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________________ ३० कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन (३) माया माया-कषाय कुटिलता का बोधक है। धर्मामृत (अनगार) में मायादी का स्वरूप बताया गया है- 'जो मन में होता है, वह कहता नहीं है; जो कहता है, वह करता नहीं है - वह मायावी होता है।' वस्तुतः मायावी शहद लगी उस छुरी के समान है, जो मृदु व्यवहार से विश्वास जगाकर विश्वासघात करता है। वह स्वार्थसिद्धि में चतुर, छल-कपट का आश्रय लेकर हर प्रकार का स्वांग भरने में चतुर होता है। अन्ततः भेद खुलने पर वह किसी का विश्वासपात्र नहीं रहता है। आचारांगसूत्र में कहा है। मायावी और प्रमादी बार-बार जन्म लेता है, उसका संसार-परिभ्रमण कभी समाप्त नहीं होता। कितनी भी साधना हो, पर यदि माया-कषाय कृश नहीं हुआ तो सम्पूर्ण साधना निरर्थक है। सूत्रकृतांगसूत्र में माया से होने वाली हानियों का दिग्दर्शन कराया गया है। कहा गया है- जो माया-कषाय से युक्त है, वह भले ही नग्न-निर्वस्त्र रहे, घोर तप से कृश होकर विचरण करे, एक-एक मास का लगातार उपवास करे, तो भी अनन्तकाल तक वह गर्भवास में आता है अर्थात् उसका जन्म-मरण समाप्त नहीं होता। योगशास्त्र-इस माया का आश्रय कभी नहीं लेना चाहिए, क्योंकि ये असत्य की जननी, शीलवृक्ष को काटने वाली कुल्हाड़ी, मिथ्यात्व और अज्ञान की जन्मभूमि तथा दुर्गति का कारण है। ८२ ज्ञानार्णव- यह माया अविद्या की भूमि, अपयश का घर, पापकर्म का विशाल गर्त तथा मोक्ष मार्ग की अवरोधक है। ८३ मोक्षमार्ग प्रकाशक- इस माया-कषाय से वशीभूत हुआ जीव - नानाविध कपट वचन बोलता है, प्राणान्तक संभावना होने पर भी छल करता है और यदि ७९. यो वाचा स्वमपि स्वान्तं... (धर्मा./ अ.६ / गा. १९) ८०. माई पमाई पुणरेह गभ (आयारो | अ. ३ / उ. १ / सू. १४) ८१. जे इह मायाइ मिज्जड, आगंता गब्भाय णंत सो। (सू. कृ. / अ. २ / उ. १/गा. ९) ८२. असूनृतस्य जननी (यो. शा. / प्र. ४/ गा. १४) ८३. ज्ञानार्णव/ सर्ग १९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001719
Book TitleKashay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHempragyashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Kashaya
File Size11 MB
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