्निशर्मा ने तप्त रेत की वर्षाकर प्राणविमुक्त किया २. सिंहकुमार (पिता) की आनन्द (पुत्र) ने कैदी बनाकर हत्या की ३. शिखि (पुत्र) को जालिनी (माता) ने श्रमण जीवन में विष मिश्रित आहार दिया ४. धनकुमार (पति) को धनश्री (पत्नी) ने मुनि रूप में लकड़ियों में जला दिया ५. जयकुमार (ज्येष्ठ भ्राता) की। विजय (लघुभ्राता) ने ऋषि रूप में हत्या की ६. धरण (पति) की लक्ष्मी (पत्नी) ने श्रमण जीवन में हत्या की ७. सेन (चचेरे भाई) की विषेण (चचेरे भाई) ने मुनि रूप में हत्या की ८. गुणचन्द्र राजा को वाण व्यन्तरदेव रूप में मारने का विचार किया ९. समरादित्य (केवली) को गिरिषेण (चण्डाल) ने मारने का भाव किया ७२. श्री कल्पसूत्र/अरिष्टनेमि चरित्र ७३. समरादित्य चारित्र मित्र Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपाय और कर्म १०७ (११-१२) कलह और अभ्याख्यान-क्रोध जब वादविवाद का रूप धारण कर लेता है, तब कलह कहलाता है। कलह में कषायों के आश्रय से लेश्याएँ अशुभ बनती हैं, अध्यवसायों की धारा मलिन बनती है, आर्तध्यान और रौद्रध्यान होता है। जैसे ईंधन डालने से अग्नि भड़कती है, वैसे ही क्रोध में प्रतिक्रिया रूप शब्द बोलते जाने से कलह हो जाता है। कलहप्रिय व्यक्तियों का स्वभाव सामान्य-सामान्य विषयों में झगड़ा करने का होता है। ऐसे व्यक्ति अपने अपराध को स्वीकार न कर दूसरों पर दोषारोपण करते हैं, असत्य और अनर्गल बोलते हैं।" ज्ञानपंचमी तप में कथा है-५ पाठशाला में मार खाकर आए बच्चों को देख सुन्दरी नामक स्त्री इतनी क्रोधित हो गई कि बच्चों का शाला जाना बन्द करा दिया। पति ने कहा- 'अरी सुन्दरी! बच्चे अनपढ़ रह जायेंगे तो समाज में सम्मान कौन देगा? अपनी कन्या इन्हें कौन देगा।' सेठानी ने तुनक कर कहा'मैं किसी हालत में इन्हें पाठशाला भेजने वाली नहीं।' सेठ ने कहा- 'क्यों मूर्खता करती हो? इन बच्चों का भविष्य बिगड़ जायेगा।' सुन्दरी चीख पड़ी- 'मैं मूर्ख किसलिए? तुम हो मूर्ख, तुम्हारा बाप मूर्ख।' पत्नी के शब्द सुन सेठ आपे से बाहर हो गया और पत्थर फेंक कर सिर फोड़ दिया। कलह में वाक्युद्ध का दुष्परिणाम कई रूपों में दिखाई देता है, आत्म-मलिनता बढ़ती है, सम्मान की हानि होती है, वातावरण दूषित होता है एवं पाप बन्ध होता है। अभि उपसर्गपूर्वक आख्यान करना अर्थात् भाषण करना, अभ्याख्यान है। श्री भगवतीसूत्र में 'अभिमुखेन आख्यानं दोषाविष्करणमभ्याख्यानम्'७६ में अभिमुख/सामने होकर दोषों को प्रकट करने वाली कथन- अभ्याख्यान है। स्थानांगसूत्र में इसका अर्थ झूठे दोषों का आरोपण, कलंक लगाना, दोष देना, आक्षेप करना आदि अर्थ में दिया गया है। ईर्ष्या वृत्ति से युक्त जीव परसुख-असहिष्णु होता है अतः वह किसी के उत्कर्ष, प्रतिष्ठा को सहन नहीं कर पाता है। ऐसा व्यक्ति ऐसी बात बनाता है कि दोष न होने पर भी उसका अपयश हो। वह अफवाह आकाश में उड़ते गुब्बारे की तरह दिशाहीन स्थिति में उड़ती जाती है। ___ अभ्याख्यानी क्रोधी, कुटिल, ईर्ष्यालु होता है। अतः तीव्र पाप का बन्ध करता है। ७४. स्थानांग/स्था. १८ की वृत्ति ७६. भगवती सूत्र श. ५/उ. ६ ७५. बारहपर्व सूत्र ज्ञानपंचमी कथा ७७. स्थानांग सूत्र/अ. १/सू. ४८-४९ की वृत्ति Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन (१४-१५) पैशुन्य और परपरिवाद- पिशुन शब्द चुगली अर्थ का द्योतक है। ७८ अभ्याख्यानी झूठा कलंक लगाता है और पिशुनवृत्ति वाला व्यक्ति दूसरों के दोषों, त्रुटियों की चुगली करता है। उसकी छिद्रान्वेषी दृष्टि होती है। बच्चे तो प्राय. परस्पर एक-दूसरे की चुगली करते ही हैं; किन्तु बड़ी आयु वाले भी इस वृत्ति को विशेष अपनाते हैं। बहन, भाई की और भाई, बहन की; देवरानी, जेठानी की और जेठानी, देवरानी की! आपसी संबंधों में चुगली अधिक होती है। पैशुन्य वृत्तिवाला भेदी प्रकृति का होता है, उसका रस दूसरों के रहस्य खोलने में रहता है। गंभीरता का अभाव, मन की संकीर्णता होने पर मैत्रीभाव और वाणी संयम न होने पर यह वृत्ति पुष्ट होती है। पर+परिवाद परपरिवाद। दूसरे के विषय में विपरीत कथन करना। चुगली प्रायः निकटतम संबंधों में होती है; किन्तु निन्दा किसी भी परिचित की हो सकती है। स्थानांग में कहा है- परेषां परिवादः परपरिवादो विकत्थनमित्यर्थः९ –दूसरों का अयथार्थ-मूल्यांकन करना। इसे अवर्णवाद या निन्दा कहा जाता है। झूठा कलंक अभ्याख्यान तीव्र द्वेष की परिणति में लगाया जाता है; किन्तु परपरिवाद आदत से भी हो सकता है। स्व-प्रशंसा एवं परनिन्दा का व्यसन होने पर व्यक्ति कहीं भी बैठेगा - उसकी जिह्वा परपरिवाद कार्य में निरत हो जायेगी। उसका रस पर-निन्दा में विशेष होता है। जैसे सुअर को विष्ठा-भक्षण में रस आता है; वैसे ही निन्दक को पर-दोष कथन में आनन्द आता है। मूलतः इसमें अहंकार कषाय की प्रबलता होती है। यशोविजयजी ने कहा है 'क्रोध अजीरण तप तणुं, ज्ञान तणुं अहंकार हो, पर-निन्दा किरियापणुं, वन अजीर्ण आहार हो।' समयसुन्दरजी ने निन्दक को पीठ का मांस-भक्षक कहा है। कषाय की मलिनता में यह वृत्ति होती है और इस वृत्ति से कषाय अति पुष्ट होता जाता है। (१६) रति-अरति-नोकषाय मोहनीय के भेदों में रति-अरति का समावेश है। रति-अरति जीव की प्रकृति नहीं विकृति है। ७८. प्रतिक्रमण सूत्र अर्थ संयुक्त/अतिचार सूत्र ७९. स्थानांग सूत्र/४८-४९ की वृत्ति ८०. आध्यात्मिक पद/निन्दा सज्झाय ८१. आध्यात्मिक पद/निन्दा सज्झाय Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय और कर्म १०९ ८२ साहित्य में नौ रसों का विवेचन है । २ नौ रसों के नौ स्थायी भाव हैं'रतिहसिश्च - शोकश्च' शृंगार रस का स्थायी भाव रति है । यहाँ रति आनन्द अर्थ में है। रति अर्थात् प्रिय संयोग में आनन्द का वेदन एवं अरति अर्थात् अप्रिय संयोग में अरुचि भाव । अनन्तकाल से जीव ने अनन्त धारणाएँ बना रखी हैं। पुरानी धारणाएँ टूटती हैं, नवीन धारणाएँ बनती हैं; किन्तु अनन्तानुबंधी कषाय के सद्भाव में समस्त धारणाएँ मिथ्या / विपरीत होती हैं । वस्तु की सम्यक् स्वरूप दृष्टि में न होने के कारण समस्त मान्यताएँ / धारणाएँ परिवर्तित होने पर भी मिथ्या होती हैं। पशु के जीवन में घास प्रिय लगता है, मनुष्य के जीवन में पकवान्न प्रिय प्रतीत होते हैं; किन्तु ज्ञानियों की दृष्टि में पदार्थ स्वयं में न इष्ट हैं, न अनिष्ट हैं। सुख अथवा दुःख वस्तु या व्यक्ति से नहीं है; अपितु हमारी कल्पनानुसार है। साध्वी विचक्षणश्री जी समता की ऐसी श्रेणी पर आरूढ़ थीं, जहाँ न रतिभाव उभरता था, न अरतिभाव । " कई बार आहार में कड़वी ककड़ी का शाक आने पर वे अधिकाधिक शाक अपने पात्र में ले लेती। बिना किसी अरति भाव के सहजतया पदार्थ उपभोग कर लेतीं। यदि श्रद्धा-भक्तिवश किसी ने सरस आहार उन्हें परोस दिया, तब भी वे शान्तचित्त से ग्रहण कर लेतीं और कहतीं, 'चलो ! पेटलादपुर में डाल दें।' रतिभाव की एक रेखा भी नहीं दिखाई देती । साधक रति-अरति के परिणामों से ऊँचा उठ जाता है, अज्ञानी / तीव्र कषायी जीव रति -अरति के परिणामों में झूलता हुआ पाप बन्ध करता है। (१७-१८) मायामृषावाद एवं मिथ्यात्व शल्य-अठारह पाप-स्थानकों में माया एवं मृषावाद - दोनों स्वतन्त्र भेद रूप से वर्णित हैं। दोनों की संयुक्त रूप मायामृषावाद. भी एक पाप-स्थानक है। कभी माया कषाय हो; किन्तु वचन प्रयोग न हो, कभी मृपावाद हो; किन्तु सहसत्कार हो । मायामृषावाद में माया एवं मृषावाद दोनों का समन्वय होता है। यह पाप - स्थानक बुद्धिमान मायावी ही सेवन कर सकता है । असत्य को सत्य रूप दे देना, पाप को छिपा लेना, गलत होते हुए अच्छे होने का ढोंग करना माया मृषावादी का कार्य है । साध्वी सर्वांगसुन्दरी पूर्वभव में युवा वय में विधवा हुई । भाइयों का बहन के प्रति अत्यन्त सद्भाव था; किन्तु बहन के मन में विचार उठा- 'भाइयों के प्रेम की परीक्षा करनी चाहिए। वे मुझे अधिक चाहते हैं या अपनी पत्नियों को । ' ८२. साहित्य दर्पण / नवरस विवेचन ८३. जैन कोकिला / जीवन चरित्र ८४. कथा साहित्य Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन एक दिन बड़ा भाई भोजन कक्ष के बाहर खड़ा था। अचानक बहन का स्वर सुनाई दिया, 'भाभी हाथ साफ रखा करो।' भाई विचार में डूब गया, 'क्या मेरी पत्नी की चोरी की आदत है ? बहन असत्य नहीं बोल सकती।' रोती- कलपती पत्नी को पीहर भेजने के लिए उद्यत देखकर बहन ने कहा- 'भाई! मैं तो शिक्षा मात्र दे रही थी।' इसी तरह दूसरे भाई को सुनाते हुए बहन ने कहा, 'भाभी! साड़ी पर दाग नहीं लगना चाहिए।' भाई सोचने लगा, 'क्या मेरी पत्नी व्यभिचारिणी है ? नहीं, ऐसी पत्नी नहीं चाहिए ।' भाई के विचार जानकर बहन ने कहा- 'भैया! मैं तो मात्र हितशिक्षा दे रही थी।' इस मायामृषावाद के परिणामस्वरूप दूसरे भव में सर्वांगसुन्दरी पर चोरी एवं दुराचार का कलंक लगा। मायामृषावाद का सेवन कर जीव पाप बन्ध करता है। मिथ्यात्व - शल्य को समस्त पापों का मूल बताया गया है। मिथ्यात्व भाव का शल्य रूप में आत्मा की गहराइयों में प्रविष्ट होना - मिथ्यात्व शल्य है । सब अनिष्टों की जड़ मिथ्या श्रद्धा है। ( १ ) धर्म में अधर्म संज्ञा, (३) मार्ग में कुमार्ग संज्ञा, (५) जीव में अजीव संज्ञा, (७) साधु में असाधु संज्ञा, (९) मुक्त में अमुक्त संज्ञा, स्थानांगसूत्र में मिथ्यात्व के दस रूपों का उल्लेख किया गया है - ५ (२) अधर्म में धर्म संज्ञा, (४) कुमार्ग में मार्ग संज्ञा, (६) अजीव में जीव संज्ञा, (८) असाधु में साधु संज्ञा, (१०) अमुक्त में मुक्त संज्ञा । ८६ संज्ञा का अर्थ यहाँ मानना, समझना या नाम देना है। इसी सन्दर्भ में सूत्रकृतांग में कहा गया है - " 'लोक - अलोक, जीव-अजीव, धर्म-अधर्म, बन्धमोक्ष, पुण्य-पाप, आस्रव संवर, वेदना - निर्जरा, क्रिया-अक्रिया, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, चतुरन्त संसार, देव-देवी, सिद्धि-असिद्धि, सिद्धि का निजस्थान, साधु-असाधु, कल्याण- पाप नहीं है- ऐसी संज्ञा कभी नहीं करनी चाहिए किन्तु निश्चित रूप से मानना चाहिए कि लोक- अलोक यावत कल्याण- पाप आदि सब विद्यमान हैं। जो उपर्युक्त तत्त्वों के अस्तित्व को स्वीकार करता है, वह सम्यग्दृष्टि है और जो इनका नास्तित्व मानता है, वह मिथ्यादृष्टि है । पुण्य तत्त्व के बन्ध में कारणभूत मन्दकषाय परिणति है। भगवतीसूत्र में अनुकम्पा, सेवा, परोपकार आदि शुभ प्रवृत्तियों को पुण्योपार्जन का कारण ८५. स्थानांगसूत्र /स्था. १० /उ. १ / सू. ७३४ ८६. सूत्रकृतांगसूत्र/श्रु. स्क. २/अ. ५ /गा. १२ से १८ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय और कर्म १११ बताया गया है। स्थानांग-सूत्र में नौ प्रकार का पुण्य का विवेचन है-८ (१) अन्नपुण्य- अन्न देना, (२) पान पुण्य- जल देना, (३) लयन पुण्य - स्थान देना, (४) शयन पुण्य- शय्या देना, (५) वस्त्र पुण्य- वस्त्र देना, (६) मन पुण्य- शुभविचार करना, (७) वचन पुण्य- मधुर एवं हितकारी भाषा बोलना, (८) काय पुण्य- शरीर से सेवा देना, (९) नमस्कार पुण्य- पूज्यवर्ग को आदर देना। यद्यपि कई बार बाह्य में शुभपुण्य प्रवृत्ति दिखाई देती है; किन्तु अन्तरंग में कषाय तीव्रता से अशुभ हेतु होता है, तब पुण्य अल्प एवं पाप बहुल होता है। विशेष महत्त्व भाव-जगत का होता है। शुभ-अशुभ कर्म के बन्ध का मुख्य आधार मनोवृत्तियाँ हैं। एक डॉक्टर किसी की पीड़ा मिटाने के लिए उसका व्रण चीरता है। उससे यदि रोगी स्वस्थ न भी हो, तो भी डॉक्टर अपनी शुभ-भावना से पुण्य का बन्ध करता है। पुण्य-बन्ध की कसौटी केवल ऊपरी क्रिया नहीं है; किन्तु उसकी यथार्थ कसौटी कर्ता का आशय है। निश्चय-दृष्टि से मनोवृत्तियाँ कर्मों की शुभाशुभता की निर्णायक हैं, फिर भी व्यवहार-दृष्टि से बाह्य क्रिया से भी शुभाशुभ का निश्चय होता है। क्रिया तथा भाव दोनों ही बन्ध के कारण माने गए हैं। __ मन्द कषाय, भावों की शुभ्रता, आत्मा का आध्यात्मिक विकास पुण्य-भाव हैं एवं जिनसे इस संसार में भौतिक समृद्धि एवं आध्यात्मिक वातावरण प्राप्त होते हैं, वे पुण्यकर्म हैं। शुभभावों से शुभ कर्म-परमाणु आकर्षित होते हैं और आत्मा के साथ बन्ध अवस्था को प्राप्त होते हैं, ये पुण्यकर्म हैं। आचार्य अभयदेवसूरि का कथन है कि पुण्य वह है जो आत्मा को पवित्र करता है अथवा पवित्रता की ओर ले जाता है। आचार्य हेमचन्द्रसूरि की दृष्टि में पुण्य अशुभ (पाप) कर्मों की अल्पता और शुभकर्मों के उदय से प्राप्त प्रशस्त अवस्था का द्योतक है। ९२ ८७. भगवतीसूत्र/७/१०/१२१ ८८. स्थानांगसूत्र स्थान ९ ८९. जैनधर्म/पृ. १६० ९०. दर्शन और चिन्तन/ख. २/पृ. २९६ ९१. स्थानांग/टीका/१/११-१२ ९२. योगशास्त्रअ. ४/गा. १०७ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन पुण्य दो प्रकार का है-(१) द्रव्य पुण्य, (२) भाव पुण्य। ३ पुण्यकर्म द्रव्यपुण्य है, शुभ भाव मन्द कषाय भाव पुण्य है। पुण्य एवं पाप दो-दो प्रकार के वृत्ति-प्रवृत्ति के आधार से होते हैं, जो निम्नांकित हैं (१) पुण्यानुबन्धी पुण्य- वृत्ति और प्रवृत्ति दोनों के शुभ होने पर पुण्यानुबन्धी पुण्य होता है। जैसे सेवा का भाव एवं सेवा रूप प्रवृत्ति दोनों का समन्वय होना। ऐसे पुण्य का उदय होने पर बाह्य वैभव एवं आत्मिक वैभव दोनों की प्राप्ति होती है। (२) पापानुबन्धी पुण्य- वृत्ति अशुभ एवं प्रवृत्ति शुभ होने पर पापानुबन्धी पुण्य होता है। जैसे भीतर यश-प्रतिष्ठा का लोभ है एवं बाहर सेवा कार्य है। इस पुण्य का उदय होने पर बाह्य समृद्धि प्राप्त होती है; किन्तु उसका सदुपयोग करने की वृत्ति जागृत नहीं होती। (३) पुण्यानुबन्धी पाप- वृत्ति शुभ एवं प्रवृत्ति अशुभ होने पर पुण्यानुबन्धी पाप होता है। आत्मा में उदासीन परिणाम हों एवं क्रिया में हिंसा आदि कुकृत्य से जुड़ना पड़े - ऐसी स्थिति में पुण्यानुबन्धी पाप का बन्ध होता है। इस कर्मोदय से बाह्य प्रतिकूलता, अन्तरंग में सहज-शान्ति दिखाई देती है। (४) पापानुबन्धी पाप- वृत्ति एवं प्रवृत्ति दोनों अशुभ हों। आत्मिक भावों में तीव्र काषायिक परिणति एवं बाह्य क्रिया में काषायिक प्रवृत्ति हो। इस पाप के उदय से बाह्य क्षेत्र में प्रतिकूलताएँ एवं अन्तरंग जगत में कषाय की मलिनता दृष्टिगोचर होती है। ___ अतः वास्तव में शुभ भाव एवं शुभ क्रिया दोनों का समन्वय ही उत्कृष्ट पुण्य है। श्रीपालचरित्र में महाराजा प्रजापाल का प्रश्न है- 'पुण्येन किं किं लभ्यते"५ – पुण्य से क्या-क्या प्राप्त होता है? सुरसुन्दरी एवं मैनासुन्दरी दोनों ने एक ही प्रश्न का उत्तर भिन्न-भिन्न अपेक्षा से दिया है- सुरसुन्दरी की दृष्टि में बाह्य वैभव प्रमुख है, अतः वह उत्तर देती है "प्राज्यं च राज्यं सुभगः सुभर्ता, नीरोगगात्रं च पवित्र ज्यं । गानं च भृत्यं परिवार वर्गः, पुण्येन चैतत् सकलं लभेत्।।" विशाल राज्य, सौभाग्य, श्रेष्ठ वर, स्वस्थ शरीर, पवित्र भोजन, गीत-गान, नौकर-चाकर, परिवार वर्ग सब पुण्य से प्राप्त होते हैं। __ ९५. श्रीपालचारित्र ९३. योगसार बन्धाधिकार ९४. तत्त्व प्रवेशिका पृ. ३५ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय और कर्म - मैनासुन्दरी ने प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा"शीलं च दानं विनयो विवेकः, सद्धर्मगोष्ठिः प्रभुभक्ति पूजा। अखण्ड सौख्यं च प्रसन्नता हि, पुण्येन चैतत्सकलं लभेत्।।" शील पालन, दान, विनय, विवेक, सद्धर्मगोष्ठी, प्रभुभक्ति पूजा, अखण्ड सुख, प्रसन्नता - यह सब पुण्य से प्राप्त होता है। मैनासुन्दरी की दृष्टि में बाह्य वैभव नहीं, सद्गुण वैभव प्रमुख हैं, अतः पुण्य के दो प्रकार हैं-(१) लौकिक पुण्य, (२) लोकोत्तर पुण्य। इसे भौतिक पुण्य एवं आध्यात्मिक पुण्य भी कहा जा सकता है। संवर : कषाय का संवरण अनादिकालीन राग, द्वेष और मोह के माध्यम से आत्मा में आने वाले कर्मों के आस्रवरूपी प्रवाह को आत्मरमणता रूप पुरुषार्थ से संवरन करना संवर है। कषाय का संवर भाव-संवर एवं कर्म का संवर द्रव्य-संवर कहलाता है। १६ तत्त्वसार में कहा है- जो जीव अपने अकषाय स्वभाव को नहीं छोड़ता है और पर-पदार्थरूप परिणत नहीं होता है, अपने आत्म-तत्त्व का मनन, चिन्तन और अनुभवन करता है, वह जीव निश्चय से संवर करता है। सम उपसर्गपूर्वक वृ धातु से संवर शब्द निर्मित होता है। वृ धातु रोकने अथवा निरोध के अर्थ में प्रयुक्त होती है। अतः कहा है-८ 'आस्रव निरोधः संवरः' आस्रव का निरोध संवर है। 'संवृणोति कर्म अनेनेति संवरः' अर्थात् जिसके द्वारा आने वाले नवीन कर्म रूक जाएँ, वह संवर है। आचारांग का कहना है, विषय कषायों का निरोध करने वाला साधक कर्मरहित होकर ज्ञाता-दृष्ट बन जाता है। हिंसादि आस्रव द्वारों से निवृत्त उस साधक के जन्म-मरणादि रूप दुःखमार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं। उस दुःखमार्ग का निरोध करने के लिए सर्वप्रथम कषायों को समझना और देखना आवश्यक है। आचारांग का सूत्र है-१० 'जे कोहदंसी से माणदंसी; - जे माणदंसी से मायदंसी जे मायदंसी से लोभदंसी; जे लोभदंसी से पेज्जदंसी, जे पेज्जदंसी से दोसदंसी जे दोसदंसी से मोहदंसी, जे मोहदंसी से गब्भदंसी; जे गब्भदंसी से जम्मदंसी, जे जम्मदंसी से मारदंसी; जे मारदंसी से णिरयदंसी, जे णिरयदंसी ते तिरियसी; जे तिरियदंसी से दुक्खदंसी।' ९६. योगसार/संवराधिकार/गा. १, २ ९९. आचारांग सूत्र/१/५/६ ९७. तत्त्वसार/गा. ५५ १००. वही/१/३/४/१३० ९८. तत्त्वार्थ/अ. ९/सू. १ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन जो क्रोधदर्शी होता है, वह मानदर्शी होता है; जो मानदर्शी होता है, वह मायादर्शी होता है; जो मायादर्शी होता है, वह लोभदर्शी होता है, जो लोभदर्शी होता है, वह रागदर्शी होता है; जो रागदर्शी होता है, वह द्वेषदर्शी होता है; जो द्वेषदर्शी होता है, वह मोहदर्शी होता है; जो मोहदर्शी होता है, वह गर्भदर्शी होता है; जो गर्भदर्शी होता है, वह जन्मदर्शी होता है; जो जन्मदर्शी होता है, वह मृत्युदर्शी होता है; जो मृत्युदर्शी होता है, वह नरकदर्शी होता है; जो नरकदर्शी होता है, वह तिर्यंचदर्शी होता है; जो तिर्यंचदर्शी होता है, वह दुःखदर्शी होता है। अतः वह मेघावी क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेम, द्वेष, मोह, गर्भ, जन्म, मृत्यु, नरक, तिर्यंच और दुःख को दूर भगा दे। जो कषाय का स्वरूप समझ जाता है, उससे होने वाली हानियाँ समझ जाता है, वह कर्म एवं कर्म से प्राप्त होने वाली समस्त दुःखात्मक परिस्थितियों को समझ जाता है, जो दुःख को दुःख समझ जाता है, वह दुःख निरोध के मार्ग में उद्यत हो जाता है। अतः सर्वप्रथम कषाय-भावों को समझकर उनका वमन करना है। कहा है-०१ स वंता कोहं च माणं च मायं च, लोभं च – सत्यार्थी साधक क्रोध, मान, माया और लोभ का वमन (त्याग) कर देता है। वह एक कषाय को जानकर सब कषाय को जान जाता है। १०२ एक कषाय को झुकाकर अथवा शिथिल बनाकर सबको शिथिल बना देता है। १०३ 'एग विगिंचमाणे पुढो विगिंचइ, पुढो विगिंचमाणे एगं विनिंचई १० एक को पृथक् करने वाला अन्य को भी पृथक् कर देता है, अन्य को पृथक् करने वाला एक को पृथक् कर देता है। एक कषाय को जीतने वाला समस्त कषायों को जीत लेता है तथा समस्त कषायों को जीतने वाला एक को तो पूर्व में जीत ही लेता है। साथ ही कषाय को जीतकर कर्मों को आत्मा से पृथक् कर देता है और दुःख का निरोध कर देता है। उत्तराध्ययनसूत्र में संवर के स्थान पर संयम को ही आस्रव-निरोध का कारण माना गया है। १०५ शुभ अध्यवसाय भी संवर के अर्थ में स्वीकार किए गए हैं, क्योंकि अशुभ की निवृत्ति के लिए शुभ का अंगीकार प्राथमिक स्थिति में आवश्यक है। वृत्ति शून्यता के अभ्यासी के लिए प्रथम शुभवृत्तियों को अंगीकार करना होता है, क्योंकि चित्त के शुभवृत्ति से परिपूर्ण होने पर अशुभ के लिए कोई स्थान नहीं १०१. आचारांगसूत्र/गा. १/उ. ४/सू. १२८ १०४. आचारांगसूत्र/१/३/४/१२९ १०२. वही/१/३/४/१२९ १०५. उत्तराध्ययनसूत्र/अ. २९/गा. २६ १०३. वही। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय और कर्म ११५ रहता। यद्यपि यहाँ शुभ का अर्थ पुण्यास्रव या पुण्यबन्ध के रूप में नहीं है। द्रव्यानुयोग में संवर से तात्पर्य शुद्ध भावभूमिका से ग्रहण किया गया है।०६ जितनी-जितनी आत्मरमणता, उतना-उतना संवर। पर-परिणमता का अभाव संवर है। अपने ज्ञान में ज्ञाता ही ज्ञेय बन जाए -- वह आस्रवनिरोध की अवस्था है। आस्रव और बंध को रोकने के लिए संवर एक अमोघ अस्त्र है। इस संवररूपी कवच को पहनकर कषायरूपी शत्रुओं को जीता जा सकता है। उपदेश रहस्य में कहा गया है-१०७ जिससे व्यक्ति राग-द्वेष से मुक्ति पा सके, वही जिनाज्ञा अनुसार आचरण है। जैन दर्शन में संवर के दो भेद हैं- (१) द्रव्य संवर और (२) भाव संवर। द्रव्यसंग्रह में कहा गया है- आत्मा की अकषाय अवस्था भाव संवर है एवं उससे रुकनेवाला कर्मास्रव द्रव्य संवर है। सामान्य रूप से संवर के पाँच अंग बताये गये हैं-१८ (१) सम्यक् दृष्टिकोण, (२) विरति, (३) अप्रमत्तता, (४) अकषायवृत्ति, क्रोधादि मनोवेगों का अभाव और (५) अक्रिया। स्थानांगसूत्र में पंच इन्द्रिय एवं त्रियोग संयम की अपेक्षा आठ प्रकार का संवर बताया गया है। १०९ तत्त्वार्थसूत्र में संवर के सत्तावन भेद माने गये हैं, जो निम्नाङ्कित हैं-११० (१) तीन गुप्ति, (२) पाँच समिति, (३) दस-धर्म, (४) बारह अनुप्रेक्षा, (५) बाईस परीषहजय ; और (६) पाँच चारित्र। गुप्ति- 'संसार कारणात् आत्मनः गोपनं गुप्तिः' संसार के कारणों से आत्मा की जो सुरक्षा करती है- वह गुप्ति है। 'गुप् गोपने संरक्षणे वा गुप् धातु संरक्षण अर्थ में भी प्रयुक्त होती है। मन-वचन-काया की स्थिरता मनोगुप्ति, वचनगुप्ति एवं कायगुप्ति कहलाती है। ११ जब आत्मतत्त्व में कषाय, राग-द्वेषादि भावों की चंचलता शान्त हो जाती है, तो त्रियोग स्थिरता सहज सध जाती है। १०६. तत्त्वसार/गा. ५५ १०७. उपदेश रहस्य/गा. २०१ १०८. समवायांगसूत्र/५/५ १०९. स्थानांगसूत्र/८/३/५९८ ११०. तत्त्वार्थसूत्र/अ. ९/सू. २ १११. (अ) वही/ अ. ९/सू. ४ (ब) आचारांगसूत्र/२/१/७/३९-४० (स) उत्तराध्ययन/अ. २४/गा. २०-२४ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन समिति- विवेकपूर्वक प्रवृत्ति का नाम समिति है। १२ जब कषायावेग होता है, तब विवेक खो जाता है। साधक का प्रत्येक आचरण संयत, विवेकपूर्ण होता है। आत्मचेतना की जागृति के साथ जो पंच इन्द्रियों के विषय कषायोदय में संलग्न नहीं होते, वे ही संवर का साधक हैं। दशवैकालिकसूत्र में शिष्य ने गुरु से प्रश्न किया है-११३ । कहं चरे, कहं चिठू, कह भासे कहं सये। कहं भुंजतो भासंतो, पावं कम्मं न बंधइ।।' गुरुदेव! मैं कैसे चलूँ, कैसे सोचूँ, कैसे बै→, कैसे सोऊँ, कैसे खाऊँ, कैसे बोलूँ ; जिससे पापकर्मों का बन्ध न हो। प्रत्युत्तर में गाथा दी गई है-११४ ___ 'जयं चरे, जयं चिढ़े, जय भासे, जयं सये। जयं भुंजतो, भासंतो, पावं कम्मं न बंधइ।।' विवेक से चलो, विवेक से सोचो, विवेक से बैठो, विवेक से सोओ, विवेक से खाओ, विवेक से बोलो ; जिससे पाप कर्मों का बन्ध न हो। विवेकपूर्वक आचरण समिति है। राग-द्वेष की मन्दता के अभाव में प्रत्येक क्रिया में विवेक दिखाई नहीं देता। समिति के पाँच प्रकार हैं-११५ शान्तचित्त से चलना, गमनागमन में विवेक रखना, भूत-भविष्य की स्मृति- कल्पनाओं में न डूबकर वर्तमान क्षण में उपयोग रखना, ईर्या-समिति है। क्रोधादि वश असत्य, अनर्गल न बोलकर भाषा-विवेक रखना भाषा-समिति है। स्वादलोलुपता, रसपोषण को महत्त्व न देकर आहार-पानी में निर्दोष पदार्थ स्वीकार करना एषणा-समिति है। वस्तु उठाने, रखने में जीव-मैत्री का भाव रखकर विवेकमय प्रवृत्ति करना आदान-भडं-मत्त निक्षेपण-समिति है। मल-मूत्र-श्लेष्मादि निस्सार तत्त्व फेंकते समय जीव हिंसा न हो ऐसा ध्यान रखकर क्रिया करना मलमूत्रांदिप्रतिस्थापना (उच्चारपासवण खेल जलसंघाण पारिणावणिया) समिति है। इन समितियों का सम्यक् परिपालन कषाय मन्दता में ही संभव है। धर्म- 'वत्थुसहावो धम्मो वस्तु का स्वभाव धर्म कहलाता है। धर्म की उपलब्धि में कारणभूत साधनों के भी उपचार से धर्म कहा जाता है। धर्म के ११२. आचारांगसूत्र/१/५/४ ११३. दशवैकालिकसूत्र अ. ४/गा. ७ ११४. वही/अ. ४/गा. ८ ११५. (अ) तत्त्वार्थसूत्र/अ. ९/सू. ५ (ब) उत्तराध्ययनसूत्र/अ. २४/गा. १ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय और कर्म ११७ चार भेद-११६ दान, शील, तप, भावना एवं दस लक्षण- ११७ अमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य एवं ब्रह्मचर्य बताये गये हैं। परिग्रह, मैथुन, आहार एवं भय संज्ञा १८ के टूटने से दान, शील, तप भावना गुण प्रकट होते हैं। क्रोध के अभाव से क्षमा गुण, मान के अभाव से मार्दव गुण, माया के अभाव से आर्जव गुण एवं लोभ के अभाव से शौच गुण प्रकट होता है। १९ अज्ञानान्धकार नष्ट होने पर सत्य एवं विषय सेवन की अभिलाषा समाप्त होने पर संयम गुण आविर्भूत होता है। समस्त रागादि परभावों की इच्छा के त्यागरूप स्व-स्वरूप में प्रतपन करने से तप धर्म एवं सम्पूर्ण पर-द्रव्यों से मोह छोड़कर संसार, देह और भोगों से उदासीन रूप परिणाम होना त्यागधर्म है। १२१ आभ्यन्तर बाह्य परिग्रह का त्यागकर आकिञ्चन्य एवं पर-द्रव्यों से रहित शुद्ध-बुद्ध अपने आत्मस्वरूप में लीन होने से ब्रह्मचर्य होता है। १२२ । मूल में रागादि भावों का त्याग, कषाय-वृत्तियों का परित्याग ही आत्मधर्म का शुद्ध रूप है। ____ अनुप्रेक्षा- रागादि भावों को शिथिल करने हेतु वस्तु स्वरूप का चिन्तन करना, अनुप्रेक्षा है। मैत्री, प्रमोद, कारुण्य एवं माध्यस्थ – ये चार अनुप्रेक्षाएँ मोह की प्रगाढ़ता समाप्त कर मैत्री भाव के विस्तार हेतु बताई गई हैं। तत्त्वार्थसूत्र आदि में अनुप्रेक्षा के बारह प्रकार बताए गए हैं। जो निम्नलिखित हैं-१२३ (१) अनित्य- राग-द्वेष के पात्र रूप संयोगों की अनित्यता का चिन्तन। इसी चिन्तन से भरत महाराजा ने केवलज्ञान प्राप्त किया था। (२) अशरण- जन्म, जरा, मरणादि से रक्षण हेतु सांसारिक संयोगों की असमर्थता का चिन्तन। शिरोवेदना से पीड़ित युवक ने जब स्वजन, परिजन, चिकित्सक आदि सभी को हताश-निराश देखा तो स्वयं को जगत में अनाथ मानकर जगतपिता परमेश्वर को नाश-रूप स्वीकार कर तपोमार्ग अंगीकार ११६. तत्त्वज्ञान प्रवेशिका/ पृ. २४ १२०. प्रवचनसार/गा. ७९ ११७. (अ) आचारांगसूत्र/२/१६ १२१. द्वादशानुप्रेक्षा/गा. ७८ (ब) तत्त्वार्थसूत्र/९/६ १२२. अनगार धर्मामृत/४/६० ११८. उत्तराध्ययन/३१/६ १२३. (अ) तत्त्वार्थसूत्र/अ. ९/सू. ७ ११९. धर्म के दस लक्षण/पृ. २३-५८ (ब) आत्म-वैभव/अ. ५-१६ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन किया था। वह युवक अनाथी मुनि नाम से प्रसिद्ध हुआ एवं राजा श्रेणिक का धर्म प्रतिबोधक बना। १२४ (३) संसार- चतुर्गति स्वरूप का चिन्तन। तिर्यंचगति में क्षुधा, तृण्णा, ताड़ना, तर्जना आदि की पीड़ा एवं नरक गति में क्षेत्रजन्य, परमाधामीदेवों द्वारा प्रदत्त तथा परस्परकृत वेदनाएँ करनी पड़ती हैं। १२५ मनुष्यगति में जन्म, जरा, मृत्यु की वेदना से गुजरना पड़ता है और देवगति में सामग्री की अल्पता अधिकता के कारण ईर्ष्या, दुःख, द्वेष की आग में जीव झुलसता है। एक भी गति में पूर्णतया सुख नहीं है, अत: संसार से मुक्त होने का प्रयास हो - इस भावना से चिन्तन। (४) एकत्व- शुद्धात्मा स्वरूप की एकलता का चिन्तन। दाह-ज्वर से पीड़ित नमि राजा'२७ ने रानियों को आज्ञा दी, 'यह चन्दन घिसना बंद करो। यह शोर मुझे नहीं सुहाता।' वातावरण शान्त होने पर पुनः प्रश्न किया, क्या चंदन घिसना बंद हो गया।' प्रत्युत्तर मिला, 'नहीं स्वामिन्! एक सुहाग कंकण छोड़कर अन्य चूड़ियाँ उतार दी गई हैं। अतः आवाज नहीं आ रही।' नमि राजा चिन्तन में डूब गए, एक में शान्ति है, आनन्द है। दो में द्वन्द्व है, दुःख है। मूल स्वरूप में जीव अनन्त सुख का वेदन करता है, कर्मसंयोग में दुःख पीड़ित होता है। एकत्व भावना का चिन्तन कर नमि राजा वैराग्यवासित हए। (५) अन्यत्व- आत्मा से कषाय की भिन्नता का चिन्तन । कषाय मेरा स्वभाव नहीं है। शरीर से मेरा एकत्व संबंध नहीं है। कर्मसहित होना मेरा मूलस्वरूप नहीं है। कषाय, कर्म, शरीर, परिवार को अन्य मानकर आत्मस्वरूप का चिन्तन। (६) अशुचि- राग के निमित्तभूत शरीर की अपवित्रता का चिन्तन। १२८ अशुचि पदार्थों का उद्भव स्थान यह देह स्वयं में अशुचिरूप है। इसकी अपवित्रता किसी भी उपाय के द्वारा नहीं हो सकती। शरीर का आदिकारण शुक्र और शोणित है, शरीर-पोषण का कारण आहार है। आहार शरीर में जाते ही विकृत रूप हो जाता है, वह खल-भाग और रस-भाग में परिवर्तित होता है। खल-भाग के द्वारा मूत्र और विष्ठना आदि; रस-भाग के द्वारा रक्त, माँस, मेदा, अस्थि हड्डी, मज्जा आदि समस्त अशुचि पदार्थों का आधार शरीर है। इस देह १२४. उत्तराध्ययनसूत्र/अ. २०/गा. २ १२७. उत्तराध्ययन सूत्र/ अ. ९ १२५. तत्त्वार्थसूत्र/अ. ३/सू. ४ १२८. सभाष्यतत्त्वार्थाधिगम/अ. ९/सू. ७ १२६. उत्तराध्ययन सूत्र/अ. १४/गा. ४ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय और कर्म ११९ को कितना भी कपूर आदि सुगन्धित पदार्थों से युक्त जल से स्नान कराया जाए; चंदन, कस्तूरी, केशर आदि उत्तमोत्तम पदार्थों का लेप किया जाए; पुष्पमाला आदि पहनाई जाए - सभी द्रव्य दुर्गन्ध रूप में रूपान्तरित हो जाते हैं। ऐसे अशुचिमय शरीर के प्रति क्या राग करना? यही उद्बोधन मल्लिकुमारी ने छह राजाओं को दिया था। १२९ (७) आस्रव- आत्मरूपी सरोवर में पाँच आस्रव नालों से निरन्तर अष्ट कर्मरूपी जल भर रहा है। प्रशस्त व अप्रशस्त कार्यों से पुण्य व पाप करता हुआ, जीव स्वप्रदेशों में कर्म-परमाणुओं को आमन्त्रित करता है। इसके भूलभूत कारण हैं- मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, प्रमाद और योग। १३. इन कर्मास्रवों का चिन्तन करना। (८) संवर- आत्म-भवन में ज्ञान-दर्शन सुख रूप.अक्षय निधि को लूटने वाले कषाय-लुटेरों का पथ अवरुद्ध कर देने वाले भावों का चिन्तन संवर अनुप्रेक्षा है। चिलाती पुत्र एक हाथ में तलवार, एक हाथ में सुषमा का कटा हुआ सिर लिये जंगल में दौड़ते हुए एक मुनि के पास पहुँचा। भय से धड़कते हृदय से पूछा- 'मुनि! मुक्ति का मार्ग क्या है?' मुनि ने कहा- 'उपशम, विवेक, संवर।' १३१ चिलाती पुत्र तलवार एवं सिर फेंक कर ध्यानस्थ खड़ा हो गया एवं संवर भावना के चिन्तन में लीन हो गया। अधर्म से धर्म की ओर उस आत्मा का प्रयाण हो गया। (९) निर्जरा- जिन भावों, जिन प्रक्रियाओं से आत्मा में संचित कर्म एवं कषाय क्षय होते हैं, उनका चिन्तन निर्जरा अनुप्रेक्षा है। (१०) लोक- कषायात्मा के क्षेत्र का चिन्तन। सकषायी जीवों का आवागमन का स्थान कहाँ तक है तथा अकषायी जीवों का स्थान कौन-सा है? आदि विचारणा करना। (११) बोधिदुर्लभ- सम्यक्त्व में बाधक अनन्तानुबन्धी कषाय के स्वरूप का चिन्तन। (१२) धर्मस्वाख्यात- कषायरहित धर्म स्वरूप का चिन्तन करना। परीषहजय- साधना-मार्ग में आने बाली अनुकूल एवं प्रतिकूल परिस्थितियों में राग-द्वेष न करना परीषहजय है। १३२ परीषह के बाईस प्रकार १२९. श्री कल्पसूत्र/महावीर चरित्र १३०. तत्त्वार्थसूत्र/अ. ८ सू. १ । १३१. योगशास्त्र अ. १ १३२. उत्तराध्ययन सूत्र/अ. २ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन हैं-१३३ (१) क्षुधा/भूख (२) पिपासा प्यास (३) शीत/ठंड (४) उष्ण/गर्मी (५) दंशमशक/मच्छर आदि का उपद्रव (६) नग्नता/वस्त्रहीनता (७) अरति अरुचि (८) स्त्री/विजातीय आकर्षण (९) चर्या विहार (१०) निषद्या/दृठ आसन (११) शय्या सोने का स्थान (१२) आक्रोश/अप्रिय वचन (१३) वध/मारपीट (१४) याचना/भिक्षावृत्ति (१५) अलाभ/अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति न होना (१६) रोग/वेदना (१७) तृणस्पर्श तृण की तीक्ष्णता का अनुभव (१८) मल/शारीरिक मैल (१९) अज्ञान (२०) अदर्शन (२१) सत्कारपुरस्कार (२२) प्रज्ञा/बुद्धि वैभव। स्थूल संज्वलन कषाय के उदय में इन बाइस परीषहों की संभावना होती है। सूक्ष्म लोभकषाय से युक्त दसवें गुणस्थान में चौदह परीषह ही संभव होते हैं- मोहोदय का अभाव होने से अरति, सत्कार, पुरस्कार, आक्रोश, निषद्या, नग्नत्व, याचना, स्त्री, अदर्शन ये आठ परीषह नहीं होते हैं। १३४ चारित्र- आत्मिक शुद्ध दशा में स्थिर रहने का प्रयत्न करना, चारित्र है। समत्व भाव आरूढ़ होकर साधक कषाय-जय की साधना करता है। चारित्र पाँच हैं-१३५ (१) सामायिक (२) छेदोपस्थापनीय (३) परिहारविशुद्धि (४) सूक्ष्म-सम्पराय (५) यथाख्यात्। प्रथम तीन चारित्र में अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी एवं प्रत्याख्यानावरण कषाय का अभाव एवं संज्वलन कषाय का सद्भाव होता है। सूक्ष्म-सम्पराय चारित्र में सूक्ष्म लोभ कषाय का उदय एवं यथाख्यात् चारित्र अकषाय अवस्था है। निर्जरा : कषाय का निर्गमन निर्जरा अर्थात् जर्जरित कर देना, झाड़ देना। आत्मा में कर्म एवं कषाय आसक्तियों को तोड़ देना कहा है। जिस प्रकार किसी सरोवर के जल स्रोतों को बन्द कर दिया जाए और उसके अन्दर रहे हुए जल को उलीचा जाए तथा ताप से सुखाया जाए तो वह विस्तीर्ण तालाब भी सूख जाता है; उसी प्रकार आत्मारूपी सरोवर में कर्म एवं कषायरूपी पानी के आगमन द्वारों को बन्द कर देना - संवर और तप द्वारा कर्म एवं कषाय क्षय करना, आसक्तियाँ जर्जरित कर देना निर्जरा है। १३६ १३३. वही। १३४. तत्त्वार्थसूत्र/अ. ९/सू. १०-१२ १३५. वही/अ. ९/सू. १८ १३६. (अ) उत्तराध्ययनसूत्र/अ. ३०/गा. ५-६ (ब) आचारांग/१/४/४ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय और कर्म १२१ निर्जरा के दो प्रकार हैं-१३७ (१) अकाम एवं (२) सकाम। समय-समय पर कर्म उदय में आकर फल देकर खिर जाते हैं, वह अकाम-निर्जरा है। ऐसी निर्जरा संसारी प्राणियों को प्रत्येक समय हो रही है; पर राग द्वेष कषाय-भावधारा के प्रवाह के कारण आस्रव भी होता रहता है। वस्तुतः सम्यक् सकाम निर्जरा वह है, जहाँ कषाय-भाव-धारा का विवेकपूर्वक संवरण हो जाता है तथा भीतर में बन्धी कषाय-ग्रन्थियों के टूटने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। तत्त्वार्थसूत्र में निर्जरा का कारण तप बताया गया है। १३८ आचारांगसूत्र में कहा गया है,-१३९ तप एक प्रकार की अग्नि है, जिसके द्वारा संचित कर्मों को शीघ्र ही भस्मीभूत किया जा सकता है। जैसे अग्नि जीर्ण काष्ठ को शीघ्र जला डालती है, वैसे ही आत्मसमाधिस्थ और अनासक्त आत्मा कर्म शरीर को शीघ्र जला डालती है। 'तवेण परिसुज्झई'तप आत्मा के परिशोधन की प्रक्रिया है। विवेकपूर्वक किया गया तप मुक्ति प्रयाण में प्रगतिशील बनाता है। 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' कहकर साधना में बाधक बन जाए- इस प्रकार साधक शरीर को सुविधाशील नहीं बनाता तथा 'देह हमारा दुश्मन है, इसके कारण संसार-परिभ्रमण करना पड़ता है ऐसा मानकर चित्त में रही वासना, कषाय आदि वृत्तियों का उन्मूलन किए बिना मात्र काया को उत्पीड़ित नहीं करता।" तप का मूल उद्देश्य मन में रही काषायिक वृत्तियों का उन्मूलन होता है। ज्ञानी कहते हैं- जहाँ क्रोध, लोभ आदि काषायिक भावों को समाप्त करने का लक्ष्य नहीं, ऐसा उपवास तप नहीं; अपितु लंघन है। १४२ साधक के लिए सच्चा कुरुक्षेत्र उसका स्वयं का मन है। उसमें रही दुर्वृत्तियों और कुवासनाओं रूपी कौरवों को समाप्त किए बिना मुक्ति रूपी हस्तिनापुर नहीं पाया जा सकता। ___ वास्तव में आत्मज्ञान अर्थात् काया में एकत्व बुद्धि एवं चित्त की तरंगों से ऊपर उठकर स्वभाव में स्थित होना, सम्यक् तप है। यही कर्म-निर्जरा का सबल साधन है। इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए ही 'तप्यते अनेन इति तपः' अर्थात् जिसके द्वारा तपाया जाए, वह तप है, कहा गया है। सम्यग्ज्ञानरूपी चक्षु के धारक मुनि के द्वारा कर्म-कषायरूपी मैल को दूर करने के लिए जो तपा जाता है, उसे तप कहते हैं। १३७. समयसार/पृ. ३८९ १३८. तत्त्वार्थसूत्र/अ. ९/सू. ३ १३९. आचारांगसूत्र/१/४/३ १४०. उत्तराध्ययनसूत्र/अ. २८/गा. ३५ १४१. ज्ञानसार तपोष्टक श्लोक ७ १४२. अध्यात्मसार आत्मनिश्चयाधिकार/श्लोक १५७ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय: एक तुलनात्मक अध्ययन आत्म-दृष्टि उपलब्ध होने पर साधक स्वयं को समस्त संयोगों से हटाकर त्याग मार्ग पर अग्रसर होता है एवं आत्मा को तप से भावित करता है। प्रतिकूलता में कषायोदय न हो, समताभाव अखण्डित रहे, अकषाय भाव से स्थिरता रहे - यही साधक का प्रयास होता है। शरीर आदि से सम्बन्धित आसक्तियों को तोड़ना तप का उद्देश्य होता है। आचारांग आदि ग्रन्थों में तप के बारह प्रकार बताये गये हैं । १४३ परवर्ती ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र आदि में बाह्य एवं आभ्यन्तर रूप में तप दो प्रकार के बताये गये हैं । १४४ दोनों के छः-छः भेद हैं- ( १ ) अनशन ( २ ) अवमौदर्य या ऊनोदरी (३) वृत्तिपरिसंख्यान या भिक्षाचरी (४) रस परित्याग ( ५ ) कायक्लेश (६) संलीनता या विविक्तशय्यासन । आभ्यन्तर तप के छः भेद हैं- ( १ ) प्रायश्चित (२) विनय ( ३ ) वैयावृत्य ( ४ ) स्वाध्याय ( ५ ) ध्यान ( ६ ) कायोत्सर्ग। जिस तप में बाह्य / शारीरिक प्रतिकूलता का आधार लेकर कषाय संज्ञा को शिथिल किया जाता है, वह बाह्य तप है। वस्तुतः इच्छा का निरोध तप है। राग-भाव के बंधनों को तोड़ने के लिए, पदार्थों में इष्टानिष्ट कल्पना को समाप्त करने के लिए बाह्य तप का आलम्बन लिया जाता है। १२२ (१) अनशन / अणाहार : कषाय का परिहार 'न अशनं इति' अनशन अर्थात् समस्त आहारों का त्याग। वह अल्पकालिक तथा यावत्कथिक रूप से दो प्रकार का है। १४५ भोजन शरीर की आवश्यकता है; किन्तु यदि कुछ समय शरीर को आहार न दिया जाए तो विशेष हानि नहीं होती है। भोजन की जितनी आवश्यकता शरीर को होती है, उससे अधिक आवश्यकता का अनुभव होना राग-भाव के कारण होता है। समय पर आहार न देने से देह - राग की चंचलता मन की परतों पर उभरने लगती हैं और उसी चंचलता को साधक शान्त करके कषाय को शिथिल करता है। अनशन का प्रचलित नाम उपवास है। उपवास अर्थात् आत्मा के समीप वास करना । आत्म-निकटता में राग-भाव का विशेष उदय न होने पर भोजन ग्रहण की लालसा जाग्रत नहीं होती । शरीर की शिथिलता का अहसास होने पर साधक आहार ग्रहण करता है। भगवान् महावीर ने नन्दन ऋषि के जीवन में १४३. आचारांग /१/५/४ १४४. (अ) तत्त्वार्थ/९/१९-२० ( ब ) उत्तराध्ययनसूत्र / अ. ३० /गा. ७ १४५. आचारांग १/५/४, १/८/५-६ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय और कर्म १२३ १४६ ११ लाख वर्ष तक मासक्षमण के पारणे के पश्चात् पुनः मासक्षमण का तप किया था । कुल ११, ८०, ६४५ मासक्षमण हुए थे । महावीर के भव में साढ़े बारह वर्ष पन्द्रह दिन की साधना अवधि में मात्र तीन सौ उनपचास पारणे किए। गृहस्थ वर्ग की दीर्घकालीन तपस्या के उल्लेख प्राप्त नहीं होते; किन्तु पौषधोपवास की परम्परा श्रावकों में प्रचलित थी । 19 १४७ १४८ (२) अवमौदर्य : कषाय की न्यूनता ऊनोदरी अर्थात् उदर / भूख से न्यून ग्रहण करना। जब चित्त आहार में रस ले रहा हो, तब उसे वहाँ से खींच लेना, पदार्थ को हटा देना ऊनोदरी है। भोग में आकण्ठ मग्न मन को भोगविरत करना सहज नहीं है। तीव्र आसक्ति में पदार्थ-वियोग होने पर दुःख, शोक अथवा क्रोधावेग उभर आता है। अभिलषित वस्तु प्राप्ति में अज्ञानी अपनी थाली को चाटता है एवं दूसरों की थाली में झांकता है। अपनी थाली को चाटना एवं दूसरे की थाली में झांकना अर्थात् अतृप्ति, भोग- लालसा, इष्ट संयोग की आकांक्षा । साधक प्राप्त कामभोगों में तल्लीन न होकर अनासक्त भाव से साधना करता है। अवमौदर्य तीन प्रकार का बताया गया है - १४९ (१) भक्तपान, (२) उपकरण; एवं ( ३ ) कषाय । अल्प आहार लेना, अल्प उपकरण रखना, अल्प कषाय करना– अवमौदर्य तप है । 'कसाए पयणुएकिच्च अप्पाहारो तितिक्खए १५ अथवा 'आहारं संवट्टेज्जा, आणुपुव्वेणं आहारं संवट्टेत्ता कसाय १५१ सूत्र के द्वारा आचारांगसूत्र में भाव - अवमौदर्य एवं आहार अवमौदर्य को स्पष्ट किया गया है । यदि कोई व्यक्ति अपने क्रोधादि कषायों को अल्प / न्यून करने में प्रयत्नशील है; तो वह निश्चित ही अवमौदर्य तपस्वी है। सामान्यतया कषाय अल्प नहीं होता अपितु भाव-परिवर्तन, पात्र - परिवर्तन हो जाता है। राग का परिवर्तन द्वेष में, द्वेष का परिवर्तन राग में होता है। कभी क्रोध, कभी लोभ, कभी मान और कभी माया का उदय चलता रहता है। अनन्त आसक्तियों में जब एक आसक्ति जागृत होती है; तब अन्य आसक्तियाँ तत्समय लुप्तप्रायः रहती हैं। एक विद्यार्थी को जब अधिकतम अंक-प्राप्ति की लालसा होती है; तब अन्य कार्यक्रमों के प्रति उदासीनता आ जाती है। अवमौदर्य तप में कषाय का पात्र नहीं बदलता; अपितु कषाय की अल्पता होती है। १४६. कल्पसूत्र/महावीर चरित्र १४७. योगशास्त्र / श्रावक के बारह व्रत १४८. आचारांग /१/५/४ १४९. तत्त्वार्थाधिगमः भाष्य / अ. ८ / सू. १४ १५०. आचारांगसूत्र / १/८/८ १५१ . वही / १/८/६-७ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन (३) भिक्षाचरी या वृत्तिपरिसंख्यान : लोभ की मन्दता भिक्षा प्राप्ति के लिए मन में विविध प्रकार के अभिग्रहों (संकल्पों) को धारण करना वृत्ति परिसंख्यान तप है। १५२ आचारांग में भिक्षाचरी तप के प्रसंग में प्रतिज्ञापूर्वक सात पिण्डैषणा और सात पानेषणाओं की चर्चा की गई है। १५३ इसी अभिग्रहपूर्वक वस्त्र, पात्र, शय्या के सन्दर्भ में भी वृत्ति परिसंख्यान तप का विवेचन उपलब्ध होता है। वत्ति-परिसंख्यान का अर्थ द्रव्य-संक्षिप्तता से भी किया गया है। भोज्यद्रव्यों की संख्या का निर्धारण करना। १५४ इस तप में लोभ कषाय को मन्द करने की प्रक्रिया की जाती है। लोभ कषाय इष्ट-पदार्थों को अधिकाधिक संख्या में ग्रहण की प्रेरणा देता है। आहार ग्रहण करते समय मन कभी मिठाई में, कभी नमकीन में, कभी पूड़ी में, कभी चावल में, कभी अचार में और कभी चटनी में घूमता है। मन की इस चंचलता को समाप्त करने हेतु वृत्ति-परिसंख्यान तप है। (४) रस-परित्याग : रस-लोलुपता का त्याग दूध, दही, घी आदि रसों को प्रणीत पान भोजन कहते हैं। १५५ आचारांग के अनुसार- प्रणीत रसयुक्त आहार-पानी का त्याग करना रसपरित्याग है। १५६ काम-विकारों के शमन, रागभाव के दमन, ब्रह्मचर्य व्रत के परिपालन हेतु से यह तप किया जाता है। मादक, गरिष्ठ पदार्थों के सेवन से उन्माद, अभिमान आदि विकार पुष्ट होते हैं। षट्रसों के त्याग से रसलोलुपता के संस्कार शिथिल होते हैं। (५) कायक्लेश : अनासक्ति की परीक्षा शीत, ताप, वर्षा आदि कष्टों को विशेष रूप से सहने का अभ्यास करना एवं अनेकानेक आसनों द्वारा शरीर को स्थिर करना कायक्लेश तप है। १५" ऊर्ध्वस्थान वृक्षासन आदि अनेक आसनों का आगमों में उल्लेख प्राप्त होता है। १५८ वस्तुतः आसक्ति-अनासक्ति की परीक्षा, कायक्लेश तप है। अपने भावों की सम्यक् पहचान प्रतिकूलता में होती है। प्रतिकूलता में सामान्य व्यक्ति बौखला जाता है, क्रोधित हो जाता है, तनाव और बैचेनी का अनुभव करता है। सामान्य-सामान्य विपरीत परिस्थिति में चित्त सन्तुलन डगमगा जाता है। समय १५२. उत्तराध्ययनसूत्र/३०/२५ १५६. आचारांगसूत्र/२/१५ १५३. आचारांगसूत्र/२/१/११/६२ १५७. उत्तराध्ययनसूत्र/३०/२७ १५४. उत्तराध्ययनसूत्र/३०/२५ की टीका १५८. आचारांगसूत्रा/१/५/५/शा लोक १५५. उत्तराध्ययनसूत्र/३०/२६ टीका/पत्रांक १९८ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय और कर्म १२५. पर भोजन नहीं मिला, रात्रि को मच्छरों का उपद्रव हुआ, गर्मी का विशेष अनुभव हुआ, शय्या स्वच्छ नहीं मिली, स्नान-सुविधा नहीं मिली आदि अनेकानेक विपरीतताओं में कषायोदय हो जाता है। कायक्लेश तपयुक्त साधक प्राकृतिक आपदाओं में, शारीरिक कष्टों में, चित्त के प्रतिकूल प्रसंगों में मन को कषायमुक्त रखता है तथा समता में स्थिर रहता है। (६) प्रतिसंलीनता या विविक्तशय्यासनः कषायोदय निरोध कषाय, इन्द्रिय और योग संलीनता के भेद से इसे प्रतिसंलीनता तप कहा गया है। १५९ स्त्री, पुरुष, नपुंसक आदि से रहित श्मशान, गिरि-गुफा आदि एकान्त स्थानों में निवास करना विविक्तशय्यासन तप है। १६० इन्द्रियों को विषयों में जाने से रोकना, मन-वचन-काया की प्रवृत्ति को संकुचित करना एवं क्रोध, मान, माया और लोभ कषाय को उदित न होने देना- प्रतिसंलीनता तप है। कषाय का निमित्त मिलने पर जागरूकतापूर्वक भावों पर नियन्त्रण रखना। विचारों को विचारों से बदल देना, अकषाय स्वभाव का चिन्तन कर कषाय को उभरने न देना, प्रतिसंलीनता है। आभ्यन्तर तप (१) प्रायश्चित : कषाय का विसर्जन प्रमादजनित दोषों और अपराधों का शोधन कर स्वयं के अपराध का दण्ड लेना प्रायश्चित है। १६१ अतः कहा है जो पाप का छेदन करता है, जिससे पापों की विशुद्धि होती है, वह प्रायश्चित तप है। १६२ विभाव दशा में भाव-रमणता के अपराध का अहसास कर स्वभाव-दशा में लौटना, इसे प्रतिक्रमण भी कहा गया है। १६३ अनादिकालीन-कषाय संस्कारों का उदय, कषाय-नोकषाय मोहनीय-कर्म का उदय कुछ क्षणों के लिए साधक को प्रमत्तावस्था के आधीन बना देता है; किन्तु जैसे सूर्य बादलों को चीर कर पुन: गगन-मण्डल में चमकने लगता है; उसी प्रकार साधक कषाय-बादलों को हटाकर पुनश्च आत्म-गगन में विहरण करने लगता है। जीव की स्थिति के अनुसार दोष अनेक प्रकार के हैं- मिथ्यात्व जनित दोष, अनन्तानुबन्धी कषायजनित दोष, अप्रत्याख्यानावरण कषायजनित दोष, प्रत्याख्यानावरण कषायजनित दोष और संज्वलनकषायजनित दोष। विवेक जाग्रत होने पर अतिक्रमण से पुनः प्रतिक्रमण करना, अशुभ योग से शुभ एवं शुद्ध योग की ओर लौटना प्रायश्चित तप है। १५९. भगवतीसूत्र/२५/७/८०२ १६२. आचारांग/१/५/४ १६०. उत्तराध्ययनसूत्र/३०/२८ १६३. स्थानांग/३/४४८ १६१. पंचाशक/१६/३ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन (२) विनय : मान-परिवर्जन ज्ञानादि गुणों का बहुमान करना तथा गुरुजनों के प्रति आदर या सम्मान भाव रखना-विनय तप है। १६४ विनयशील गुरुजनों के निर्देश का अतिक्रमण नहीं करता। महापुरुषों की वाणी में शंका नहीं करता। विनयी के भीतर एक विकल्प भी स्फुरित नहीं होता। यदि विकल्प पैदा हो, तो परम विनयी नहीं। विनयी परिस्थिति को सहजता से स्वीकार करता है। प्रसंग या परिस्थिति को लेकर वह कोई भी अच्छा या बुरा अभिप्राय नहीं देता। अभिप्राय न देना यह कषायमन्दता बिना संभव नहीं। अहंकार-मन्दता के अभाव में विनय-तप असंभव है। भय अथवा लोभ कषाय के वशीभूत होकर नम्रता प्रकट करना तप नहीं है; अपितु मान-कषाय पर कुठाराघात कर प्रत्येक प्रसंग में सहज रहना तप है। चण्डरुद्राचार्य'६५ को कन्धे पर बिठाकर जंगल पार करते हुए नूतन मुनि ने गुरु के समस्त कर्कश वचनों एवं ताड़ना-तर्जना पर परम विनय रखा, भीतर में एक असत् विकल्प उत्पन्न नहीं हुआ, मान-मर्दन होने पर भी, क्रोध-सर्प फुफकार नहीं उठा तो समस्त कषाय क्षय करके कैवल्य ज्ञान प्राप्त किया। (३) वैयावृत्य : देहासक्ति त्याग __शरीर-मोह, वस्तु-मोह, व्यक्ति को वैयावृत्य-तप नहीं करने देता। किसी की सेवा के लिए शरीर को तत्पर करना, समय-शक्ति का उपयोग करना तीव्र मोह में संभव नहीं है। सुविधा का लोभ, मान का घनत्व त्यागकर साधक अन्य साधकों की जरूरत में अपने तन-मन को लगाता है। कहा है आचार्यादि की सेवा-सुश्रुषा वैयावृत्य-तप है। १६६ ग्लान, वृद्ध आदि की उचित सार-संभाल इसी तप के अन्तर्गत है। नंदीषेण मुनि का संकल्प था'६७ ग्लान सेवा की परीक्षा हेतु दो देव मुनि का रूप धारण कर नगर के बाहर आ गये। एक मुनि नंदीषण को कटुवचन से प्रताड़ित करने लगे; 'अहो! प्रशंसनीय है, तुम्हारा संकल्प। तुम यहाँ आहारलुब्ध बने हो, नगर के बाहर एक ग्लान मुनि तड़प रहे हैं।' कर्कश-वचन श्रवण करके भी क्रोधाविष्ट नहीं होने वाले नंदीषेण मुनि तुरंत आहार छोड़कर उठ खड़े हुए। दो उपवास का पारणा था; किन्तु शरीर-ममत्व हावी नहीं हुआ। ग्लान मुनि को कन्धे पर बिठाकर नगर की ओर चल पड़े। ग्लान-मुनि ने ताड़ना-तर्जना प्रारम्भ कर दी; पर नन्दीषेण मान-विजेता बनकर चलते रहे। मुनि की अति दुर्गन्धित विष्टा शरीर पर गिरने लगी; लेकिन नन्दीषेण के मन १६४. उत्तराध्ययनसूत्र/३०/३२ १६६. उत्तराध्ययनसूत्र ३०/३३ १६५. उत्तराध्ययनसूत्र/१/टीका १६७. कथा साहित्य Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय और कर्म १२७ में जुगुप्सा/घृणा के भाव पैदा नहीं हुए। अन्त में, दोनों मुनियों ने अपना दिव्य स्वरूप प्रकट किया एवं नन्दीषण की वैयावृत्य तप की प्रशंसा करके अपने स्थान पर चले गए। (४) स्वाध्याय : आत्मशोधन स्व-दोषों का संशोधन, आत्मस्वरूप का चिन्तन, मनन, आगमों का अध्ययन, अध्यापन आदि स्वाध्याय तप है। १६८ अपने कषाय भाव एवं मूल अकषाय स्वभाव को समझने के लिए स्वाध्याय परमालम्बन है। कषाय आत्मा में है, आत्मा का स्वभाव नहीं है। ____ अज्ञानी जीव कषाय को स्वाभाविक अवस्था मानता है। उसकी मान्यता होती है, कोई अपमान करे तो क्रोध आयेगा ही, अच्छी वस्तु को देखकर पाने की लालसा जागेगी ही, प्रशंसा पाने पर गर्व आयेगा ही, बुराई को छिपाने के भाव आयेंगे ही और ऐसा होना भी चाहिए, क्योंकि यह हमारा स्वभाव है। वस्तु-स्वरूप का ज्ञान न होने पर, कर्म-सिद्धान्त को न समझने के कारण, कषायों से होने वाली हानि ध्यान में न आने के कारण विपरीत धारणाएँ बन जाती हैं। स्वाध्याय से अपने अकषाय स्वभाव का ज्ञान होता है एवं चिन्तन, मनन, से दोषों का परिमार्जन होता है। अतः कषाय-क्षय के लिए साधक को स्वाध्याय में सदा यत्नशील रहने की प्रेरणा दी गई है। मासतुष मुनि'६९ को ज्ञानावरणीय कर्मोदय के कारण अध्ययन में गति न होने पर गुरुदेव ने मात्र एक सूत्र कंठस्थ करने हेतु दिया था- 'मा रूष मा तुष' ना राग करो, ना द्वेष करो। वह सूत्र भी विस्मरण हो गया और मासतुष का उच्चारण करने लगे। किन्तु बारह वर्ष का पुरुषार्थ सफल हआ और मुनि ने अकषाय स्वभाव को प्रकट किया। (५) ध्यान : अकषाय स्वभाव में रमणता. __ जैनाचार्यों ने ध्यान को चित्त निरोध कहा है। १७० किसी एक विषय में एकाग्रता ध्यान है। एकाग्रता अशुभ विचार में भी हो सकती है एवं शुभ अथवा शुद्ध में भी। इसी अपेक्षा से ध्यान चार प्रकार का बताया गया है-११ (१) आर्तध्यान, (२) रौद्रध्यान, (३) धर्मध्यान; और (४) शुक्ल ध्यान। __ आर्त एवं रौद्रध्यान दुर्व्यान, अप्रशस्त और अशुभ ध्यान हैं। इन दोनों ध्यान से कर्म-निर्जरा नहीं, अपितु कर्मबन्धन होते हैं। तीव्र कषाय उदय के परिणामस्वरूप ये दोनों ध्यान होते हैं। १६८. उत्तराध्ययनसूत्र/३०/३४ की टीका १७१. (अ) उत्तराध्ययनसूत्र/३०/३५ १६९. कथा साहित्य (ब) तत्वार्थ/९/२९ १७०, तत्त्वार्थसूत्र/अ. ९/सू. २७ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन १. आर्तध्यान ७२ : शोकावस्था (अ) इष्ट वियोग- प्रिय व्यक्ति अथवा पदार्थ का संयोग विच्छेद होने पर कल्पान्त करना, आर्तनाद एवं करुण क्रन्दन करना। कल्पसूत्र में आख्यान है, ललितांगदेव स्वयंप्रभादेवी के वियोग पर ऐसा आघात लगा कि मित्रदेवता ने मनुष्यलोक में अनशनधारिणी धर्मिणी को ललितांगदेव का दिव्यरूप दिखाकर स्वयंप्रभादेवी बनने का संकल्प करवाया। (ब) अनिष्ट संयोग- अप्रिय व्यक्ति अथवा पदार्थ का संयोग असह्य प्रतीत होना, उसके वियोग की चिन्ता करना-आर्तध्यान है। (स) रोग चिन्ता- शरीर में वेदना उदय होने पर उसके निवारण हेतु सतत चिन्तन करना। (द) निदान- भोगाकांक्षा अथवा अन्य किसी प्रयोजन से भविष्य के लिए संकल्प करना। २. रौद्रध्यान'७३ : तीव्रतम कषाय (अ) हिंसानुबन्धी- द्वेषभाव से प्रतिशोध लेने के पश्चात् प्रसन्नता। (ब) मृषानुबन्धी- क्रोध, मान, माया, लोभ से असत्य भाषण के पश्चात् हर्षाभिव्यक्ति। (स) स्तेनानुबन्धी- लोभ कषाय के वशीभूत हो चौर्यकर्म करने के उपरान्त आनन्द विभोर अवस्था। (द) संरक्षणानुबन्धी- संग्रह-लालसा के परिणामरूप परिग्रह में गाढ़ आसक्ति। ३. धर्मध्यान : कषाय से अकषाय अपना अकषाय धर्म जब ध्यान में आता है, तब धर्मध्यान होता है। चिन्तनधारा स्वभाव-सम्मुख प्रवाहित होती है। यह भी चार प्रकार का होता है। १७४ (अ) आज्ञाविचय- वीतराग प्ररूपित वाणी का चिन्तन। प्रभु की आज्ञा है, न राग करो, न द्वेष करो। स्वयं के वीतराग स्वभाव को पहचानो - अकषाय समता-भाव में रहो, यह चिन्तनधारा प्रवाहित होती है। (ब) अपायविचय- स्वयं के कषायादि दोषों का अवलोकन एवं दोषमुक्ति के उपायों का चिन्तन। चिन्तन यह नहीं होता कि दूसरे मुझे दुःख देते हैं अथवा १७२. (अ) तत्त्वार्थ/९/३१-३४ (ब) स्थानांगसूत्र/४/६० १७३. स्थानांगसूत्र/४/६३ १७४. (अ) वही/४/६४ (ब) तत्त्वार्थ०/९/३७ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय और कर्म १२९ कर्म मुझे दुःख देते हैं, वह यह सोचता है, मेरे दोष ही मुझे दुःख देते हैं अतः इन्हीं से मुझे मुक्त होना है। (स) विपाकविचय- पूर्वकर्मों के फलस्वरूप उदयगत सुख-दुःखात्मक विभिन्न परिस्थितियों का चिन्तन। कर्मस्वरूप का चिन्तन। (द) संस्थानविचय- लोकस्वरूप अथवा शरीर स्वरूप का चिन्तन। अनासक्ति-वृद्धि होती है, आसक्ति टूटती है। ४. शुक्लध्यान : स्वरूप रमणता जिस समय उपयोग में से कषाय हट जाता है. ज्ञान-दर्शन आदि गुण रागादिमय नहीं अपितु आत्मस्वरूप चिन्तनमय बन जाते हैं, उपयोग परपरिणति से हटकर स्व-परिणति में लग जाता है, वह शुक्लध्यान है। उपयोग में जितना कषायांश है, जीव कषाय में रमता है, वह पर-परिणाम है तथा उपयोग में जब मात्र ज्ञानधारा है, वह स्व-परिणाम है। ___ शुक्लध्यानी ज्ञाता दृष्टा भावरूप अप्रमत्तावस्था में रहता है, जहाँ न कषाय क्रियाशील रहते हैं और न उससे उत्पन्न ईर्ष्या, द्वेष, विषाद आदि भाव ही उत्पन्न होते हैं। वह संज्वलन कषाय के विपाक को ही मात्र देखता है, जानता है किन्तु उन भावों से प्रभावित नहीं होता है। कषाय उपशान्ति एवं कषाय क्षय की अवस्था शुक्लध्यान है। ___ शुक्लध्यान के चार भेद हैं-१७५ (अ) पृथक्त्ववितर्क सविचार (ब) एकत्ववितर्क निर्विचार (स) सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती (द) समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति। स्थानांगसूत्र में शुक्लध्यान के चार लक्षण बताये गये हैं-१७६ (क) परीषह, उपसर्ग आदि से व्यथित न होना (ख) किसी प्रकार का मोह उत्पन्न न होना (ग) भेद ज्ञान (घ) शरीरादि के प्रति ममत्वभाव का पूर्ण त्याग – इसे अव्यय, असम्मोह, विवेक एवं व्युत्सर्ग कहा गया है। स्वरूप के साथ चित्त का अनुसंधान होने पर चित्त में पड़े तृष्णा, राग, द्वेष और मोह आदि के संस्कार उखड़ जाते हैं। स्वरूप बोध के बिना हुआ एकाग्र चित्त निमित्त मिलने पर पुनः क्षुब्ध हो जाता है और राग, द्वेष, मोह से अभिभूत होकर अपना चंचल स्वभाव पुनः प्रकट कर देता है। मोह का आधार स्वरूप की विस्मृति है, शुक्लध्यान स्वरूप की रमणता है, अतः अकषाय स्वभाव का प्रकटीकरण हो जाता है। १७५. (अ) स्थानांगसूत्र/४/६९ (ब) तत्त्वार्थ०/९/४१ १७६. स्थानांगसूत्र/४/६० Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० (६) व्युत्सर्ग : ममकार विजय १७७ आचारांग के विमोक्ष अध्ययन में आहार, कषाय आदि के व्युत्सर्ग का विवेचन है। इस तप के प्रसंग में संसार के हेतु राग-द्वेष, कषाय, बाह्य पदार्थों का त्याग एवं आत्मा को शुद्ध करने की प्रक्रिया का वर्णन है । व्युत्सर्ग अथवा कायोत्सर्ग में काया का उत्सर्ग नहीं, अपितुं काया के ममत्व का उत्सर्ग होता है। १७८ कैसा भी उपसर्ग हो, अनुकूल या प्रतिकूल साधक समस्त परिस्थितियों का तटस्थ दृष्टा बनकर जागृति और समता को साधना का आधार स्तम्भ बनाकर स्वस्थ रहता है । वह मुमुक्षु जितने प्रमाण में स्वदेह, मन आदि पर्यायों के साथ तादात्म्य - अनुभव न करके उन्हें ज्ञान का ज्ञेय रूप जानता है, एक निर्लेप प्रेक्षक की तरह राग-द्वेष रहित होकर साक्षीभाव से देखता है, उतने अंशों में मुक्ति आस्वाद का अनुभव करता है। अहंकार एवं ममकार पर विजय प्राप्त कर साधक व्युत्सर्ग तप करता है। जैन परम्परा में सुप्रसिद्ध प्रसन्नचन्द्र राजर्षि का दृष्टान्त है - " कायोत्सर्ग मुद्रा में अकिंचन मुनि के रूप में राजर्षि खड़े थे; किन्तु पुत्रमोह के भाव से युद्ध क्षेत्र की विचार श्रेणी पर चढ़े और सातवीं नरक के दलिक एकत्रित कर लिये । जब मुनि अवस्था का भान आया, कषाय भावों के प्रति हेय - बुद्धि जागृत हुई, मोह-विजेता बनकर कर्मविजेता बने। पहले समय कायोत्सर्ग मुद्रा थी; पर कायोत्सर्ग तप नहीं था, दूसरे समय मुद्रा के साथ तप का संयोग था । मोक्ष : कषायमुक्ति १८१ मोह का क्षय मोक्ष है। मोक्ष के मुक्ति, निर्वाण, परिनिर्वाण आदि पर्यायवाची हैं। मुक्ति शब्द 'मुञ्च' धातु से बना है। दोषों से विमुक्ति ही वास्तविक विमुक्ति है । असावधान साधक राग-द्वेष रूपी दोष-मुक्ति के लिए संयमी जीवन अंगीकार करने के बाद भी यदि शरीर और इन्द्रियजनित सुखों की अभिलाषा से प्रेरित होकर शिष्य बनाता है, दीक्षित होने के बाद पश्चाताप करता है कि मैंने ऐसे कष्टों को क्यों अपनाया? कषाय एवं नोकषायादि विकार रूपी मोह - समुद्र में डूबता है, तो दुःख - मुक्ति के बदले नाना दुःखों को आमन्त्रित कर लेता है। १८२ १७७. (अ) आचारांगसूत्र / १/६ कषाय: एक तुलनात्मक अध्ययन ( ब ) उत्तराध्ययन/ ३०/३६ की टीका १७८. चारित्रसार/५६/३ १७९. उत्तराध्ययनसूत्र /३० / ३६ १८०. योगशास्त्र / १ / टीका १८१. आचारांगसूत्र/ १/५/६ १८२. उत्तराध्ययनसूत्र / ३२/१०४-१०५ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय और कर्म जो साधक कषाय रूपी शत्रुओं को जीत लेता है, इन्द्रिय-विषयों को जीत लेता है, वह हजारों शत्रुओं को जीतकर निरापद हो जाता है। उत्तराध्ययन में८३ केशीश्रमण ने गौतम स्वामी से प्रश्न किया है, 'हे गौतम! अनेक सहस्र शत्रुओं के मध्य आप खड़े हो। वे आपको जीतने के लिए दौड़ते हैं? फिर भी आपने उन शत्रुओं को कैसे जीत लिया?' यहाँ हजारों शत्रुओं से तात्पर्य कषाय के हजारों भेद हैं। __मूल में क्रोध, मान, माया, लोभ – ये चार कषाय हैं। सामान्य जीव एवं चौबीस दण्डकवर्ती जीव, इन २५ के साथ प्रत्येक कषाय को गुणा करने पर प्रत्येक के १०० भेद एवं चार कषाय के ४०० भेद होते हैं। क्रोधादि के अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी और संज्वलन के भेद से १६ भेद हैं। इन १६ कषायों को २५ से गुणा करने पर ४०० भेद होते हैं। आभोगनिर्वर्तित, अनाभोग-निर्वर्तित, उपशान्त, अनुपशान्त अवस्था की अपेक्षा क्रोधादि के १६ भेद हैं.५ एवं इन्हें पूर्वोक्त से २५ गुणा करने पर ४०० भेद होते हैं। आत्मप्रतिष्ठित, परप्रतिष्ठित, तदुभयप्रतिष्ठित, अप्रतिष्ठित, इस प्रकार क्रोधादि के १६ भेद हुए।१८६ इन १६ को २५ से गुणा करने पर ४०० भेद हुए। क्षेत्र, वास्तु, शरीर, उपधि आदि की अपेक्षा क्रोधादि के १६ भेद हैं, इन्हें २५ से गुणा करने पर ४०० भेद हुए। कारण का कार्य में उपचार करने से कषायों के प्रत्येक के ६-६ भेद होते हैं यथा चय, उपचय, बन्धन, वेदना, उदीरणा और निर्जरा। इन छः भेदों को भूत, भविष्य और वर्तमानकाल के साथ गुणा करने से १८ भेद हो जाते हैं। इन १८ भेदों को एक जीव तथा अनेक जीवों की अपेक्षा, दो के साथ गुणा करने से ३६ भेद होते हैं। इनको क्रोधादि चारों कषायों के साथ गुणा करने पर १४४ भेद होते हैं। इनको पूर्वोक्त २५ से गुणित करने पर कुल ३६०० भेद हुए। पूर्वोक्त ४००+४००+४००+४००+३६०० को मिलाने पर चारों कषायों के कुल ५२०० भेद हो जाते हैं। १८८ १८३. उत्तराध्ययनसूत्र/२३/३५ १८४. प्रथम कर्मग्रन्थ १८५. स्थानांग/४/१/८८ १८६. स्थानांग/४/१/७६ १८७. वही/४/१/८० १८८.उत्तराध्ययन प्रियदर्शिनी टीका/गा. ३/ पृ. ९१९ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ कषाय: एक तुलनात्मक अध्ययन इस प्रकार उत्तराध्ययनसूत्र में आत्मा के अनेक सहस्र शत्रु बताए गए हैं। इन शत्रुओं पर जिसने विजय प्राप्त कर ली, उसने कर्मों पर विजय प्राप्त कर ली और जो कर्म-विजेता बन गया, वह जन्म-मरण दुःख - विजेता बन गया । संसार के जन्म-मरण रूप दुःखों से छुटकारा पा लेना ही मुक्ति है। मुक्ति का आशय है - कर्ममुक्ति, राग-द्वेष से मुक्ति, संसार के आवर्त और तज्जन्य दुःखों से मुक्ति । आचार्य उमास्वाति ने कर्मबन्ध के हेतुओं का अभाव और निर्जरा से कर्मक्षय बताया है। सम्पूर्ण कर्मों का क्षय मुक्ति है। १८९ मोह / कषाय का क्षय भाव मोक्ष है एवं कर्म-क्षय द्रव्यमोक्ष है। भाव-मोक्ष के बिना द्रव्य - मोक्ष संभव नहीं है । इसीलिए आचारांग में कषाय को भाव-संसार की संज्ञा दी गई है। १९० कषाय, राग-द्वेष से मुक्तात्मा वीतराग कहलाती है। कषायरूपी शत्रुओं का हनन करने के कारण शुद्धात्मा को अरिहन्त सम्बोधन दिया गया है। परमात्मा न सृष्टिकर्ता है, न सृष्टिपालक है और न ही सृष्टिसंहारक है, क्योंकि उसमें इच्छा मात्र का अभाव है । वह न अनुग्रह करता है, न निग्रह करता है; क्योंकि वह राग-द्वेषादि से रहित है। ऐसे शुद्धात्मा को ही ईश्वर के रूप में नमस्कार किया गया है, वह भले किसी भी नाम से पहचाना जाता हो । आचार्य हेमचन्द्र सूरि ने कहा है 'भवबीजांकुर जनना, रागाद्या क्षयमुपगतायस्य, ब्रह्मा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तमै' १९९ जिसने भव-परम्परा के बीज-रूप राग-द्वेषादि का क्षय कर दिया, वह ब्रह्मा हो, विष्णु हो, शिव हो अथवा जिन हो; उसे नमस्कार है। आचार्य हरिभद्र सूरि ने इसी आशय से कहा है, ' भले १९२ 'नासाम्बरत्वे, न सिताम्बरत्वे, न तर्कवादे न च तत्त्ववादे न पक्षसेवाश्रयेण मुक्ति, कषायमुक्ति किल मुक्तिरेव । ' न दिगम्बर, न श्वेताम्बर, न तर्कवाद, न तत्त्ववाद पक्ष की सेवा से मुक्ति है, वस्तुतः कषायमुक्ति ही मुक्ति है। १८९. तत्त्वार्थ/१०/२-३ १९०. आचारांगसूत्र / १ / २ / टीका १९१. सूक्तिमुक्तावली /गा. ८२ १९२. सम्बोध सप्तततिका / गा. २ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सप्तम अध्याय कषाय-जय कषाय बीज है, कर्म का। कर्म हेतु है, संसार भ्रमण का। संसार मूल है, समस्त दुःखों का। दुःख मुक्ति के लिए कषायरूपी दोषमुक्ति चाहिये। 'उत्तराध्ययन' में कषाय को अग्नि कहा गया है। अग्नि पदार्थ को भस्म करती है, कषाय आत्मगुणों का घात करता है। कषायाग्नि से दहकती आत्मा अशान्त होती है। सामान्यतया क्रोध अग्निरूप प्रतीत होता है, क्योंकि उससे प्रत्यक्षतः आत्मा की व्याकुलता प्रकट होती है, किन्तु मान, माया एवं लोभ भी अग्नि स्वरूप हैं। सम्मान प्राप्ति की अभीप्सा में, कामना-पूर्ति के लोभ में एवं माया प्रकट होने के भय में सतत आकुलता बनी रहती है। राग और द्वेष- दोनों में आकुलता है। निराकुलता के लिए कषाय-क्षय अनिवार्य है। १. २. उत्तराध्ययनसूत्र/ रागो य दोसो य कम्मवीयं उत्तराध्ययनसूत्र/ अ. २३/ गा. ५३ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन कषाय का मूल है-मोह। मिथ्यात्व सहित मोह संसार-वृक्ष की जड़ है। इस अवस्था में स्वरूप अज्ञान, शरीर में अहंबुद्धि की मान्यता होती है। देहासक्ति के कारण प्राप्त संयोगों में सुख-दुःख की धारणा होती है। पर-पदार्थों में ममत्व एवं कर्मकृत अवस्थाओं में कर्तृत्व बुद्धि बनी रहती है। प्रगाढ़ मोहावस्था कषाय तीव्रता की परिणति है। कषाय-क्षय के क्रम में सर्वप्रथम अनन्तानुबन्धी कषाय रूप निबिड राग-द्वेष की प्रन्थि का छेद होता है। इस कषाय के उपशम अथवा क्षय होने पर सम्यग्दर्शन प्रकट होता है। सम्यग्दर्शन मुक्ति-महल का प्रथम सोपान है, मोक्षरूपी फल का बीज है, सिद्धि-गमन हेतु पहला कदम है। ३ 'मुझे कुछ बनना है' ऐसी महत्त्वाकांक्षा और 'मुझे कुछ चाहिये' ऐसी लालसा मन्द होने पर सम्यग्दर्शन की पात्रता बनती है। कषाय-मन्दता आत्म-ज्ञान के लिए पहली शर्त है। कषाय मन्दता हेतु कषाय का स्वरूप, हानि एवं कषाय-जय हेतु विचारणा-बिन्दु इस अध्याय में प्रस्तुत है। क्रोध क्रोधावस्था में विवेक पलायन कर जाता है, भले-बुरे की पहचान खो जाती है, बड़े-छोटे का भेद विस्मृत हो जाता है। क्रोध के मूल में प्रतिकार का भाव होता है। क्रोधी क्रोध-पात्र को ही ध्यान में रखता है, स्वयं को नहीं। निष्पक्ष दृष्टि से विचार करने पर अपनी त्रुटि ज्ञात हो सकती है। पर क्रोधावेश में अन्य की ही भूल महसूस होती है। क्रोध कब आता है? जब..अपेक्षा उपेक्षा में बदल जाती है, कामनाओं की पूर्ति नहीं होती, परिस्थिति को यथावत् स्वीकार करने की मानसिकता नहीं होती; तब क्रोध का जन्म होता है। मालिक चाहता है- कर्मचारी नियत समय पर कार्य संभाले, गृह प्रमुख सोचता है- घर के सदस्य उसकी इच्छानुसार चलें, पति पत्नी से और पत्नी पति से अपेक्षा करती है कि उसकी इच्छा का सम्मान हो। अनेकानेक अपेक्षाएँ सामान्य मन में रहती हैं। उन अपेक्षाओं की अवहेलना होने पर व्यक्ति क्रुद्ध हो जाता है। विपरीत दृष्टिकोण से विचारणा होने पर भी व्यक्ति क्षुब्ध हो जाता है। किसी को हँसते देख अपना उपहास समझना, किन्हीं दो को गुप्त वार्ता करते देख अपनी निन्दा मानना, किसी के ध्यान नहीं देने पर अपना अपमान जानना आदि विचारों से अकारण शत्रुता भाव पनप जाता है। स्वार्थ-सिद्ध में बाधक ३. सम्यग्दर्शन| पृ. ५ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय और कर्म १३५ तत्त्व सर्वाधिक अप्रिय लगता है। मेरी प्रिय वस्तु किसी ने क्यों उठाली? मेरे स्थान पर अन्य कैसे बैठ गया? मेरे समय के अनुसार व्यवस्था क्यों नहीं दी गई? मेरी इच्छानुरूप पदार्थ क्यों नहीं दिया? इत्यादि सामान्य-सामान्य निमित्तों में उत्तेजना बढ़ जाती है। ___कई बार तामसिक आहार अथवा शारीरिक दुर्बलता या बाह्य परिस्थिति के अभाव में भी क्रोधोत्पत्ति होती है। अन्तरंग में कषाय उदय होने पर व्यक्ति अकारण बरस पड़ता है। औचित्य-अनौचित्य का विवेक समाप्त हो जाता है। क्रोध सर्व संयोगों में, सर्व-स्थल पर, सब प्रकार से अनिष्टकारी है; किन्तु कभीकभी अन्याय के विरोध में, धर्म-रक्षा के लिए, कर्तव्यपालन हेतु किया गया क्रोध उपादेय मान लिया जाता है। अनेक बार ऐसी परिस्थिति निर्मित होती है कि यदि उसका प्रतिकार न किया जाए तो दूरगामी परिणाम भयंकर होते हैं। यह धारणा अनुपयुक्त है कि अधीनस्थ कार्यकरों को समुचित कार्य कराने हेतु क्रोध आवश्यक है। किसी को उचित प्रेरणा देने हेतु क्रोध नहीं, अपितु आचरण अपेक्षित होता है। उग्रता से उग्रता एवं मैत्री से आत्मीयता प्रकट होती है। क्रुद्ध भाषा सामने उपस्थित व्यक्ति को भी क्रोधित कर देती है। क्रोध प्रत्येक दृष्टि से हानिकारक है। क्षुब्ध अवस्था में ज्ञान-तन्तु शिथिल हो जाते हैं। चैतन्य का ज्ञान-क्षेत्र संकुचित हो जाता है। यथा-भोजन हेतु कहीं गए, वहाँ क्रोध आ गया। उस समय थाली में क्या परोसा जा रहा है, वह स्थान कैसा सजा हुआ है, मेहमानों के चेहरे कितने आनन्दित हैं, किसी वस्तु का उसको ध्यान नहीं है, अतः मानसिक तनाव में विचार-क्षमता नष्ट हो जाती है। उग्रता स्वास्थ्य के लिए अहितकर है। क्रोध से यकृत, तिल्ली और गुर्दे विकृत होते हैं।" रक्तचाप बढ़ता है, आँतों में घाव होते हैं, पाचक रस अल्पमात्रा में बनता है। अमेरिका की लाइफ मेगजीन में एक सचित्र लेख था कि हार्ट ट्रबल, स्टमक, ब्लड प्रेशर, अल्सर आदि रोगों का कारण आवेश है। तीव्र आवेश में फेफड़े, हृदय, मस्तिष्क स्नायु आदि के कार्य में तीव्रता आती है, रक्त मस्तिष्क में चढ़ जाता है। खून में जहर उत्पन्न होता है। क्रोध के कारण नाड़ी फट जाने से कई बार मनुष्य की मृत्यु हो जाती है। ४. ठाणं/ स्थान ४ / उ. १ / सू. ८० ५. शारीरिक मनोविज्ञान ओझा एवं भार्गव | पृ. २१४ ६. सामान्य मनोविज्ञान की रूपरेखा/ पृ. ४२०-४२१ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन हत्याएँ एवं आत्महत्याएँ क्रोध का ही दुष्परिणाम हैं। अपने शरीर पर तेल छिड़क कर अग्नि भभकाने वाले, किसी पर तेजाब फेंक देने वाले, किसी पर धारदार अस्त्र से प्रहार करने वाले इसी विकार से पीड़ित होते हैं। सामान्यतया गृह-क्लेश, मारपीट का कारण क्रोधावेश होता है। परिवार में एक व्यक्ति के तीव्र क्रोधी होने पर अन्य सदस्यों में भी क्रोध संस्कार प्रबल बनने लगते हैं। घर में शान्ति नष्ट हो जाती है, प्रेम-मधुरता के स्थान पर कड़वाहट घुल जाती है। वैर-प्रतिशोध की भावनाएँ जन्म लेती हैं, वायुमंडल विषाक्त बन जाता है। वातावरण में भय व्याप्त हो जाता है। समाज, राष्ट्र, देश में उच्चपदों पर कार्यरत व्यक्ति यदि उग्रस्वभावी हो, तो वे संस्था के अकल्याणकर्ता होते हैं। व्यापारी व्यापारिक क्षेत्र में सफल नहीं होता। क्रोधी व्यक्ति घर, परिवार, व्यापार, समाज आदि में असफलता के साथसाथ अपनी उग्रता के कारण कर्म-बन्धन में बँधता चला जाता है, आत्मा को मलिन बनाता है और दुर्गति का मेहमान बनता है। वर्तमान और भविष्य - दोनों को दुःखपूरित बनाता है। क्रोध-शमन के सामान्य उपाय १. क्रोध आने पर मौन धारण कर लेना। ईंधन न डालने से अग्नि स्वतः शान्त हो जाती है। उत्तेजक वातावरण न बनने देने के लिए चुप्पी एक बहत बड़ा साधन है। कहा गया है, एक चुप्पी सौ को हरा देती है, अतः शान्ति का अमोघ साधन है - मौन। २. वाणी पर नियन्त्रण न हो तो स्थान परिवर्तन उचित है। 'न रहे बाँस, न बजे बांसुरी' उक्ति अनुसार न सामने रहे, न बोलने की आकुलता हो। ३. अपने क्रोध को शान्त करने के लिए अन्य क्रियाओं में संलग्न हो जाना। कार्य में मन न जुड़ता हो तो दर्पण में अपने विकराल रूप को देखकर शान्त होने का प्रयास करना। शीतल जल का सेवन करना। सामान्य अशान्ति में चित्त-शान्ति के लिए योग पद्धतियाँ उपयोगी होती हैं, यथा ४. जप का आलम्बन लेना। किसी पवित्र सूत्र की पुनरावृत्ति जप है।" मंत्र को श्वासोच्छ्वास के साथ जोड़ा जा सकता है। व्यर्थ के विचारों से हटकर अन्तर्मुख बनने की यह एक सरल प्रक्रिया है। अभ्यास-वृद्धि के साथ-साथ कल्पना ७. आत्मज्ञान अने साधना पथ/अमरेन्द्र मुनि/पृ. Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय-जय से अन्तश्चक्षुओं के समक्ष मंत्राक्षरों को देखने का प्रयत्न करने पर बहुत-सी बार मंत्राक्षर देदीप्यमान ज्योति फलक पर अंकित दिखाई देते हैं। जप - प्रवृत्ति से क्रोध, ईर्ष्या, आलोचना आदि दुष्वृत्तियाँ क्षीण होती हैं। १३७ ५. नाद श्रवण में चित्त लीन होने पर सहज शान्ति का अनुभव होता है। जप में बाह्य-ध्वनि एवं नाद में अन्तर्ध्वनि का अवलम्बन लिया जाता है । ' नीरवस्थान में ध्यानमुद्रा में आँखें बन्द करके, कान के छिद्रों को दोनों हाथों की अंगुलियों से बन्द करके अन्तर्ध्वनि को सुनने का प्रयास करना। अभ्यास में प्रगति होने पर कभी घुँघरू, घंट, शंख, बाँसुरी, मेघ गर्जन आदि की ध्वनियों जैसी ध्वनियाँ भी सुनाई दे सकती हैं। ६. आँख की कीकी और मन की गति में भी सम्बन्ध है। किसी चित्र या मूर्ति या अन्य पदार्थ पर निर्निमेष ( आँख की पलक झपकाये बिना) दृष्टि रखना, त्राटक है।' निश्चित समय अपलक आँखों से देखने के पश्चात् आँख बन्द करके भृकुटि-स्थान पर उस चित्र को देखने का प्रयास करना । मूल चित्र के तेजोमय प्रतिबिम्ब को कुछ देर तक देखने के पश्चात् पुनः मूल चित्र पर दृष्टि - निक्षेप करना । - ७. विचारों का श्वासोच्छ्वास से सीधा और गहरा सम्बन्ध है। श्वासोच्छ्वास की गति जितनी मन्द और लयबद्ध होगी, मन उतना शान्त होगा। क्रोधावस्था में श्वास की गति तीव्र और अनियमित हो जाती है। अतः चित्त स्थिति में परिवर्तन के लिए श्वास- गति को मन्द करने का प्रयास करना । ८. विचार प्रवाह का निरीक्षण चित्त-शान्ति का एक सशक्त साधन है । क्रोध कैसे प्रारम्भ हुआ ? कहाँ से प्रारम्भ हुआ? मूल उद्गम स्रोत कौन-सा कषाय है ? ऐसे प्रश्नों के उत्तर ढूँढ़ते जाने से मन पर परिस्थिति का प्रभाव समाप्त हो जाता है। विचारों का परिवर्तन स्वाध्याय, चिन्तन, अनुप्रेक्षा आदि के माध्यम से होता है। ९. हम दोषी हैं, तो क्रोध का कारण ही नहीं है। यदि वर्तमान में हमारा दोष हमें दिखाई नहीं देता; तो कहीं अतीत में हमारी भूल रही है। अशुभ कर्मोदय के अभाव में अपमान, तिरस्कार आदि का प्रसंग बनेगा नहीं । दुःख देने वाला बाह्य निमित्त है, अन्तरंग में हमारा कर्मोदय है। कर्म विषय जानने वाला ८. वही / पृ. ९. वही / पृ. Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन विश्व में सर्वत्र निष्पक्ष रूप से एक सुव्यवस्थित न्याय-तन्त्र देखता है। वह समझता है, आज जो मेरा अपराधी है, उसका पहले मैं अपराधी था। वर्तमान में मेरा असातावेदनीय अथवा 'अशुभ नामकर्म का उदय है तथा निमित्त बनने वाले का मोहनीय कर्म का उदय है। १०. चिन्तन हो, क्या प्रतिकार से समस्या सुलझ जायेगी? प्रतिक्रिया का क्या परिणाम होगा? क्षमा भाव ही वैर ग्रन्थि को तोड़ेगा। ११. महापुरुषों ने प्राणान्तक कष्टों में सन्तुलन नहीं खोया, उनके जीवन से शिक्षा ग्रहण करूँ। भगवान् महावीर ने संगम, शूलपाणि आदि पर भी मैत्रीभाव रखा। ईसा मसीह ने शूली पर लटकते समय विरोधियों की क्षमा हेतु प्रभु-प्रार्थना की। दयानन्द सरस्वती ने भोजन में काँच पीसकर मिलाने वाले रसोइए के प्रति दुर्भाव नहीं किया। १२. 'उत्तराध्ययन' का सूत्र है''- कोह बिजएणं भंते! जीवे किं जणयईं? उत्तर- कोह विजएणं खंतिं जणयइ। अर्थात् प्रश्न- क्रोध पर विजय करने से क्या प्राप्त होता है? उत्तर- क्रोध पर विजय करने से क्षमा भाव प्रकट होता है। क्षमा मोक्ष का द्वार है। क्षमा वीरों का भूषण है। कहा गया है- 'क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात'। सहज क्षमा ही क्षमा है, कषाय प्रेरित क्षमा, क्षमा नहीं है। मालिक ने कर्मचारी का तिरस्कार कर दिया, वह मौन रहा, यह लोभ प्रेरित क्षमा है। हृदय में क्रोध है; किन्तु नहीं बोलने की मजबूरी है। अभ्यागतों के समक्ष पुत्र से काँच का फानूस टूटने पर भी सेठ शान्त है; क्योंकि मान प्रेरित क्षमा है। प्रतिकार क्षमता न होने पर बाह्य दृष्टि से व्यक्ति सहज है; किन्तु अन्तरंग में वैर-शल्य चुभा है, यह माया प्रेरित क्षमा है। वस्तुतः क्षमा वह है, जब हृदय में क्रोध ही उत्पन्न न हो। १३. एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता नहीं है। अपने सुख-दुःख का कारण व्यक्ति स्वयं है, अन्य नहीं। अपने भले-बुरे का कर्तापन अन्य पर आरोपण करने से सहज क्षमा प्रकट नहीं होगी। प्रत्येक पदार्थ का स्वतन्त्र परिणमन है। परपदार्थों को अपनी इच्छा के अनुकूल परिणमन कराने की भावना मिथ्यात्व है एवं क्रोधोत्पत्ति का कारण है। अतः तत्त्व स्वरूप का चिन्तन करना चाहिए। १०. उत्तराध्ययनसूत्र/ अ. २९ /गा. ६८ ११. छह ढाला Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय-जय १४. आस्रव, संवर एवं निर्जरा भावना की अनुप्रेक्षा करना।२ नदी या समुद्र की अथाह जल-राशि पर तैरती नौका या जहाज में छिद्र होने पर पानी उस में प्रविष्ट होने लगता है ; वैसे ही कषाय-छिद्र से आत्मा में कर्म-प्रवेश होता है। नौका में हुए छिद्र को भर देने से जल-आगमन अवरुद्ध हो जाता है; उसी प्रकार क्षमा-भावपूरित आत्मा में कर्म-निरोध होता है। जिस प्रकार नाव में भरे जल को किसी पात्र से बाहर फेंक देने से नाव हल्की हो जाती है, उसी प्रकार क्षमायतिधर्म का पालन करने से कर्म-निर्जरा कर आत्मा शुद्ध बनती है। क्रोध-उपशमन हेतु विविध-विचारणाएँ संभवित हैं। सम्यक् विचारणा हेतु एक प्रेरक उदाहरण है- तथागत बुद्ध से एक भिक्षु ने निवेदन किया, 'भगवन्! मैं धर्म प्रचार हेतु अनार्य देश में विचरण की भावना रखता हूँ।' बुद्ध ने कहा, 'यदि वहाँ तुम्हें कोई गाली देगा?' वह मुस्कुराया, 'भन्ते! गालियाँ सुनना बड़ी बात नहीं है। विवाह-प्रसंग पर अक्सर गालियाँ दी जाती है।' तथागत ने पुनः कहा, 'यदि किसी ने हस्तप्रहार किया?' वह आनन्दित होकर बोला, 'प्रभो! माता-पिता के हाथ से मैंने कई बार मार खाई है, अतः कठिन कार्य नहीं है।' पुन: प्रश्न हुआ, 'वहाँ किसी ने लाठी से पीटा तो?' गंभीर स्वर में वह बोल उठा, 'महात्मन्! पशु-जीवन में मैंने लाठी की मार सहन की है, उसका मुझे अभ्यास है।' बुद्ध ने अंतिम बार उसका मानस टटोला, 'यदि किसी ने वध कर दिया?' भिक्षु के मुख पर हर्ष की रेखाएँ दौड़ गई, 'भगवन्! धर्म प्रचार के लिए यदि मेरा यह विनश्वर शरीर काम आ जाए, तो मेरा सौभाग्य होगा।' तथागत बुद्ध मुस्कुराए, 'भिक्षु! तुम अनार्य क्षेत्र में धर्म प्रचार हेतु पूर्ण योग्य हो।' यह है सकारात्मक दृष्टिकोण। ऐसी विचारणा होने पर क्रोधोत्पत्ति असंभवप्राय है। पूर्ण क्षमा वीतराग अवस्था में प्रकट होती है। आंशिक क्षमा सम्यग्दृष्टि, उससे अधिक देशविरत श्रावक एवं श्रावक से अधिक सर्वविरति साधु में क्षमा भावना विकसित होती है। सम्यग्दृष्टि अन्याय के विरोध में, धर्म-सुरक्षा के लिए, पदानुरूप प्रसंग में शस्त्र उठाता है; किन्तु शीघ्र क्षमा दान दे देता है। श्रावक का जीवन सीमाबद्ध होता है; समता विशेष होती है। सर्वविरति संयमी अपराधी के प्रति भी क्षमावान होता है। मेतार्य मुनि को स्वर्णकार ने गीले चमड़े से बाँधकर कड़कती धूप में खड़ा कर दिया; किन्तु वे क्षमाभाव में स्थित रहे। १३ १२. बारह भावना १३. योगशास्त्र Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन यह सहज क्षमा है। चारित्रमोहनीय कर्म का क्षय होने पर क्रोध का आत्यन्तिक क्षय होता है। मान अज्ञानी जीव को पुण्य के उदय में, अनुकूल संयोगों की प्राप्ति में मान कषाय का उदय विशेष होता है। उच्चकुल, स्वस्थ शरीर, लावण्यवती ललना, प्रतिभाशाली सन्तान, सुख-सुविधा, समाज में सत्कार-सम्मान, कार्य में प्रशंसा, कला-कौशल में प्रवीणता आदि कारणों से अभिमान आकाश छूने लगता है। द्वितीय अध्याय में आठ मद का विवेचन है। तप, ज्ञान आदि शक्तियों की प्राप्ति अज्ञानावस्था में मदान्ध बना देती है। अभिमानी के पाँव धरती पर नहीं टिकते। वह अपने समक्ष अन्य को तुच्छ मानता है। दर्प एवं दीनता दोनों मान हैं। प्राप्ति में दर्प एवं अभाव में दीनता होती है। अहंकारी स्वयं को ऊँचा प्रदर्शित करने हेतु अन्य व्यक्तियों का अवर्णवाद (निन्दा) करता है। अन्य व्यक्तियों का तिरस्कार कर उन्हें वह शत्रु बना लेता है। मदान्धता के कारण किसी के समक्ष झुकता नहीं। यश-प्रशंसा हेतु सामर्थ्य से अधिक कार्य करके अन्त में व्याकुल होता है, तनाव-ग्रस्त रहता है। शक्ति तोले बिना चुनौती देकर जब परास्त होता है, तब मरण हेतु उद्यत होता है। अभिमानी दुर्गति को आमन्त्रण देता है तथा कालान्तर में वह उस शक्ति से च्युत हो जाता है। मान-जय हेतु चिन्तन : १. शरीर की स्वस्थता, सुन्दरता का गर्व होने पर अशुचि भावना का चिन्तन करना चाहिए। शरीर क्या है? अस्थि, मज्जा, रक्त, मल-मूत्र, श्लेष्म इत्यादि दुर्गन्धमय पदार्थों से निर्मित चमड़े की चादर से ढकी यह देह है। श्रीमद् राजचन्द्र के शब्दों में-१४ 'खाण मूत्र ने मल नी, रोग जरा नुं निवास नुं धाम। काया एवी गणी ने, मान त्यजी ने कर सार्थक आम।।' न जाने कब आरोग्य बिगड़ जाए, सुरूपता कुरूपता में परिवर्तित हो जाए। राजा श्रेणिक ने राजगृही (राजगिरि) के राजपथ से गुजरते हुए नगर के बाहर तीव्र दुर्गन्ध का अनुभव किया। खोजबीन के पश्चात् ज्ञात हुआ - दुर्गन्धा नामक बाला की देह से यह गन्ध फैल रही थी। प्रभु महावीर के समक्ष यह घटना १४. तत्त्वज्ञान/ पृ. १४९ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय-जय १४१ निवेदन करने पर प्रभु ने कहा, 'राजन! यह दुर्गन्धा कुछ ही समय में दुर्गन्ध से मुक्त होकर सौन्दर्य प्रतिमा बनकर निखरेगी और भविष्य में तुम्हारी रानी बनेगी।' कुरूपता सुरूपता में और सुरूपता कुरूपता में परिवर्तित होती है। अथाह रूपराशि सम्पन्न सनत्कुमार चक्रवर्ती की काया कालान्तर में सोलह रोगों से ग्रस्त हो गई थी, अतः हे जीव! देह की सुन्दरता का क्या अभिमान करना? २. सत्ता, सम्पत्ति, सुविधा, साधन, सत्कार, सम्मान, प्रज्ञा, कला के उत्कर्ष में अहंकार पुष्ट होने पर विचार करना चाहिए- हे आत्मन्! पुण्य-कर्म के उदय से तुझे ये सब अनुकूलताएँ प्राप्त हुई हैं! पाप-कर्म के उदय से प्रतिकूलताएँ मिलती हैं। पुण्य और पाप – दोनों कर्म हैं, जड़ तत्त्व हैं। जीव और जड़ सर्वथा भिन्न तत्त्व हैं। जड़ तत्त्व के आधार पर अपना मूल्यांकन करना अज्ञान है। जीव सदा से एकाकी है, जड़ तीन काल में अपना हुआ नहीं, अपना होता नहीं। कर्म अपना फल प्रदान करके निर्जरित हो जाता है। पुण्य के उदय में हर्ष, पाप के उदय में शोक-दोनों ही बन्धन के कारण हैं। ३. स्वजन-परिजन आदि चेतन जगत् के संयोग में भी व्यक्ति अभिमान करता है। स्वजनों की योग्यता का गर्व होता है? पति के कमाऊ होने का गर्व पत्नी को, पत्नी की सुन्दरता का अभिमान पति को होता है। सन्तान की प्रतिभा का अहंकार माता-पिता करते हैं। संयोगों में मान कषाय होने पर अनित्य भावना का चिन्तन हो। संयोग कभी शाश्वत नहीं होता। संयोग का वियोग अवश्यम्भावी है। सराय में आया पथिक जैसे प्रातः समय अपने गन्तव्य की ओर प्रयाण कर जाता है, संध्या काल में वृक्ष पर आए पक्षी रात्रि विश्राम कर भोर होने पर अपनी-अपनी दिशा में उड़ जाते हैं; उसी प्रकार आयुष्य क्षय होने पर सब जीव संयोग के धागे तोड़ कर अगली गति में प्रस्थान कर देते हैं। संयोगों में अभिमान कैसा? ४. जल में उत्पन्न होकर भी जलज उससे भिन्न रहता है, उसी प्रकार काया में व्याप्त होकर भी चेतना उससे पूर्णतया भिन्न है। जब जीव से काया भिन्न है, तो कामिनी, कुटुम्ब आदि अभिन्न कैसे हो सकते हैं? अनन्तकाल की यात्रा में हर जीवन में अनेकों प्राणियों से संबंध स्थापित किए एवं उनमें ममत्व किया है, किन्तु कभी कोई संबंध स्थायी नहीं रहा। अतः हे चेतन! संबंधों के आधार पर अहंकार मिथ्या है। ५. जमीन-जायदाद की मालिकी का गर्व किसका टिक पाया है? 'हसन्ति Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन पृथ्वी नृपति नराणां १५ पृथ्वी उन राजाओं, जागीरदारों पर हँसती हुई कहती है- "मैं कभी किसी के साथ गई नहीं किन्तु मुझे मेरी-मेरी कहने वाले यहाँ सदा रहे नहीं । " किसका गर्व ? और किसलिए गर्व ? ६. शक्ति के आधार पर स्वयं को उच्च एवं अन्य को निम्न मानने पर विचार आना चाहिए कि समस्त आत्माएँ सिद्ध समान हैं। किसका तिरस्कार करना? और क्यों करना ? वस्तुतः मूल में आत्मा अनन्तज्ञान, दर्शन आदि गुणसम्पन्न है तो अल्प ज्ञानादि में अहंकार होना चाहिए या खेद ? ७. मानजय हेतु विनय गुण धारण करना चाहिए। 'उत्तराध्ययन' में कहा गया है - " मान का प्रतिपक्षी गुण विनय है ! विनय के अनेक भेद हैं- लोकोपचार अर्थात् माता-पिता का विनय करना । लोकोत्तर अर्थात् मोक्ष हेतु से विनय करना ! भय, अर्थलिप्सा या कामभोग बाँछा के हेतु से किया विनय ( नमन ) उत्तम विनय नहीं है । विनय सहज हो । संत नामदेव चूल्हे से रोटियाँ उतारकर घी लेने गये । एक कुत्ता उन रोटियों को मुँह में दबाकर दौड़ पड़ा। संत ने जैसे ही देखा, वे हाथ में कटोरी लिए कुत्ते के पीछे भागने लगे और मृदुतापूर्वक कहने लगे, 'प्रभो! रूको; रोटियाँ रूखी हैं, घी लगाने दो।' कुत्ते के शरीर में स्थित आत्म-तत्त्व पर संत की दृष्टि होने से उसके प्रति भी मृदुलता थी । द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण का प्रसिद्ध प्रसंग है। जीर्ण-शीर्ण वस्त्रों में सुदामा के आने पर भी श्रीकृष्ण भाव-विभोर हो गए और पाँव धोने के लिए स्वयं बैठे ! धूलि - धूसरित पाँवों का प्रक्षालन करने के लिए पानी लेने की आवश्यकता नहीं पड़ी 'ऐसे बेहाल बिवाइन सों पग, कटंक जाल लगे पुनि जोए, हाय महादुख पायो सखा तुम, आए इतै न कतै दिन खोए । देखि सुदामा की दीन दसा, करुणा करि के करुणानिधि रोए, पानी परात को हाथ छुयो नहीं, नैनन के जल सों पग धोए ।।' सम्यग्दृष्टि से अधिक देश - विरत श्रावक एवं उससे अधिक संयत (मुनि) में मान कषाय की मन्दता होती है । भगवान् महावीर के प्रथम शिष्य, चौदह हजार श्रमणों के नायक गौतम गणधर एक श्रावक से क्षमा-याचना करने गये । क्षमा-प्रार्थना करने में अहंकार बाधक नहीं बना। साधक में मार्दव-धर्म प्रकट होता जाता है। १५. सूक्तिमुक्तावली / पृष्ठ १५ १६. उत्तराध्ययन/ अ. २९ / गा. ६९ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय-जय १४३ माया कुटिलता का अपर पर्याय माया है। मायाचारी सोचता कुछ है, बोलता कुछ है और करता कुछ है। मायावी की त्रियोग एकरूपता नहीं होती। भावों में मलिनता, वचनों में मधुरता, क्रिया में विश्वासघात होता है। वह छल-कपट द्वारा कार्यसिद्धि चाहता है। वह सोचता है, उसका कपट कोई नहीं जानेगा; किन्तु प्रपंच लम्बे समय तक टिक नहीं सकता है। समय आने पर बात स्पष्ट हो जाती है, पुनः उसका कोई विश्वास नहीं करता। कहावत है- काठ की हांडी दो बार नहीं चढ़ती। बार-बार किसी को ठगा नहीं जा सकता। 'मुख में राम, बगल में छुरी' कहावत को चरितार्थ करने वाले को कोई हार्दिक सम्मान नहीं देता। सभ्यता के नाम पर मायाचारी में व्यक्ति अपनी ऊँची स्थिति जताता है। जिससे भ्रमित हो कर कई सम्बन्ध स्थापित हो जाते हैं, किन्तु सच्चाई प्रकट होने पर आलोचना होती है। मनोरंजन हेतु से किया गया असत्य मायापूर्ण व्यवहार कई बार जानलेवा बन जाता है। मायावी सदा शंकाग्रस्त रहता है, कहीं भेद प्रकट न हो जाए। बलवानों से किया कपट महँगा पड़ जाता है, खतरा पैदा हो जाता है। मायाजय हेतु विविध विचार बिन्दु : १. कार्यसिद्धि छल-प्रपंच से नहीं पुण्योदय से होती है। सफलता का योग होने पर सहज कार्य होता है। असफलता का योग होने पर छल-माया भी सिद्धि में सहायक नहीं बनती है। पुण्य का बन्ध पवित्रता, सरलता से होता है। २. सरलता धर्म की जननी है। सरलता बिना मुक्ति संभव नहीं है। सुई में प्रवेश लेने हेतु धागे को सीधा होना होता है, सरल साफ-सुथरी जमीन में बीज बोया जाता है, उसी प्रकार सरल हृदय में सम्यक्त्व रूपी बीज-वपन होता है। ३. माया और असत्य एक सिक्के के दो पहलू हैं। सरल-व्यक्ति को असत्य का आश्रय नहीं लेना पड़ता। गढ़े-गढ़ाये बहानों को याद नहीं रखना पड़ता। सरल आदमी तनाव में नहीं अपितु अपनी मस्ती में जीता है। ४. मायावी अपने ही शब्द-जाल में फँस जाता है। कपट से ग्रहण किया धन अधिक समय नहीं टिकता है। स्वार्थ की गंध से दूषित अपवित्र सम्बन्ध लम्बे समय नहीं चलते हैं। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन ५. विचार करें, माया कषाय अनन्त दु:खों का कारण है। तिर्यञ्च गति का हेतु है। १७ ६. 'उत्तराध्ययन' में कहा गया है-१८ माया पर जय करने से सरलता गुण आर्जव धर्म प्रकट होता है। सरलता का अर्थ मूर्खता नहीं है। किसी ने ताश खेलने बुलाया, मन नहीं है; किन्तु सीधे सरल हैं, अतः क्या इन्कार करना। यह सरलता नहीं बुद्धिहीनता है। सरलता अर्थात् अपवित्रता की एकरूपता नहीं है। दुकानदार भीतरी कक्ष में दूध में पानी मिला रहा है और बाहर से ग्राहक की आवाज आई, 'क्या कर रहे हो? दूध जल्दी चाहिए।' इस प्रश्न के उत्तर में कहना, 'भैया! मैं पानी मिला रहा हूँ।' यह सरलता की एकरूपता नहीं है। अपवित्र कार्य ही गलत है। भाव, भाषा एवं व्यवहार- त्रियोग में पवित्रता उत्तम सरलता है। ७. सम्यग्दर्शन से सहज सरलता का प्रारम्भ होता है। श्रीकृष्ण की सरलता कितनी? विदुर के यहाँ केले के छिलके खा लिये। किन्तु मूर्खता नहीं थी - वे अतुल बुद्धि वैभव के स्वामी थे। सम्यग्दृष्टि, देश-विरति और सर्व-विरति में क्रमश: सरलता अधिकाधिक होती है। जैसलमेर के थेरूशाह भंसाली को पुण्ययोग से चित्रावेल नामक अक्षयकारिणी वनस्पति प्राप्त हई थी। परमार्थ और पुण्य-कार्यों में पैसे का सदुपयोग होने लगा। प्रशंसा बढ़ती गई। साथ ही ईर्ष्यालु व्यक्तियों की जलन बढ़ती गई। राजा के कान भर दिये गये। थेरूशाह को वस्तुस्थिति का ज्ञान होते ही विचार आया, 'यदि यह बेल राज-भंडार में जायेगी, तो राजा के दर्द को बढ़ाने में कारण बनेगी।' उन्होंने बेल को रेत के गड्ढे में डाल दिया। राजा के पूछने पर कहा - 'राजन! मैं असत्य नहीं बोलता, कपट नहीं करता। मेरे पास बेल आई थी, आज नहीं है, जहाँ फेंकी है वह स्थान दिखा सकता हूँ।' राजा ने गड्ढे की मिट्टी हटवाई; किन्तु बेल के प्रभाव से मिट्टी अक्षय हो गई। माया कषाय की मन्दता होने पर सरलता के साथ विवेक का संगम होता है। लोभ इच्छा मात्र लोभ कषाय है। इच्छाएँ अनन्त हैं। सम्मान की अभिलाषा, पद की कामना, इन्द्रिय-विषयों की अभीप्सा, जीवन-सुरक्षा की चाहना, स्वस्थता की आकांक्षा इत्यादि अनेक इच्छाएँ होती हैं। १७. माया तिर्यग्योनस्य तत्त्वार्थ सूत्र/ अ. ६/ सू. १७ १८. उत्तराध्ययनसूत्र-अ. २९/ सू. ७० Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय-जय १४५ __लोभ कभी इतना परिष्कृत होता है कि लोभ ही नहीं लगता। व्यक्ति-प्रेम, पदार्थ-प्रेम स्वाभाविक प्रतीत होता है। जबकि प्रेम राग-भाव की परिणति है। लोभ कषाय का एक रूप राग भाव है। कामना-पूर्ति के लिए व्यक्ति सब कुछ कर गुजरने का मानस बना लेता है। भले वह कामना सत्ता, सम्पत्ति, सुन्दरी आदि किसी से भी सम्बन्धित हो। लोभ कषाय से निरन्तर आकुलता-व्याकुलता बनी रहती है। प्राप्त परिस्थिति में वह सहज प्रसन्न नहीं रह पाता है। इच्छा पूर्ति न होने पर वह हत्या और आत्म-हत्या के स्तर तक पहुँच जाता है। कषाय ग्रस्त आत्मा में मलिनता बढ़ती है, कर्म-बन्धन होता है तथा अनन्त दुःखों का सर्जन होता है। लोभजय हेतु चिन्तन : १. सांसारिक आकर्षण की डोर में बँधा जीव चतुर्गति भ्रमण करता है। कभी पाप का बीज बोकर असह्य दुःख भोगने हेतु नरक में जाता है, कभी तिर्यञ्च गति में पशु-पक्षी, पत्थर-पानी, अग्नि-वायु, वनस्पति आदि के रूप में वध, बन्धन, भार-वहन, ताड़ना-तर्जना, छेदन-भेदन रूप दुःख सहन करता है, कभी नर-जीवन पा कर बचपन में पराधीनता, यौवन में भोग-जाल और वृद्धत्व में रोग-जर्जरादि कष्ट उठाता है। कभी स्वर्गीय सुखों को पाता है; किन्तु वहाँ भी ईर्ष्या, भोग-लिप्सा आदि दुःख मोल लेता है। ऐसे सांसारिक-भोग सुखों का लोभ क्यों करना, जिनसे संसार-वृद्धि हो। २. सांसारिक भोगों में सुखाभास होता है, सुख नहीं। पर-पदार्थों से, परद्रव्यों से कभी शाश्वत सनातन सुख नहीं मिल सकता है। यथा 'मंथन करे दिन रात जल, घृत हाथ में आवे नहीं, रज रेत पेले रात दिन, पर तेल ज्यों पावे नहीं। सद्भाग्य बिन ज्यों संपदा, मिलती नहीं व्यापार में, निज आत्मा के भान बिन, त्यों सुख नहीं संसार में।'१९ ३. भौतिक सुविधा-साधन भी लोभ से नहीं, पुण्य से प्राप्त होते हैं। जहाँ लोभ है, वहाँ व्याकुलता है। प्राप्त पदार्थों के संरक्षण की चिन्ता, वियोग का भय बना रहता है। ४. इच्छा मात्र बन्धन का कारण है। जन्म-मरण के चक्र में निमित्त इच्छा है। लोभ कषाय से इच्छा पैदा होती है। १९. पं. हुकमचन्द भारिल्ल बारह भावना Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन ५. सज्जन व्यक्ति इच्छाएँ अल्प करता है। स्व-स्त्री, स्व-धन में सन्तोष धारण करता है। सम्यग्दृष्टि लोभ को हेय मानता है, उपादेय नहीं। श्रावक की आवश्यकताएँ संक्षिप्त होती हैं। सर्व-विरति का लोभ मात्र मोक्ष अभिलाष रूप होता है। बाह्य परिग्रह त्याग कर आभ्यन्तर परिग्रह-ग्रन्थियों को तोड़ने का पुरुषार्थ होता है। कषाय विजय हेतु साधक विचारणा-स्तर पर बारह-भावना का चिन्तन एवं आचरण-स्तर पर बारह तप का अवलम्बन ग्रहण करता है। उपसंहार नींव के बिना इमारत नहीं, बीज के बिना वृक्ष नहीं, तन्तु के बिना वस्त्र नहीं, उसी प्रकार कषाय के बिना संसार संभव नहीं है। संसार का आधारस्तम्भ कषाय है। कषाय का अपर नाम संसार एवं संसार का पर्याय कषाय है। काषायिक-प्रवृत्तियों के हजारों रूप हैं, जो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में दृष्टिगोचर होते हैं। विश्व-राजनीति में दिन-प्रतिदिन वृद्धिगत होता परमाणुवाद संसार में आतंक फैला रहा है और नागासाकी-हिरोशिमा की विनाश-लीला का स्मरण दिला रहा है। सीमा-वृद्धि की अभीप्सा से युद्धों का जन्म हो रहा है, मैत्री सम्बन्धों में स्वार्थ मुख्यता दृष्टिगत है। देश राजनीति में पदलिप्सा एवं धन लोलुपता अधिनायकों को पतन-गर्त में धकेल रही है। आत्माप्रशंसा, परनिन्दा, आश्वासनों और झूठे वायदों का बाजार गरमागरम चल रहा है। आर्थिक क्षेत्र में भ्रष्टाचार, काला बाजार, रिश्वत, मिलावट, अन्याय, अनीति, शोषण का बोलबाला है। येन-केन-प्रकारेण अर्थ-संग्रह की मानसिकता छाई है। समाज में दहेज, लेन-देन, आदि प्रवृत्तियों को लेकर हत्या एवं आत्महत्याओं का प्रतिशत बढ़ता चला जा रहा है। मध्यमवर्ग संत्रस्त है, उच्चवर्ग के आडम्बरों एवं वैभव विलास के प्रदर्शन से। सामाजिक कार्यक्रमों में धनवानों का विशेष सम्मान होना लोभ कषाय की मुख्यता का ही परिणाम है। जीवन में नैतिक मूल्यों का ह्रास होता जा रहा है। पारिवारिक क्षेत्र में सम्पत्ति-बँटवारा, कामकाज, परस्पर विपरीत Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय-जय १४७ - धारणाओं, महत्त्वाकांक्षा एवं भोग-सामग्री की इच्छाओं से मानव त्रस्त है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में दुःख, अशान्ति, व्याकुलता परिलक्षित होती है। तामसिक कषाय विध्वंस, हिंसा, तोड़-फोड़, उपद्रव में कार्य कर रहा है, राजसिक कषाय परिवार परिचितों के व्यावहारिक हितों की सुरक्षा भावना में जुड़ा है और सात्त्विक कषाय से कला, शिल्प, साहित्य, संस्थाओं आदि का विकास होता दिखाई दे रहा है। तामस की अपेक्षा राजस एवं राजस की अपेक्षा सात्त्विक कषाय समुचित है; किन्तु निराकुल अवस्था की प्राप्ति हेतु अकषाय अवस्था अनिवार्य है। कषाय-विकार से संसार का कोई प्राणी अपरिचित अथवा अप्रभावित नहीं है; किन्तु उसे दुःख का कारण मानने वाले लोग विरल हैं। काषायिक-वृत्तियों को समझकर कषायाग्नि का शमन हो, यही मंगल भावना इस शोध प्रबन्ध में समाहित है। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ २. आभामण्डल : मुनि नथमल प्रथम संस्करण सन् १९८० आदर्श साहित्य संघ, चूरू (राज.) । ३. औपपातिकसूत्र : सम्पादक-युवाचार्य श्री मिश्रीलालजी महाराज ; प्रकाशक-श्री आगम प्रकाशन समिति ब्यावर (राज.) । वीर नि. सं. २५०८, सन् १९८२ । आयारो : सम्पादक-मुनि नथमल जैन विश्वभारती, लाडनूं (राज.) ; प्रथम संस्करण वि. सं. २०३१ । सन्दर्भ ग्रन्थ-सूची १. अभिधान राजेन्द्र कोश ( भाग - सातवाँ ) : श्रीमद् राजेन्द्र सूरि; प्रकाशक - श्री अभिधान राजेन्द्र प्रचारक सभा रतलाम ( मालवा ) ; सन् १९३४। ४. ७. इतिवृत्तक : भिक्षु धर्मरक्षित महाबोधि सभा, सारनाथ (बनारस) ; प्रथम संस्करण सन् १९५६ । उत्तराध्ययनसूत्र (उत्तरज्झयणाणि ) : सम्पादक - मुनि नथमल जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा, ३, पोर्चुगीज चर्च स्ट्रीट, कलकत्ता-१ ; प्रथम संस्करण सन् १९६७ । अंगुत्तरनिकाय ( प्रथम भाग ) : अनुवादक - भदन्त आनन्द कौसल्यायन ; महाबोधि सभा, कलकत्ता; सन् १९५७। अंगुत्तर निकाय ( द्वितीय भाग ) 4. अनुवादक-‍ - भदन्त आनन्द कौसल्यायन ; महाबोधि सभा, कलकत्ता ; सन् १९६३ । कर्मग्रन्थ ( प्रथम ) : देवेन्द्र सूरि; श्री जैन श्रेयस्कर मंडल, वेणीचंद सुरचंद शाह, म्हेसाणा ; प्रथम संस्करण सन् १९१५ । १०. कर्मग्रन्थ (पंचम) : देवेन्द्र सूरि; व्याख्या -मुनि मिश्रीमल मरुधर केसरी साहित्य प्रकाशन समिति, पीपलिया बाजार, ब्यावर (राज.) ; प्रथम संस्करण सन् १९७४ । ११. कर्मग्रंथ, षष्ठ भाग : देवेन्द्र सूरि; व्याख्या -मुनि मिश्रीमलजी मरुधर केसरी साहित्य प्रकाशन समिति, पीपलिया बाजार, ब्यावर (राज.) ; प्रथम संस्करण सन् १९७६ । १२. कषायपाहुड ( चूर्णिसूत्र ) : सम्पादक पं. हीरालाल जैन ; वीर शासन ८. कषाय: एक तुलनात्मक अध्ययन १३. , संघ, कलकत्ता, प्रथम संस्करण सन् १९५५ । गोम्मटसार ( जीवकाण्ड ) : नेमिचन्द्राचार्य; सम्पादक - स्व. डॉ. Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ ग्रंथ-सूची १४९ आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये, पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, बी. ४५-४७, कनाट प्लेस, नई दिल्ली- ११०००१ ; प्रथम संस्करण सन् १९७८ । गोम्मटसार (कर्मकाण्ड ) : नेमिचन्द्राचार्य; सम्पादक-स्व. डॉ. आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये, पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री; भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, बी-४५-४७, कनाट प्लेस, नई दिल्ली ११०००१; प्रथम संस्करण सन् १९८० । १५. चिन्तामणि ( भाग १ ) : रामचन्द्र शुक्ल इण्डियन प्रेस, प्राइवेट लिमिटेड, इलाहाबाद ; प्रथम संस्करण सन् १९६५ । चेतना का ऊर्ध्वारोहण : मुनि नथमल आदर्श साहित्य संघ, चूरू; सन् १४. १६. १९७९ । १७. जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन ( भाग १-२ ) : डॉ. सागरमल जैन ; राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान, जयपुर ( राजस्थान ) ; प्रथम संस्करण सन् १९८२ । १८. जैन योग : मुनि नथमल ; आदर्श साहित्य संघ, चूरू, द्वितीय संस्करण सन् १९८० । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ( भाग - १ ) : जिनेन्द्र वर्णी; भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, दुर्गाकुण्ड मार्ग, वाराणसी-५; प्रथम संस्करण सन् १९७० । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ( भाग - २ ) : जिनेन्द्र वर्णी; भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, दुर्गाकुण्ड मार्ग, वाराणसी-५; प्रथम संस्करण सन् १९७१ । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश (भाग ३) : जिनेन्द्र वर्णी; भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, दुर्गाकुण्ड मार्ग, वाराणसी - ५ ; प्रथम संस्करण सन् १९७२ । २२. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ( भाग - ४ ) : जिनेन्द्र वर्णी; भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, दुर्गाकुण्ड मार्ग, वाराणसी - ५ ; प्रथम संस्करण सन् १९७३। ठाणं : सम्पादक - मुनि नथमल जैन विश्व - भारती लाडनूं (राज.) ; वि.सं. २०३३। २४. तत्त्वार्थसूत्र : उमास्वाति प्रणीत; विवेचक पं. सुखलालजी संघवी ; प्रकाशक - जैन संस्कृति संशोधन मण्डल बनारस - ५ ; द्वितीय संस्करण सन् १९५२ । २५. दशवैकालिक ( दसवेयालियं ) : सम्पादक मुनि नथमल जैन भारती, लाडनूं (राज.) ; प्रथम संस्करण सन् १९८४ । २६. दशासूत्र स्कन्ध सूत्रम : श्री घासीलालजी म. श्री ; द्वितीय संस्करण; जैन शास्त्रोद्धार समिति, ग्रीन लॉज के पास राजकोट ; सं. २४८६ । १९. २०. २१. २३. Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन २७. द्वितीय कर्मग्रन्थ : देवेन्द्र सूरि; व्याख्याकार-मुनि श्री मिश्रीमलजी; श्री मरुधर केसरी साहित्य प्रकाशन, समिति पीपलिया बाजार, ब्यावर (राज.); द्वितीय संस्करण १९८० । २८. द्रव्य संग्रह : आचार्य नेमिचन्द्र ; परमश्रुत प्रभावक मंडल, श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास; तृतीय संस्करण वि.सं. २०२२।। २९. धम्मपद : राहुल सांकृत्यायन; भिक्षु ग. प्रज्ञानन्द, बुद्ध विहार, रिसालदार पार्क, लखनऊ; द्वितीय संस्करण सन् १९५७।। ३०. धर्मामृत अनगार : पं. आशाधर; सम्पादक - कैलाशचन्द्र शास्त्री; भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली। ३१. धवला-षट्खंडागम: (खण्ड-१/भाग-१/पुस्तक-१) : श्री पुष्पदंत्त-भूतबलि प्रणीत ; सम्पादक पं. फूलचन्दजी शास्त्री, प्रकाशक-जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर; संशोधित संस्करण वि. सं. २०४१। ३२. धवला-षट्खंडागमः (खण्ड-१/भाग ९/पुस्तक ६) : श्री पुष्पदंत-भूतबलि प्रणीत; सम्पादक पं. फूलचन्द्रजी शास्त्री, प्रकाशक-जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर; संशोधित संस्करण वीर नि.सं. २५१२, सन् १९८५ । ३३. धवला-षट्खंडागमः (खण्ड-४/भाग-७-१९/पुस्तक १२) : श्री पुष्पदंत भूतबलि प्रणीतः ; टीका श्री वीरसेनाचार्य, सम्पादक-पं. हीरालालजी जैन; प्रकाशक श्रीमंत सेठ शिताबराय लक्ष्मीचन्द्र अमरावती; वि.स. २०११। ३४. धार्मिक सहिष्णुता और जैन धर्म : डॉ. सागरमल जैन; पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, आई.टी.आई. रोड, वाराणसी-५, प्रथम संस्करण सन् १९८५। न्यायदर्शन : श्रीराम शर्मा आचार्य ; संस्कृति संस्थान, बरेली (उ.प्र.); प्रथम संस्करण सन् १९६४। ३६. पंचास्तिकाय : कुन्दकुन्दाचार्य; श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास, (गुजरात); तृतीय संस्करण वि.सं. २०२५ । ३७. पातंजल योगदर्शन : पं. चन्द्रशेखर शुक्ला; पं. चन्द्रशेखर शुक्ल, मुद्रित कानून प्रेस, कानपुर; प्रथम संस्करण सन् १९५१। ३८. प्रथम कर्मग्रन्थ : बाबूभाई जेशिंगलाल महता; यशोविजय जैन संस्कृत पाठशाला, मेहसाणा (गुजरात)। पातंजलयोगप्रदीप : स्वामी ओमानन्द तीर्थ; मोतीलाल जालान, गीता प्रेस, गोरखपुर; चतुर्थ संस्करण वि.सं. २०१८ । ३९. पुरुषार्थसिद्धयुपाय : अमृतचन्द्राचार्य ; परमश्रुत प्रभावक मण्डल, श्रीमद् ३८. Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ ४३. संदर्भ ग्रंथ-सूची राजचन्द्र आश्रम, अगास (गुजरात); षष्ठम संस्करण सन् १९७७। प्रवचन पारिजात : आचार्य विद्यासागर; मुनि संघ स्वागत समिति, सागर (म.प्र.); प्रथम संस्करण सन् १९८०। प्रवचनसार : कुन्दकुन्दाचार्य; हिन्दी अनु. पं. मनोहरलाल; परमश्रुत प्रभावक मण्डल, बम्बई; प्रथम संस्करण वि. सं. १९६९। प्रशमरति : आचार्य उमास्वाति; सम्पादक पं. राजकुमारजी; श्री परमश्रुत प्रभावक मंडल, जौहरी बाजार, बम्बई; प्रथम संस्करण सन् १९५०। प्रश्न व्याकरण : सं. श्री मिश्रीमलजी महाराज ; श्री आगम प्रकाशन समिति, पीपलिया बाजार, ब्यावर (राज.); सन् १९८३। प्रज्ञापनासूत्र : सम्पादक-ज्ञान मुनि; आगम प्रकाशन समिति, जैन स्थानक, पीपलिया बाजार, ब्यावर (राज.); सन् १९८३।। ४५. बाल मनोविज्ञान : योगेन्द्र जीत; विनोद पुस्तक मन्दिर, आगरा; नवम् संस्करण सन् १९७७। ४६. भगवती सूत्र (व्याख्या प्रज्ञप्ति) (भाग १-२) : सम्पादक - अमरमुनि; आगम प्रकाशन समिति, जैन स्थानक, पीपलिया बाजार, ब्यावर (राज.); सन् १९८३। ४७. भारतीय दर्शन : बलदेव उपाध्याय; शारदा मंदिर, वाराणसी; षष्ठम संस्करण सन् १९६०। ४८. भारतीय दर्शन : डॉ. राधाकृष्णन् ; राजपाल एण्ड सन्स, कश्मीरी गेट, दिल्ली-६; प्रथम संस्करण मार्च १९६९। ४९. भारतीय दर्शन : पारसनाथ द्विवेदी; श्री राममेहरा एण्ड कम्पनी, आगरा-३; प्रथम संस्करण सन् १९७३ । ५०. भावदीपिका : पं. दीपचन्दजी; सम्पादक पं. मुन्नालालजी जैन काव्यतीर्थ इन्दौर; प्रकाशक - ब्रह्मचारी दुलीचन्द उदासीन आश्रम, इन्दौर; वीर नि.सं. २४७४। ५१. मनन और मूल्यांकन : मुनि नथमल; आदर्श साहित्य संघ, चूरू; सन् १९८३। ५२. मनोविज्ञान : नारमन एल मन ; राजकमल प्रकाशन प्रा. लि., दिल्ली ६; द्वितीय संस्करण सन् १९७२। ५३. महावीर जयन्ती स्मारिका (खण्ड-१) : राजस्थान जैन सभा, जयपुर; सन् १९८३। ५४. मीमांसा दर्शन : श्री राम शर्मा आचार्य, संस्कृति संस्थान, बरेली Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन (उ.प्र.) ; प्रथम संस्करण सन् १९६४। ५५. मूलाराधना : शिवकोटि आचार्य; टीकाकार पं. सदासुख कासलीवाल ; वीर पुस्तक भण्डार, मनिहारों का रास्ता, जयपुर। ५६. मोक्षमार्ग प्रकाशक : पं: टोडरमल ; भाषान्तरकर्ता- श्री मगनलाल जैन; आचार्यकल्प पं. श्री टोडरमल ग्रन्थमाला, गाँधी रोड़, बापूनगर, जयपुर ; वि. सं. २०२३। ५७. मोक्षशास्त्र अर्थात् तत्त्वार्थसूत्र : टीका संग्राहक - रामजी माणेकचन्द दोशी; श्री जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट, सोनगढ़ (सौराष्ट्र); प्रथम संस्करण वीर. सं. २४८०।। ५८. रयणसार : कुन्दकुन्दाचार्य; दिगम्बर जैन धर्मशाला, कूचा बुलाकी बेगम, दिल्ली; तृतीय संस्करण वि.सं. २०२० । ५९. राजवर्तिका (तत्त्वार्थ) : आचार्य श्री अकलंक देव विरचित; सम्पादक पं. गजाधरलालजी जैन; प्रकाशक श्री भारतीय जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था, काशी; वीर. नि. सं. २४४१, सन् १९१५ । विकास मनोविज्ञान : डॉ. शारदाप्रसाद वर्मा; मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी, भोपाल ; प्रथम संस्करण सन् १९७२। ६१. विशेषावश्यकभाष्य : जिनभद्रगणि श्रमाश्रमण ; आगमोदय समिति, शाह वेपीचंद सुरचंद, बम्बई; प्रथम संस्करण सन् १९२७। वेदान्तसार : सदानन्द ; व्याख्याकार - डॉ. राधावल्लभ त्रिपाठी; रामनारायणलाल बेनीमाधव, २ कटरा रोड, इलाहाबाद; प्रथम संस्करण सन् १९७७। ६३. वैशेषिक दर्शन : श्री राम शर्मा आचार्य ; संस्कृति संस्थान, बरेली (उ.प्र.); प्रथम संस्करण सन् १९६४। शारीरिक मनोविज्ञान : ओझा एवं भार्गव ; हरप्रसाद भार्गव, पुस्तक प्रकाशक ; ४/२३०, कचहरी घाट, आगरा; पंचम संस्करण सन् १९८३। शिक्षा मनोविज्ञान : गिरधारीलाल श्रीवास्तव; न्यू बिल्डिग्स, अमीनाबाद, लखनऊ; प्रथम संस्करण सन् १९७२। समयसार : कुन्दकुन्दाचार्य ; श्री दिगम्बर जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट, सोनगढ़ (सौराष्ट्र); तृतीय संस्करण सन् १९६४।। ६७. समवाओ : सम्पादक - मुनि नथमल ; जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.); प्रथम संस्करण सन् १९८४। ६८. सर्वार्थसिद्धि : आचार्य पूज्यपाद ; सम्पादक - फूलचन्द शास्त्री, भारतीय ६४. ६६. Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ ग्रंथ-सूची १५३ ज्ञानपीठ-काशी, दुर्गाकुण्ड, बनारस; प्रथम संस्करण सन् १९५५ । ६९. सामान्य मनोविज्ञान : एस.एस. माथुर; विनोद पुस्तक मन्दिर, हास्पिटल रोड, आगरा-३; षष्ठम् संस्करण सन् १९७३।। सामान्य मनोविज्ञान की रूपरेखा : डॉ. रामनाथ शर्मा; केदारनाथ रामनाथ, १३२, कालिज रोड, मेरठ; नवम् संस्करण सन् १९७९-८० । ७१. सामाजिक मनोविज्ञान की रूपरेखा : रवीन्द्रनाथ मुकर्जी; किताब महल, १५, नार्थ हिल रोड, इलाहाबाद; तृतीय संस्करण सन् १९७८ । ७२. सुत्तनिपात : अनुवादक - भिक्षु धर्मरत्न; महाबोधि सभा, सारनाथ, वाराणसी; द्वितीय संस्करण सन् १९६० । ७३. सूत्रकृतांग : व्याख्याकार - मुनिश्री हेमचन्द्रजी; आत्मज्ञान पीठ, जैन धर्मशाला, मानसा मण्डी (पंजाब); प्रथम संस्करण सन् १९७९ । संयुत्तनिकाय (पहला भाग) : अनुवादक - भिक्षु जगदीश काश्यप, भिक्षु धर्मरक्षित; महाबोधि सभा, सारनाथ, बनारस; सन् १९५४।। ७५. संयुत्तनिकाय (दूसरा भाग) : अनुवादक - भिक्षु जगदीश काश्यप; भिक्षु धर्मरक्षित; महाबोधि सभा, सारनाथ, बनारस; प्रथम संस्करण सन् १९५४। सांख्यदर्शन : डॉ. रामशंकर भट्टाचार्य; भारतीय विद्या प्रकाशन, वाराणसी; संवत् २०२२। ७७. सांख्याकारिका : ब्रजमोहन चतुर्वेदी; नेशनल पब्लिशिंग हाउस, २/३५, अंसारी रोड, दरियागंज, दिल्ली; द्वितीय संस्करण सन् १९७५। ७८. योगशास्त्र : हेमचन्द्राचार्य; अनुवादक - मुनि पद्मविजय; श्री निर्ग्रन्थ साहित्य प्रकाशन संघ, दिल्ली-६; प्रथम संस्करण वि. २०३१ । ७९. योगदृष्टि समुच्चय : हरिभद्रसूरि ; विवेचक - डॉ. भगवानदास मनसुखभाई मेहता; श्रीमद् राजचन्द्र ज्ञानमंदिर, घाटकोपर, मुंबई-४०० ०७७ ; प्रथम संस्करण सन् १९५० । ८०. ज्ञानार्णव : शुभचन्द्राचार्य; श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास (गुजरात); चतुर्थ संस्करण सन् १९७५। श्रीमद् भगवद्गीता (रामानुज भाष्य) : अनुवादक - हरिकृष्णदास गोयन्दका; घनश्यामदास जालान, गीताप्रेस, गोरखपुर; द्वितीय संस्करण वि.सं. २००८। ८१. Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वी हेमप्रज्ञाश्री जन्म पिता माता सांसारिक नाम दीक्षा दीक्षागुरु : 1958 ई., : श्री जिन्दासमलजी सुराना : श्री तिलकसुन्दरी सुराना कुमारी हेमलता साध्वी-क्रम निश्रादात्री गुरु : व्यावहारिक शिक्षा : (संगीत) बी.ए., (संस्कृत) एम.ए., एम. फिल., पीएच.डी. : 1979 ई., जयपुर : जैन कोकिला, व्याख्यानभारती, विश्व प्रेम प्रचारिका, समन्वयसाधिका, भेदविज्ञानी, समतामूर्ति स्व. प्रवर्तिनी श्री विचक्षणश्री जी महाराज जयपुर : अंतिम शिष्या : ओजस्वी वाणी की धनी, आध्यात्मिक, सामाजिक, पारिवारिक, मनोवैज्ञानिक विषयों पर हृदयस्पर्शी चिन्तनशीला, जन-मन श्रद्धेया, पूज्या साध्वी श्री मणिप्रभाश्री जी. Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________