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________________ ७८ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन योगशास्त्र में पतंजलि ने मनुष्यों के सात चक्रों का वर्णन किया है। अशुभ/अधर्म तीन लेश्याएँ और पतंजलि के तीन निम्न चक्र एक ही अर्थ रखते हैं। जिसे पतंजलि मूलाधार चक्र कहते हैं- उस मूलाधार में जीने वाला व्यक्ति अंधकार में जीता है, कषायों और वासनाओं की तीव्रता में जिसकी भाव परिणति होती है। पहले तीन चक्र सांसारिक हैं। अधिकतर लोग पहले तीन चक्रों में ही जीते और मर जाते हैं। चौथा, पाँचवाँ और छठा चक्र धर्म में प्रवेश है। चौथा चक्र है हृदय, पाँचवाँ कंठ, छठवाँ आज्ञा ललाट। हृदय में दया, करुणा के अंकुरण के साथ ही धर्म की शुरूआत होती है। शुभ-भावना के साथ-साथ वाणी का समन्वय पाँचवें चक्र में होता है। छठवें चक्र में चेतना के प्रवेश के साथ-साथ भावना, वाणी और विवेक बुद्धि का संगम, इनकी त्रिविध एकता घटित होती है। जीवन की ऊर्जा आज्ञाचक्र पर आकर ठहरते ही सारा अन्तर्लोक एक प्रभा से मण्डित हो जाता है। एक प्रकाश फैल जाता है। जिसे पतंजलि सहस्रार - सहस्रदल कमल- सातवाँ चक्र कहते हैं-वह छह लेश्याओं के पार की स्थिति है। अर्थात् उस समय शुक्ल लेश्या भी प्रायः अव्यक्त हो जाती है, निर्विकल्प अवस्थावत् स्थिति है। जैसे शरीर के सात चक्रों में निम्न तीन चक्र विकारों से सम्बन्धित हैं; वैसे ही लेश्याओं में प्रथम तीन लेश्याएँ अशुभ कही गयी हैं। किस तरह के भाव विचार किस लेश्या में रहते हैं तथा वह कषाय की तीव्रता अथवा मन्दता से संयुक्त है यह विषय उत्तराध्ययनसूत्र आदि ग्रन्थों में प्रतिपादित है। (१) कृष्णलेश्या (तीव्रतम कषाय)- भारतीय संस्कृति में यम (मृत्यु) को काले रंग में चित्रित किया गया है। काला रंग कलुषता का परिचायक है। वैज्ञानिकों का कथन है कि व्यक्ति के आसपास यदि काला आभा-मण्डल है, तो समझें कि वह हिंसा, क्रोध, वासना आदि भयंकर भावों की भूमि पर स्थित है। ___ कृष्णलेश्या वाला क्रूर, अविचारी, निर्लज्ज, नृशंस, विषयलोलुप, हिंसक, स्वभाव की प्रचण्डता वाला होता है। जामुन का फल खाने के लिए पूरे वृक्ष को जड़ से काटने का विचार आ गया। क्षणभंगुर थोड़े से सुख के लिए असंख्य जीवों की हत्या करने का भाव आ गया। छोटे से सुख के लिए दूसरे को विनष्ट करने का मन बना लिया। राह से एक व्यक्ति गुजर रहा है, एक कुत्ता दिखाई पड़ा, तुरन्त उठाकर एक पत्थर मार दिया। जिस राह से निकल रहा है, वृक्ष लहरा रहे हैं, वह व्यक्ति पत्तों को ही तोड़ता, मसलता, कुचलकर फेंकता चला गया। हिंसकता जैसे स्वभाव का अंग बन गई- यह कृष्णलेश्या है। कई माताएँ १०. उत्तरा. / अ. ३४ / गा. २१ . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001719
Book TitleKashay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHempragyashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Kashaya
File Size11 MB
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