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________________ ९८ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन (१०) प्राणातिपातिकी क्रिया- प्राणहरण करना । ( ११ ) दर्शन क्रिया - रागभाव से देखना । (१२) स्पर्शन क्रिया - स्पर्श से रागानुभव करना । (१३) प्रात्ययिकी क्रिया- नवीन शस्त्रों का निर्माण । (१४) समन्तानुपातन क्रिया - प्रमादवश उपयोगी स्थान पर मल-मूत्र त्याग । (१५) अनाभोग क्रिया - स्थान प्रमार्जना किये बिना उपयोग करना । ( १६ ) स्वहस्त क्रिया- अन्य की क्रिया स्वयं करना । ( १७ ) निसर्ग क्रिया - पापप्रवृत्ति की अनुमति देना । (१८) विदार क्रिया - अन्य के पाप को प्रकट करना। (१९) आज्ञाव्यापादिकी क्रिया - व्रत ग्रहण में अशक्ति होने पर विपरीत प्ररूपणा । (२०) अनवकांक्ष क्रिया- धूर्तता एवं आलस्य से शास्त्र - विधि का अनादर करना । (२१) आरम्भ क्रिया - हिंसाजनक प्रवृत्ति में स्वयं रत रहना एवं अन्य को उस प्रवृत्ति में संलग्न देख प्रसन्नता। (२२) पारिग्रहिकी क्रिया - संग्रह के संरक्षण हेतु क्रिया । (२३) माया क्रिया - अन्य को ठगना । (२४) मिथ्यादर्शन क्रिया- विपरीत बुद्धि का अनुमोदन करना । (२५) अप्रत्याख्यान क्रिया- पाप व्यापार से निवृत्त न होना । जीवन-व्यवहार में क्रियाएँ अनेक प्रकार की होती हैं, उन क्रियाओं के आधार से व्यक्ति शुभाशुभ का अनुमान करता है। मूलतः क्रिया में जुड़े भाव से कर्म आस्रव का सम्बन्ध है । एक जैसी क्रिया में दो व्यक्तियों के भाव भिन्न-भिन्न हो सकते हैं; अतः कर्म आस्रव भी भिन्न-भिन्न होता है। आस्रव का विशेष सम्बन्ध भाव जगत से होता है। कषाय भाव में तीव्रता हो अथवा मन्दता हो, जानबूझकर गलत कार्य किया हो अथवा अनजाने में हो गया हो, उत्साह एवं प्रबलता से किया हो अथवा अल्पशक्ति से किया हो, अधिकरण विशिष्ट हो अथवा सामान्य हो - इन सबके आधार से कर्म-परमाणुओं का आगमन होता है। जीव-अधिकरण के १०८ भेद बताए गए हैं। " संसारी जीव शुभ या अशुभ प्रवृत्ति करते समय इन १०८ अवस्थाओं में से किसी-न-किसी अवस्था में अवश्य ४९ ४९. तत्त्वार्थ/अ. ६ / सू. ९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001719
Book TitleKashay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHempragyashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Kashaya
File Size11 MB
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